अरहर हमारे देश की महत्त्वपूर्ण दलहनी फसल हैं. अरहर में 20-22 फीसदी तक प्रोटीन पाया जाता है. अरहर की खेती आर्द्र एवं शुष्क दोनों प्रकार के जलवायु क्षेत्रों में आसानी से की जा सकती है. उचित जल निकास वाली हलकी या भारी सभी प्रकार की भूमि अरहर की खेती के लिए उपयुक्त है.
15-20 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से बोना चाहिए. बीज को बोआई से पूर्व कार्बंडाजिम या थायरम 3 ग्राम दवा प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित कर के राइजोबियम कल्चर एवं पीएसबी कल्चर 5-10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए.
उर्वरक
सामान्यत: इस फसल के लिए 20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 50 किलोग्राम सल्फर एवं 20 किलोग्राम पोटाश बोआई के समय उपयोग करते हैं.
खरपतवार नियंत्रण
अरहर की फसल बोआई के पश्चात 2 महीने तक खरपतवाररहित होनी चाहिए. इस अवधि में खरपतवार को नियंत्रण करना आवश्यक है. फसल की 2 बार निराईगुड़ाई करनी चाहिए. रासायनिक खरपतवार प्रबंधन ऐलाक्लोर 1600-2000 मिलीलिटर/हेक्टेयर बोने के 0-3 दिन के अंदर ये संकरी एवं चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार को नियंत्रित करता है.
सिंचाई एवं जल निकास
अरहर खरीफ की फसल होने के कारण इस में सिंचाई की अतिरिक्त आवश्यकता नहीं होती है. परंतु देर से पकने वाली जातियों में फूल के समय पानी देना लाभप्रद रहता है.
खेत में जल निकास की समुचित व्यवस्था होना चाहिए. जल निकास के अभाव में पद गलन रोग से फसल को नुकसान होता है और उपज में भारी कमी आ जाती है.
कीट प्रबंधन
अरहर की फसल पर मुख्य रूप से चित्तीदार फलीभेदक कीट, अरहर की फल मक्खी. फसल की बोनी जून महीने में करने से फली भेदक कीटों के प्रकोप में कमी आती है.
गेंदा को ट्रैप फसल के रूप में बौर्डर पर उगाएं. इस से कीटों के प्रकोप में कमी आती है.
खेतों में चिडि़यों के बैठने के लिए ‘टी’ आकार की खूंटी 50 नग प्रति हेक्टेयर की दर से लगाएं.
प्रकाश प्रपंच फसल से 10-15 मीटर की दूरी पर लगाएं और शाम 6.30 बजे से रात 10.30 बजे तक जलाएं.
रासायनिक नियंत्रण
फूल आने की अवस्था पर निम्नलिखित कीटनाशकों का छिड़काव शाम के समय 15 दिन के अंतराल पर करें क्विनालफास 25 ईसी 1250 मिलीलिटर/हेक्टेयर.
रोग प्रबंधन
उठका (विल्ट)
फसल में फूल एवं फल लगने की अवस्था में रोग का प्रकोप सर्वाधिक होता है. रोगी पौधा एकाएक पीला पड़ कर सूखने लगता है. उपाय बचाव के आशा, राजीवलोचन निरोधक जातियों को लगाना चाहिए.
अरहर का बांझ रोग
यह रोग वायरस से होता है और इस रोग के कारण पौधा एवं पत्तियां छोटी रह जाती हैं. पौधा झाड़ीनुमा हो जाता है. पौधे पर फूल एवं फली नहीं आते या बहुत कम आते हैं.
उपज
प्रति हेक्टेयर 12-15 क्विंटल सामान्यत: उपज आ जाती है. अच्छी देखरेख करने पर 15-18 क्विंटल तक उपज प्राप्त हो जाती है.