खेती में परंपरागत तरीकों से हट कर नएनए प्रयोग करना किसानों के लिए मददगार साबित हो रहा है और खेती मुनाफे का धंधा भी बन रही है. मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले के 2 युवाओं ने अपनी पढ़ाई के साथसाथ खेतों में नवाचार कर दूसरे किसानों के लिए भी नई राह बनाई है.
नरसिंहपुर जिले के एक छोटे से गांव लोलरी के रहने वाले मुकुल लांघिया और अभिषेक लोधी ने एक एकड़ जमीन में स्ट्राबेरी की खेती कर 5 लाख रुपए तक का मुनाफा कमाया है.
लोलरी गांव के रहने वाले मुकुल लांघिया और अभिषेक लोधी ने यहां के किसानों को लाभदायक स्ट्राबेरी की खेती का एक नया रास्ता दिखाया है.
लोलरी गांव के बाशिंदे मुकुल और उन के सहयोगी अभिजीत दोनों युवाओं ने पढ़ाई के साथ ही कुछ नया करने की सोची और अपने खेतों में स्ट्राबेरी की खेती करने की योजना बनाई. दोनों ने इस की खेती की तकनीकी जानकारी के लिए हिमाचल प्रदेश के गांवों का दौरा कर वहां के किसानों से मिल कर खेती की तकनीकी की जानकरी प्राप्त की.
बातचीत के दौरान मुकुल बताते हैं कि पहले उन्होंने जबलपुर में मिट्टी प्रयोगशाला में अपने खेत की मिट्टी की जांच कराई और वहां से स्ट्राबेरी की खेती के लिए उपयुक्त मिट्टी होने की रिपोर्ट मिलने पर खेती शुरू की.
वैसे, अक्तूबर महीने में स्ट्राबेरी की खेती शुरू की जाती है, लेकिन उन्होंने थोड़ी देर से नवंबर महीने में स्ट्राबेरी का प्लांटेशन किया. तकरीबन एक एकड़ यानी 80 डिसमिल क्षेत्रफल में स्ट्राबेरी के तकरीबन 12,000 पौधे लगाए, शेष बचे हुए हिस्से में ब्रोकली के 3,000 पौधे लगाए. अब यह फसल पक कर तैयार हो गई है और वह जबलपुर, बालाघाट, भोपाल, इंदौर, सागर, मंडला और दूसरे बड़े शहरों में सप्लाई कर रहे हैं.
मुकुल ने बताया कि इस में तकरीबन एक लाख, 70 हजार रुपए की लागत आई और स्ट्राबेरी की खेती से तकरीबन 5 लाख रुपए की आय प्राप्त होने की उम्मीद है.
मुकुल के सहयोगी अभिषेक लोधी बताते हैं कि स्ट्राबेरी की फसल अक्तूबर के महीने में लगती है और अप्रैल तक चलती है, जिस में 70 से 90 दिन में स्ट्राबेरी में फल आना चालू हो जाता है और अप्रैल तक फल निकलता रहता है. हम ने इस बार एक एकड़ में परीक्षण किया और सफलतापूर्वक स्ट्राबेरी का उत्पादन किया. चटक लाल रंग का दिखने वाला यह फल जितना स्वादिष्ठ होता है, उतना ही सेहतमंद भी है. इस का रसदार खट्टामीठा स्वाद लोगों को बेहद भाता है. साथ ही, इस की खुशबू भी इसे दूसरे फलों से अलग बनाती है.
वे बताते हैं कि इस फल की बाजार में कीमत तकरीबन 300 रुपए प्रति किलोग्राम है. हम ने अभी बालाघाट, जबलपुर, नरसिंहपुर, भोपाल आदि शहरी क्षेत्रों में भेजा है और लोकल बाजार में भी भेजा है.
स्ट्राबेरी की खेती करने के लिए मुकुल ने हिमाचल प्रदेश के अपने कुछ दोस्तों से बात की और फिर उद्यानिकी विभाग के अधिकारियों का सहयोग लिया. विभाग ने ड्रिप व मल्चिंग पद्धति से खेती करने की सलाह दी. अंचल में स्ट्राबेरी मिलने लगी है, तो आसपास से डिमांड शुरू हो गई है, जिस के बाद रोजाना लोकल में ही तकरीबन 4,000 रुपए की स्ट्राबेरी बिक रही है. जबलपुर, भोपाल, इंदौर, सागर, मंडला के साथ ही छतरपुर और टीकमगढ़ जिलों से भी डिमांड आ रही है.
स्ट्राबेरी का खाने योग्य भाग लगभग 98 फीसदी होता है. इन फलों में विटामिन सी और लौह तत्त्व प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं. यह अपने विशेष स्वाद और रंग के साथसाथ औषधीय गुणों के कारण भी एक महत्त्वपूर्ण फल है. इस का उपयोग कई मूल्य संवर्धित उत्पादों जैसे आइसक्रीम, जैम, जैली, कैंडी, केक आदि बनाने के लिए भी किया जाता है. इस की खेती अन्य फल वाली फसलों की तुलना में कम समय में ज्यादा मुनाफा दिला सकती है.
भारत में कुछ साल पहले तक स्ट्राबेरी की खेती केवल पहाड़ी क्षेत्रों जैसे उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, कश्मीर घाटी, महाराष्ट्र जैसी जगहों तक ही सीमित थी. वर्तमान में नई उन्नत प्रजातियों के विकास से इस को उष्णकटिबंधीय जलवायु में भी सफलतापूर्वक उगाया जा रहा है. इस के कारण यह मैदानी भागों जैसे उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, बिहार आदि राज्यों में अपनी अच्छी पहचान बना चुकी है. तकनीकी जानकारी की कमी में किसान इस की खेती करने में अपनेआप को असहज महसूस करते हैं, जबकि यदि स्ट्राबेरी की वैज्ञानिक तकनीक से खेती की जाए तो इस की फसल से अच्छा उत्पादन लिया जा सकता है.
इन दोनों नौजवान किसानों का मानना है कि खेती करने के लिए कुछ बातों का ध्यान रखना बेहद जरूरी है :
पलवार बिछाना
अपने खेत में बिछी प्लास्टिक मल्चिंग के बारे में बताते हुए मुकुल कहते हैं कि स्ट्राबेरी उत्पादन में यह एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है. यह काम जमीन की ऊपरी सतह पर सूखे पत्तों, टहनियों या घासफूस से ढक कर किया जाता है, पर आजकल पलवार बिछाने के लिए ज्यादातर प्लास्टिक मल्च का प्रयोग किया जाता है.
स्ट्राबेरी में इस का प्रयोग करने से फल सीधे मिट्टी के संपर्क में नहीं आते हैं. इस से फलों को सड़ने से बचाया जा सकता है. साथ ही, यह खरपतवारों का नियंत्रण करने और सिंचाई की जरूरत को कम करने का काम करती है.
पलवार के लिए आमतौर पर काले रंग की तकरीबन 50 माइक्रोन मोटाई वाली प्लास्टिक की फिल्म का इस्तेमाल किया जाता है. जब पौधे अच्छी तरह स्थापित हो जाएं, तब प्लास्टिक फिल्म बिछाने का काम पौध रोपण के तकरीबन एक महीने बाद किया जाता है.
क्यारियों में प्लास्टिक पलवार बिछाते समय पौधे से पौधे व कतार से कतार की दूरी को ध्यान में रखते हुए छेद करते हैं, जिस से पौधे आसानी से ऊपर आ जाएं.
पलवार बिछाने से पहले ड्रिप (टपक) सिंचाई प्रणाली क्यारियों में व्यवस्थित कर दी जाती है.
निराईगुड़ाई और सिंचाई प्रबंधन
स्ट्राबेरी के पौधे लगाने के कुछ समय बाद उन के आसपास खरपतवार उग आते हैं. ये खरपतवार पौधों को मिलने वाले पोषक तत्त्वों को ग्रहण करने के साथ कई तरह के कीटपतंगों को सहारा देते हैं. रोपे गए पौधों से एक महीने बाद फुटाव शुरू हो जाता है. फुटाव शुरू होने पर खेत की निराईगुड़ाई कर के खरपतवार निकाल देने चाहिए.
स्ट्राबेरी में पौधे की जड़ें जमीन में ज्यादा गहराई तक नहीं जाती हैं. यह सतह पर ही फैलने वाला पौधा होता है, इसलिए इस में कम समय के अंतराल पर नियमित सिंचाई की जरूरत होती है. पहली सिंचाई पौध रोपने के तुरंत बाद कर देनी चाहिए, उस के बाद 2 से 3 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करना फायदेमंद रहता है.
सिंचाई के लिए ड्रिप सिंचाई प्रणाली उत्तम रहती है. इस पद्धति द्वारा पौधों को उन की जरूरत के अनुसार पानी बूंदबूंद के रूप में पौधों की जड़ों में सीधा और समान रूप से पहुंचाया जा सकता है. इस के साथ ही कम पानी का इस्तेमाल कर के अधिकतम पैदावार ली जा सकती है.
ड्रिप सिंचाई प्रणाली में जल के साथसाथ उर्वरक, कीटनाशक और दूसरे घुलनशील रासायनिक तत्त्वों को भी सीधे पौधों तक पहुंचाया जा सकता है.
उन्होंने बताया कि यह पहाड़ी क्षेत्र का पौधा है और पौलीहाउस में ही उस की पैदावार सही होती है.
फलों की तुड़ाई और पैकिंग
स्ट्राबेरी के फलों की तुड़ाई का समय बाजार की दूरी के अनुसार तय करना चाहिए. आमतौर पर फलों की तुड़ाई आधे से तीनचौथाई भाग के रंग बदलने के बाद करनी चाहिए.
फलों की तुड़ाई डंठल सहित सुबह के समय सूरज निकलने से पहले ही कर लेनी चाहिए. तोड़े हुए फलों को रखने के लिए ट्रे का प्रयोग करना चाहिए, क्योंकि इस के फल बड़े नाजुक होते हैं. इन्हें गहरे बरतन में रखने से फलों की ऊंची परत के दबाव के कारण नीचे भरे फलों को नुकसान पहुंच सकता है.
स्ट्राबेरी के फलों को 2-3 दिनों तक ही सुरक्षित रखा जा सकता है. इसलिए तोड़ने के बाद फलों को ज्यादा समय तक नहीं रखना चाहिए. बिक्री के लिए बाजार में भेजने के लिए फलों को प्लास्टिक के छोटे डब्बों में पैक करना चाहिए और बाद में इन डब्बों को कोरूगेटिड फाइबर बोर्ड (सीएफबी) से बने बड़े डब्बों में पैक कर के भेजना चाहिए.
मुकुल ने बताया कि स्ट्राबेरी के 200 ग्राम के एक डब्बे में 10 पीस निकलते हैं, जिन की कीमत तकरीबन 60 रुपए तक होती है. लिहाजा, एक किलोग्राम के हिसाब से स्ट्राबेरी की कीमत तकरीबन 300 से ले कर 400 रुपए किलोग्राम तक चल रही है. एक पौधे से कम से कम 500 से 700 ग्राम पकी हुई स्ट्राबेरी निकल रही है.
उन्होंने कहा कि पूरी तरह से जैविक पद्धति से खेती करने के कारण वे इस की पैकिंग कर जिले में ही नहीं, बल्कि महाराष्ट्र के बाजार तक पहुंचा रहे हैं.
युवा किसान मुकुल लांघिया के मोबाइल नंबर 9424999078 और अभिषेक लोधी के मोबाइल नंबर 8770857962 से बात कर के स्ट्राबेरी की खेती से संबंधित जानकारी प्राप्त की जा सकती है.