पपीते की खेती के लिए मुख्य रूप से जाना जाने वाला प्रदेश झारखंड राज्य है. यहां पर पपीते को उचित जलवायु मिलने के कारण इस की अनेक किस्मों का भी विकास किया गया है. पपीते का उपयोग जैम, पेय पदार्थ, आइसक्रीम एवं सिरप इत्यादि बनाने में किया जाता है. इस के बीज भी औषधीय गुणों के लिए महत्वपूर्ण हैं. कच्चे फल सब्जी के रूप में उपयोग किए जाते हैं.

पपीते के कच्चे, लेकिन परिपक्व पपीते के फलों से निकलने वाले दूध को सुखा कर पपेन बनाया जाता है. ओक्सी (1931) के अनुसार, पपीते के ‘अधपके पत्ते’ सब्जी के रूप में ‘जावा’ नामक स्थान पर काम में लाए जाते हैं. विश्व में इस की 20 स्पीशीज पाई जाती है. भारत में उगाई जाने वाली स्पीशीज ‘कैरिका पपाया’ है. इस के फल खाने में स्वादिष्ठ होते हैं.

प्रजातियां

अनुसंधान के द्वारा भारतीय कृषि वैज्ञानिकों ने इस की अनेक प्रजातियां विकसित की हैं. भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली के केंद्र पूसा-विहार, तमिलनाडू कृषि विश्वविद्यालय, कोयंबटूर और भारतीय बागबानी अनुसंधान संस्थान, बेंगलुरु व पंतनगर विश्वविद्यालय के द्वारा कई प्रजातियां विकसित की गईं और कुछ विदेशी प्रजातियां भी हैं, जो भारत में उगाने के लिए सही पाई गई हैं.

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के केंद्र, पूसा विहार में विकसित की गई मुख्य किस्में

पूसा डेलीशियस :-

इस के पौधे मध्यम आकार के, जिन में फलत 40-50 सैंटीमीटर ऊंचाई पर आती है. पेड़ की ऊंचाई लगभग 2 मीटर होती है. फल 1.5-2.0 किलोग्राम वजन के सुंदर बड़े नारंगी रंग की और मीठे सुवास युक्त होते हैं. फलों के गुणों की दृष्टि से यह उत्तम किस्म है. प्रति पेड़ लभगभ 50 किलोग्राम फल मिलते हैं. इस के फलों में बीज कम होते सैंटीमीटर. इस के जो भी पौधे उगते हैं, वे या तो मादा होते हैं या उभयलिंगी होते हैं. यह किस्म बिहार क्षेत्र के लिए उपयुक्त पाई गई है.

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