यह एकलिंगी, कई साल चलने वाली झाड़ी है. इस का पौधा 2 मीटर तक ऊंचा और 30 से 40 सैंटीमीटर मोटी पत्तियों से घिरा हो सकता है.
इस का फूल वाला तना 8 से 10 फुट तक ऊंचा और 10 सैंटीमीटर तक मोटा हो सकता है. इस के हरेपीले फूल होते हैं. तने में मुख्यत: रेजिन गम होता है और इस की जड़ें भी मोटी और मांसल होती हैं. तने की तरह ही इस से रेजिन निकलती हैं. इस पौधे के सभी भागों से एक खास तीखी गंध आती है.
इसे मराठी और हिंदी में हींग, बंगाली में हिनू, कन्नड़ में इंगू, तेलुगु में इनगुआ और तमिल में पेरुणाकायम के नाम से जाना जाता है.
फेरुला की कई प्रजातियां मूलत: ईरान के मरुस्थल और अफगानिस्तान की पहाडि़यों में मिलती हैं और ऐसे ही मिलतेजुलते भारतीय इलाकों में भी इस की खेती की जाती है. फेरुला की अनेक जातियां पूर्वी मैडीटेरियन से मध्य एशिया तक मिलती हैं.
इस की प्रजातियों में फेरुला ऐसाफोईटिडा, फेरुला एलिएसिया, फेरुला फोईटिडा और फेरुला नारथेकस प्रमुख हैं, जो मध्य एशिया, ईरान से अफगानिस्तान तक मिलती हैं.
हींग फेरुला की कई जातियों के मूसला जड़ तंत्र या राईजोम से निकलने वाला सूखा लेटैक्स यानी ओलियोरेजिन गोंद है. नाम के मुताबिक, फेरुला ऐसाफोईटिडा की तीखी गंध होती है, लेकिन सब्जी में डालने पर सुगंध आती है.
एक प्रारूपी ऐसाफोईटिडा में 40 से 60 फीसदी रेजिन, 25 फीसदी अंदरूनी गोंद, 10 से 17 फीसदी वाष्पशील तेल और 1.5 से 10 फीसदी तक राख होती है. इस के रेजिन भाग में अनेक महत्त्वपूर्ण कैमिकल पाए जाते हैं.
झाड़दार पौधे की जड़ को सुखा कर थोड़ा ऊपर तने के पास से पौधा काट देते हैं. इस के लिए तने में जड़ के पास कट लगाते हैं. उस में से गाढ़ा रस निकलता है. इस निकलने वाले दूध जैसे इस द्रव को इकट्ठा करते हैं. उस हिस्से को बरतन से ढक देते हैं, ताकि धूलमिट्टी न लगे. यह तुरंत ही ठोस बन जाता है.
ताजा रेजिन सफेद होता है, जो पहले गुलाबी और आखिर में लाल भूरे रंग का हो जाता है. कुछ दिन बाद रस खुरच लेते हैं. इस तरह 3 महीने तक थोडे़थोड़े फासले से तना काटते रहते हैं और गोंद के रूप में रस उतारते रहते हैं.
आमतौर पर एक पौधे से 250 से 300 ग्राम हींग मिल जाती है. काबुली या खुरासानी हींग अच्छी मानी गई है. यह अफगानिस्तान से आती है. पंजाब और कश्मीर की देशी हींग बेहतर क्वालिटी की नहीं होती है.