भारत के ज्यादातर हिस्सों में पपीते की खेती होती है. इस फल को कच्चा और पका कर दोनों ही तरीके से इस्तेमाल में लाया जाता है. इस फल में विटामिन ए की मात्रा अच्छी पाई जाती है, वहीं अच्छी मात्रा में इस में पानी भी होता है, जो त्वचा को नम बनाए रखने में मददगार है.
अगर पपीते की उन्नत तरीके से खेती की जाए, तो कम लागत में ज्यादा मुनाफा कमाया जा सकता है. इतना ही नहीं, इस की खेती के साथ इस की अंत:वर्तीय फसलों को भी बोया जा सकता है, जिन में दलहनी फसल जैसे मटर, मेथी, चना, फ्रैंचबीन व सोयाबीन आदि हैं.
अब पपीते की खेती पूरे भारत में की जाने लगी है. सालोंसाल आसानी से मिलने वाला पपीता बहुत ही फायदेमंद फल है और आज के समय में पपीता ज्यादातर लोगों की पसंद भी है, क्योंकि यह ऐसा गुणकारी फल है, जो पेट की अनेक समस्याओं को दूर करता है.
इस की खेती करना भी आसान है. कम समय में यह अच्छाखासा मुनाफा देने वाली फसल हैं. शौकिया तौर पर लोग सालोंसाल अपने घर के बगीचे में इसे लगाते आए हैं या खाली पड़ी आसपास की जगह पर इस को उगा कर फायदा लेते रहे हैं.
आज के दौर में अनेक किसान पपीते की खेती कर के अपनेआप को प्रगतिशील किसानों की दौड़ में शामिल कर चुके हैं, क्योंकि इसे उगाना आसान, बेचना आसान और मुनाफा ज्यादा है.
सघन बागबानी पपीता उत्पादकों के लिए यह एक नई विधि है, जिसे अपना कर वे उत्पादकता और अपनी आमदनी में इजाफा कर सकते हैं.
इस विधि का इस्तेमाल पपीता उत्पादकों द्वारा किया जाने लगा है, लेकिन अभी भी अनेक पपीता उगाने वाले किसान इस विधि से अनजान हैं. सघन बागबानी तकनीक में पौध की प्रति इकाई संख्या बढ़ा कर जमीन का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है, जिस से ज्यादा पैदावार ली जा सके.
पपीते की कुछ किस्मों के पौधे बौने होते हैं, जो सघन बागबानी के लिए उत्तम हैं. दिनप्रतिदिन खेती की जोत कम होती जा रही है. ऐसे में पपीते की सघन बागबानी कर के पैदावार बढ़ाने के लिए यह एक खास तरीका है.
पपीते का इस्तेमाल कच्चे व पके फल के रूप में किया जाता है. इस के अलावा इस से मिलने वाला पपेन का भी इस्तेमाल अनेक औद्योगिक कामों में किया जाता है.
खेत में अगर ड्रिप इरिगेशन यानी बूंदबूंद सिंचाई की विधि से पानी दिया जाता है, तो इस से पानी सीधे पौधे की जड़ों में जाता है और बरबाद नहीं होता.
इस पद्धति से खेती करने पर सरकार आम किसानों को 50 फीसदी अनुदान और एसटी और एससी, लघु, सीमांत और महिला किसानों को 50 फीसदी अनुदान देती है.
बूंदबूंद सिंचाई से पपीते में पानी देते हैं. आप देख सकते हैं कि हम सामान्य विधि से पूरे खेत में पानी देते हैं और इस विधि में सिर्फ पौधे की जड़ों में पानी जा रहा है. इस से तकरीबन 85 फीसदी पानी की बचत होती है.
यदि किसान पपीते की बागबानी से ज्यादा उत्पादन लेना चाहते हैं, तो समय रहते इन सब की रोकथाम जरूरी है. यहां बागबानों के लिए पपीते के प्रमुख विषाणु रोग, उन के लक्षण और रोकथाम की जानकारी का पूरा ब्योरा दिया जा रहा है.
पपीते की खेती के लिए सही जलवायु
इस की खेती गरम नमीयुक्त जलवायु में की जा सकती है. इसे अधिकतम 38 से 44 डिगरी सैल्सियस तक के तापमान पर उगाया जा सकता है. इस के साथ ही न्यूनतम 5 डिगरी सैल्सियस से कम तापमान नहीं होना चाहिए. पपीते को लू और पाले से भी बहुत नुकसान होता है.
पपीते की खेती का उचित समय
इस की खेती साल के बारहों महीने की जा सकती है. लेकिन फरवरी, मार्च व अक्तूबर के मध्य का समय सही माना जाता है. इन महीनों में उगाए गए पपीते की बढ़वार काफी अच्छी होती है.
पपीते की खेती के लिए उपयुक्त मिट्टी
पपीता बहुत ही जल्दी बढ़ने वाला पेड़ है, इसलिए इसे साधारण जमीन, थोड़ी गरमी और अच्छी धूप मिलना अच्छा होता है. इस की खेती के लिए 6.5-7.5 पीएच मान वाली हलकी दोमट या दोमट मिट्टी सही मानी जाती है, जिस में जल निकास का अच्छा इंतजाम हो.
पपीते की उन्नत किस्में
* पूसा डोलसियरा
* पूसा मेजेस्टी
* रैड लेडी 786 (संकर किस्म)
पपीते से मिली उपज
पपीते की उन्नत किस्मों से प्रति पौधे 35 से 50 किलोग्राम उपज मिल जाती है. पपीते का एक स्वस्थ पेड़ एक सीजन में तकरीबन 40 किलोग्राम तक फल देता है.
पपीते की फसल में विषाणु रोग प्रबंधन
बागबानी में अधिक लाभ की दृष्टि से पपीते की फसल अति लाभकारी है, किंतु पपीते की फसल में विषाणु एक प्रमुख समस्या है, जिस की जानकारी की कमी में किसानों को बहुत नुकसान उठाना पड़ता है. अगर समय रहते इन का प्रबंधन न किया गया, तो किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ता है.
रिंग स्पौट वायरस
इस रोग का कारण विषाणु है, जो कि माहू द्वारा फैलता है. इस के कारण पौधे की वृद्धि रुक जाती है. पत्ती कटीफटी सी हो जाती है और हर गांठ पर कटेफटे पत्ते निकलते हैं.
पत्ती, तनों और फलों पर गोलाकार धब्बे बन जाते हैं. नतीजतन, फल व पौध वृद्धि प्रभावित होती है. इस रोग के गंभीर आक्रमण के हालात में 50-60 फीसदी तक नुकसान हो जाता है.
नियंत्रण
* बागों में साफ सफाई रखें.
* शाम को खेत में धुआं करें.
* रोगग्रस्त पौधे को उखाड़ कर जला दें.
* पपीते के बगीचे के आसपास कद्दूवर्गीय कुल के पौधे नहीं होने चाहिए.
* नीम सीड कर्नल अर्क या नीम के तेल का इस्तेमाल 10 से 15 दिन के अंतराल पर करते रहें.
* माहू के नियंत्रण के लिए डाईमेथोएट दवा 0.1 फीसदी का इस्तेमाल करें.
* बारिश के बाद बाग लगाने पर यह रोग कम दिखाई देता है.
लीफ कर्ल विषाणु रोग
यह भी विषाणुजनित रोग है, जो सफेद मक्खी के द्वारा फैलता है. इस वजह से पत्तियां मुड़ जाती हैं. इस रोग से 70-80 फीसदी तक नुकसान हो जाता है.
नियंत्रण
* स्वस्थ पौधों का रोपण करें.
* शाम को खेत के आसपास धुआं करें.
* रोगी पौधों को उखाड़ कर खेत से दूर गड्ढे में दबा कर नष्ट करें.
* सफेद मक्खी के नियंत्रण के लिए नीम का तेल 0.2 5-7 दिन के अंतराल पर या इमिडाक्लोप्रिड कीटनाशक 0.1 का इस्तेमाल करें.
* फसल रोपण से पहले ज्यादा जानकारी के लिए कृषि विज्ञान केंद्र, हस्तिनापुर, मेरठ से संपर्क करें.
मात्रा
पाउडरी मिल्ड्यू रोग की रोकथाम के लिए हेक्सास्टौप की 300 ग्राम/एकड़ मात्रा सही रहती है.
पपीते का वलयचित्ती रोग
पपीते के वलयचित्ती रोग को कई अन्य नामों से भी जाना जाता है. जैसे कि पपीते की मोजेक, विकृति मोजेक, वलयचित्ती (पपाया रिंग स्पौट), पत्तियों का संकरा व पतला होना, पर्ण कुंचन और विकृति पर्ण आदि.
पौधों में यह रोग उस की किसी भी अवस्था पर लग सकता है, पर एक साल पुराने पौधे पर रोग लगने की अधिक संभावना रहती है.
रोग के लक्षण सब से ऊपर की मुलायम पत्तियों पर दिखाई देते हैं. रोगी पत्तियां चितकबरी व आकार में छोटी हो जाती हैं.
पत्तियों की सतह खुरदरी होती है और इन पर गहरे हरे रंग के फफोले से बन जाते हैं. पर्णवृत छोटा हो जाता है और पेड़ के ऊपर की पत्तियां खड़ी होती हैं. पत्तियों का आकार अकसर प्रतान (टेनड्रिल) के अनुरूप हो जाता है.
पौधों में नई निकलने वाली पत्तियों पर पीला मोजेक और गहरे हरे रंग के क्षेत्र बनते हैं. ऐसी पत्तियां नीचे की तरफ ऐंठ जाती हैं और उन का आकार धागे के समान हो जाता है.
पर्णवृत व तनों पर गहरे रंग के धब्बे और लंबी धारियां दिखाई देती हैं. फलों पर गोल जलीय धब्बे बनते हैं. ये धब्बे फल पकने के समय भूरे रंग के हो जाते हैं.
इस रोग के कारण रोगी पौधों में लैटेक्स और शर्करा की मात्रा स्वस्थ पौधों की अपेक्षा काफी कम हो जाती है.
रोग के कारण
यह रोग एक विषाणु द्वारा होता है, जिसे पपीते का वलयचित्ती विषाणु कहते हैं. यह विषाणु पपीते के पौधों और अन्य पौधों पर उत्तरजीवी बना रहता है.
रोगी पौधों से स्वस्थ पौधों पर विषाणु का संचरण रोगवाहक कीटों द्वारा होता है, जिन में से ऐफिस गोसिपाई और माइजस पर्सिकी रोगवाहक का काम करती है. इस के अलावा रोग का फैलाव, अमरबेल व पक्षियों द्वारा होता है.
पर्ण कुंचन
पर्ण कुंचन (लीफ कर्ल) रोग के लक्षण केवल पत्तियों पर दिखाई पड़ते हैं. रोगी पत्तियां छोटी व झुर्रीदार हो जाती हैं.
पत्तियों का विकृत होना और इन की शिराओं का रंग पीला पड़ जाना रोग के सामान्य लक्षण हैं. रोगी पत्तियां नीचे की तरफ मुड़ जाती हैं और नतीजतन ये उलटे प्याले के अनुरूप दिखाई पड़ती हैं. यह पर्ण कुंचन रोग का विशेष लक्षण है. पत्तियां मोटी, भंगुर और ऊपरी सतह पर अतिवृद्धि के कारण खुरदरी हो जाती हैं. रोगी पौधों में फूल कम आते हैं. रोग की तीव्रता में पत्तियां गिर जाती हैं और पौधे की बढ़वार रुक जाती है.
रोग के कारण
यह रोग पपीता पर्ण कुंचन विषाणु के कारण होता है. पपीते के पेड़ स्वभावत: बहुवर्षी होते हैं, इसलिए इस रोग के विषाणु इन पर सरलतापूर्वक उत्तरजीवी बने रहते हैं.
बगीचों में इस रोग का फैलाव रोगवाहक सफेद मक्खी बेमिसिया टैबेकाई के द्वारा होता है. यह मक्खी रोगी पत्तियों से रस चुसते समय विषाणुओं को भी प्राप्त कर लेती है और स्वस्थ पत्तियों से रस चुसते समय उन में विषाणुओं को संचरित कर देती है.
मंद मोजेक
इस रोग का विशिष्ट लक्षण पत्तियों का हरित कर्बुरण है, जिस में पत्तियां विकृत वलय चित्ती रोग की भांति विकृत नहीं होती हैं. इस रोग के शेष लक्षण पपीते के वलय चित्ती रोग के लक्षण से काफी मिलतेजुलते हैं.
यह रोग पपीता मोजेक विषाणु द्वारा होता है. यह विषाणु रससंचरणशील है. यह विषाणु भी विकृति वलय चित्ती विषाणु की भांति ही पेड़ व दूसरे परपोषियों पर उत्तरजीवी बना रहता है. रोग का फैलाव रोगवाहक कीट माहू द्वारा होता है.
रोग प्रबंधन
विषाणुजनित रोगों की रोग प्रबंधन संबंधित समुचित जानकारी अभी तक नहीं हो पाई है, इसलिए निम्नलिखित उपायों को अपना कर रोग की तीव्रता को कम किया जा सकता है :
* बागों की सफाई रखनी चाहिए व रोगी पौधे के अवशेषों को इकट्ठा कर के नष्ट कर देना चाहिए.
* नए बाग लगाने के लिए स्वस्थ व रोगरहित पौधे को चुनना चाहिए.
* रोगग्रस्त पौधे किसी भी उपचार से स्वस्थ नहीं हो सकते हैं, इसलिए इन को उखाड़ कर जला देना चाहिए, वरना ये विषाणु का एक स्थायी स्रोत हमेशा ही बने रहते हैं और साथसाथ अन्य पौधों पर रोग का प्रसार भी होता रहता है.
* रोगवाहक कीटों की रोकथाम के लिए कीटनाशी दवा औक्सीमेथिल ओ. डिमेटान (मेटासिस्टौक्स) 0.2 फीसदी घोल 10-12 दिन के अंतर पर छिड़काव करना चाहिए.