सरसों व तोरिया भारत में खास तेल वाली फसलें हैं.  ये मूंगफली के बाद रकबे व पैदावार के हिसाब से दूसरे नंबर पर हैं. भारत में सरसों का कुल रकबा 2013-14 में 6.70 मिलियन हेक्टेयर था, जिस से करीब 7.96 मिलियन टन उत्पादन हुआ और इस की उत्पादकता 1188 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है.  सरसों के तेल का इस्तेमाल आमतौर पर खाने में किया जाता है और इस की खली दुधारू पशुओं को खिलाई जाती है.

तमाम इलाकों में सरसों का तेल, कड़वा तेल कहलाता है. पीला और झन्नाटेदार कड़वा तेल खाने का जायका ही बदल देता है. इस तेल का इस्तेमाल सब्जी बनाने में तो किया ही जाता है, मगर अचारों में भी इस की काफी ज्यादा खपत होती है. सरसों के तेल की जबरदस्त मांग की वजह से सरसों की खेती की अहमियत बहुत ज्यादा है. इस की खेती किसानों के लिए भरपूर कमाई का जरीया है.

उद्योगों में भी तेल के कच्चे माल से साबुन, ग्रीस आयल, वार्निश वगैरह बनाई जाती है. सरसों के दानों से तेल निकालने के बाद जो खली बचती है, वह जानवरों के लिए प्रोटीन (40-45 फीसदी) का सब से बड़ा साधन है. सरसों की पैदावार और बढ़ाई जा सकती है. कुछ खास इलाकों में सरसों की उपज कम रहने के कुछ खास कारण हैं, जैसे सरसों की फसल में अच्छी किस्मों की बोआई न करना, सरसों की फसल को खराब मिट्टी या हलके खेतों में उगाना, कम उर्वरकों के साथसाथ जहां सिंचाई के साधन नहीं हैं उस मिट्टी में सरसों की खेती को किया जाना. किसानों का खास रुझान केवल गेहूं, धान व नकदी फसलों तक ही है.

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