आज कुछ किसानों के लिए खेती जहां घाटे का सौदा साबित हो रही है, वहीं देश के कई किसानों ने केले की खेती की बारीकियों, नई तकनीकों और वैज्ञानिक पहलू से सफलता हासिल की है. केले की फसल से ज्यादा पैदावार लेने और उम्दा किस्म का केला हासिल करने के लिए जरूरी है कि केले की खेती के हर तकनीकी पहलू को सही तरीके से अपनाया जाए. दुनियाभर में केला एक महत्त्वपूर्ण फसल है.

देश में तकरीबन 4.9 लाख हेक्टेयर जमीन पर केले की खेती की जाती है. इस की खेती के लिए पानी सोखने वाली जमीन ज्यादा मुफीद रहती है.

कीड़े व बीमारियां

प्रकंद छेदक कीट : इस कीट का वैज्ञानिक नाम कास्मोपोलाइट्स साडिडस है. इस का असर पौध लगाने के 1-2 महीने बाद ही शुरू हो जाता है. शुरुआत में ये कीट तने में छेद कर के तने को खाते हैं, जो बाद में राइजोम की तरफ चले जाते हैं. इस के असर से पौधों की बढ़ोतरी धीमी पड़ जाती है, वे बीमार दिखने लगते हैं और पत्तियों पर पीली धारियां उभर आती हैं. इस कीट के ज्यादा असर से पत्तियों और धारियों का आकार छोटा हो जाता है.

रोकथाम

* हमेशा स्वस्थ सकर ही चुनें.

* लगातार एक ही खेत में केले की फसल न लें.

* सकर को रोपाई से पहले 0.1 फीसदी कीनालफास के घोल में डुबोएं.

* रोपाई के समय क्लोरोपायरीफास चूर्ण प्रति गड्ढे की दर से मिट्टी में मिलाएं.

* प्रभावित और सूखी पत्तियों को काट कर जला दें.

* कार्बोफ्यूरान 20 ग्राम प्रति पौधे पर इस्तेमाल से इस कीट की रोकथाम होती है.

केला फसल (banana crop)

तनाबेधक कीट : इस कीट का वैज्ञानिक नाम ओडोइपोरस लांगिकोल्लिस है. इस कीड़े के असर से पत्तियां पीली पड़ जाती हैं. बाद में तने पर छेद दिखाई देते हैं. उस के बाद तने से गोंद जैसा लिसलिसा पदार्थ निकलना शुरू हो जाता है. इस कीट के असर से पौधों पर फूल नहीं आते या फूलों की संख्या काफी कम रहती है. घार का आकार काफी छोटा रह जाता है और फल ठीक तरह से नहीं पनप पाते हैं.

रोकथाम

* रोग प्रभावित पौधों को उखाड़ कर खत्म कर दें.

* प्रकंदछेदक कीट की रोकथाम के उपाय करें.

माहू : इस कीट का वैज्ञानिक नाम पेंटालोनिया नाइग्रोनर्वोसा है. यह पौधों से रस चूस कर इस की बढ़ोतरी को प्रभावित करता है और शीर्ष गुच्छ रोग पैदा करने वाले विषाणुओं का फैलाव करता है.

रोकथाम

* प्रभावित पौधों को उखाड़ कर खत्म कर दें.

* प्रभावित इलाके में पेड़ी फसल न लें.

* डायमिथोएट 2 मिलीलीटर की दर से पानी में घोल कर छिड़काव करें.

सिगाटोका पत्ती धब्बा : यह रोग सरकोस्पोरा म्यूजीकोला नामक फफूंद से पनपता है. इस रोग की शुरुआत में पत्ते की बाहरी सतह पर पीले धब्बे बनने शुरू हो कर बाद में लंबी काली धारियों के रूप में बदल जाते हैं और बड़ेबड़े धब्बों का रूप ले लेते हैं. इस तरह के धब्बे पत्तियों के किनारे और अगले हिस्से में ज्यादा पाए जाते हैं.

खास किस्मों में 2-3 पत्तियों को छोड़ कर बाकी पत्तियां इस रोग से सूख जाती हैं. साथ ही, फलों का आकार भी छोटा रहता है और समय से पहले ही फल पक जाते हैं. वातावरण में नमी ज्यादा होने और औसत तापमान के कम होने से रोग का असर ज्यादा होता है.

पर्ण धब्बा : यह रोग ग्लोइयोस्पोरियम म्यूजी और टोट्रायकम ग्लोइयोस्पोरियोडियम नामक विषाणुओं से होता है. इस रोग में पत्तियों के सिरे पर हलके भूरे या काले धब्बे दिखाई पड़ते हैं, जिस से बाद में पत्तियां सूख जाती हैं और पैदावार पर उलटा असर पड़ता है.

रोकथाम

कार्बेंडाजिम 1 ग्राम या कवच 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें.

उकठा रोग : यह रोग फ्यूजेरियम आक्सीस्पोरम किस्म की यूबेंस नामक फफूंद से होता है. इस के लक्षण पौध लगाने के 5 से 8 महीने में दिखाई देते हैं.

पुरानी पत्तियों में पीलापन किनारे से शुरू हो कर मध्य की तरफ बढ़ता है और पत्तियों का रंग पीला पड़ जाता है.

पत्तियां तने के चारों ओर गोलाई में लटक जाती हैं. तने का निचला भाग लंबाई में फट जाता है. 1 से 2 महीने के भीतर पौधा मर जाता है.

रोकथाम

* कंदों को कार्बेंडाजिम 1 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल में डुबो कर रोपाई करें.

* रोपाई के 5 महीने बाद खेत में कार्बेंडाजिम 1 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल कर 2 महीने में 1 बार टोआ दें.

टिप ओवर : यह रोग इर्विनया केरोटोवोरा नामक जीवाणु से होता है.

इस रोग में राइजोम में सड़न पैदा होने लगती है. इस से प्रभावित पौधा मुलायम हो जाता है और पत्तियां भी पीली पड़ने लग जाती हैं.

रोकथाम

* स्ट्रप्टोसाइक्लिन 750 पीपीएम कापरआक्सीक्लोराइड 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करें.

banana crop

सिगार गलन : यह रोग वर्टिसीलियम थियोब्रामी नामक फफूंद से होता है. यह बरसात में ज्यादा होता है. अधपके फलों के सिरे से सड़न शुरू हो कर धीरेधीरे आगे तक फैल जाती है.

रोकथाम

इस रोग की रोकथाम के लिए फल आने के दौरान थायोफेनेटमिथाइल या बिटरटेनाल 1 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें.

शीर्ष विषाणु रोग : यह रोग विषाणु द्वारा होता है. इस रोग में पत्तियों के बीचोंबीच गहरी धारियां शुरुआती लक्षण के रूप में दिखाई देती हैं. इस से पत्तियों का आकार काफी छोटा हो जाता है. इस रोग से प्रभावित पौधों की बढ़ोतरी कम होती है और इन में फूल नहीं आते हैं. इस विषाणु का फैलाव माहू द्वारा होता है.

रोकथाम

* रोगग्रस्त पौधों को उखाड़ कर नष्ट करें.

* रोगवाहक कीट माहू की रोकथाम करें.

* माहू की रोकथाम के लिए डायमिथोएट 2 मिलीलिटर प्रति लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें.

केले का धारी विषाणु : यह रोग विषाणु से होता है. इस रोग में पत्तियों पर छोटेछोटे पीले धब्बे बनते हैं और पत्तियां सड़ने लगती हैं. इस रोग से केले की पैदावार में 30-40 फीसदी तक की कमी हो सकती है. यह रोग मिली बग से फैलता है.

रोकथाम

* रोगी सकर की रोपाई न करें.

* मिली बग कीट की रोकथाम करें.

banana crop

नेमाटोड : नेमाटोड से केले की पैदावार में करीब 20 फीसदी की कमी आती है. केला बुरोइंग नेमाटोड रेडोफोलस सिमिलिस, लीजन नेमाटोड, प्रैटिलेंकस काफफिर्ड, स्पाइरल नेमाटोड, हेलाकोटीलेप्चस मल्टीसिनकट्स और सिस्ट नेमाटोड, हेटेरोठोरा स्पी से प्रभावित होता है.

नेमाटोड के हमले से पौधों की बढ़वार धीमी पड़ जाती है, तना पतला रह जाता है, पत्तियों पर धब्बे बन जाते हैं और घार का आकार काफी छोटा रह जाता है. इन के लक्षण जड़ों और कंदों पर ज्यादा दिखाई देते हैं. इन से प्रभावित पौधे खेत में नमी होने पर हलकी तेज हवा से भी गिर जाते हैं.

रोकथाम

* प्रभावित इलाकों से रोपाई की सामग्री न लें.

* गन्ना या धान फसलचक्र अपनाएं.

* सनई, धनिया और गेंदा को अंत:फसल के रूप में उगाएं.

* नीम केक 400 ग्राम प्रति पौधा रोपाई के समय और उस के 4 महीने बाद ही इस्तेमाल करना चाहिए.

* रोपाई के समय और उस के बाद 3 महीने के अंतर पर कार्बोफ्यूरान 20 ग्राम प्रति पौधे की दर से इस्तेमाल करें.

तोड़ाई : फलों की तोड़ाई किस्म, बाजार और यातायात के साधन आदि पर निर्भर करती है. केले की बौनी किस्में 12 से 15 महीने बाद और ऊंची किस्में 15 से 18 महीने बाद तोड़ने लायक हो जाती हैं.

फलों की धारियों के पूरी तरह गोल होने पर गुच्छों की तोड़ाई तेज धारदार हंसिए से करनी चाहिए. बाजारों में भेजने के लिए जब केले एकतिहाई पक जाएं, तो उन्हें काट लेना चाहिए.

पकाना : केला एक क्लाईमैक्टेरिक फल है, जिसे पौधे से तोड़ने के बाद पकाया जाता है. केले को पकाने के लिए इथिलिन गैस का इस्तेमाल किया जाता है. इथिलिन गैस फल पकाने का एक हार्मोन है, जो फलों के भीतर सांस लेने की क्रिया को बढ़ा कर उन्हें पकाने में तेजी लाता है.

केले को बंद कमरे में इकट्ठा कर 15 से 18 डिगरी तापक्रम पर इथिलिन (1000 पीपीएम) से 24 घंटे तक उपचार कर के पकाया जाता है.

पैकिंग : केले को आकार के अनुसार श्रेणी में बांट कर अलगअलग गत्ते के 5 फीसदी छेदों वाले छोटेछोटे (12-13 किलोग्राम) डब्बों में भर कर बाजार में भेजना चाहिए.

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