भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित करेले की ऐसी किस्म है जिस से 15 दिन पहले ही पैदावार मिलने लग जाती है और उत्पादन भी 20 से 30 फीसदी अधिक मिलता है. करेले की इस किस्म का नाम पूसा हाईब्रिड 4 है. इस किस्म में शुगर को काबू करने के गुण भी हैं.

आमतौर पर करेले की फसल में 55 से 60 दिनों में पैदावार मिलती है जबकि पूसा हाईब्रिड 4 से 45 दिनों में ही पैदावार मिलने लगती है. गहरे हरे रंग का यह करेला मध्यम लंबाई और मोटाई का है. इस की पैदावार 22 टन प्रति हेक्टेयर तक है. यह किस्म साल में 2 बार लगाई जा सकती है.

फरवरी माह के अंत और मार्च माह के शुरू में और अगस्त माह से सितंबर माह के दौरान इस किस्म को लगाया जा सकता है और लगभग 4 महीने तक इस में फल लगते हैं. यह ऐसी किस्म है जिस से जमीन और मचान दोनों तरह की खेती से भरपूर पैदावार मिलती है. वैसे तो करेले की कई किस्में चलन में हैं, कुछ किस्में इस प्रकार हैं:

उन्नतशील प्रजातियां

पूसा (2 मौसमी) : यह किस्म 2 मौसम (खरीफ व जायद) में बोई जाती है. फसल बोने के तकरीबन 55 दिन बाद करेला तुड़ाई लायक हो जाता है.

इस प्रजाति के करेले का साइज तकरीबन 15 सैंटीमीटर के आसपास होता है. इस किस्म से औसत उपज 100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर मिलती है.

पूसा विशेष : इस प्रजाति के करेले हरे, पतले, मध्यम आकार के होते हैं. यह 20 सैंटीमीटर लंबे होते हैं. औसतन एक करेले का वजन 115 ग्राम होता है. इस की उपज 115-130 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

अर्का हरित : इस प्रजाति के करेले चमकीले हरे, चिकने, ज्यादा गूदेदार और मोटे छिलके वाले होते हैं. फलों की पहली तुड़ाई बोआई के 65 दिन बाद की जा सकती है. ऐसे करेले में बीज कम और कड़वापन भी कम होता है. फल की लंबाई 15 सैंटीमीटर और वजन 90 ग्राम होता है. इस की उपज 130 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

वीके 1 (प्रिया) : इस के फल 40 सैंटीमीटर तक लंबे और मोटे छिलके वाले होते हैं. बोआई के 60 दिन बाद फल तुड़ाई लायक हो जाते हैं. करेले का औसत वजन 120 ग्राम होता है. इस की औसत उपज 140 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

पंत करेला 1 : इस के फलों की पहली तुड़ाई बोआई के 55 दिन बाद की जा सकती है. इस प्रजाति के करेले मोटे, 15 सैंटीमीटर लंबे, हरे और शुरू में पतले होते हैं. औसत पैदावार लगभग 150 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. यह प्रजाति पहाड़ों के लिए अच्छी मानी गई है.

काशी हरित : इस किस्म के करेले चमकीले हरे, चिकने, गूदेदार होते हैं. एक फल का वजन 80-100 ग्राम होता है. पहली तुड़ाई 50 दिन बाद कर सकते हैं.

पूसा औषधि : हलके हरे, परचम लंबाई वाले और औसत फल वजन 85 ग्राम है. फसल तैयार होने का समय लगभग 48-52 दिन हैं. यह अधिक उपज देने वाली प्रजाति है.

पूसा हाईब्रिड 1 : मध्यम लंबाई का फल, ज्यादा उपज, पहली तुड़ाई 55-60 दिनों में की जा सकती है. औसत उपज 200 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

पूसा हाईब्रिड 2 : फल गहरा हरा, मध्यम लंबाई का, फल का औसत वजन 85-90 ग्राम. पहली तुड़ाई 52 दिनों में और औसत उपज 180 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

कल्याणपुर बारहमासी :  यह किस्म चंद्रशेखर आजाद कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित की गई है.

हिसार सलैक्शन : यह किस्म पंजाब और हरियाणा में काफी पसंद की जाती है.

जमीन ऐसे करें तैयार

खेत की तैयारी के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें और बाद में 2-3  जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से करनी चाहिए. हर जुताई के बाद पाटा चला कर मिट्टी को भुरभुरी और खेत को समतल कर लेना चाहिए जिस से पानी खेत में समान रूप से फैल सके.

बीज की मात्रा और बोआई :

1 हेक्टेयर खेत की बोआई के लिए अच्छे फुटाव वाले बीज की 5 किलोग्राम मात्रा की जरूरत पड़ती है. एक जगह पर 2-3 बीज 3-4 सैंटीमीटर की गहराई पर बोने चाहिए. बोने से पहले खराब बीज निकाल दें.

बोआई का समय : इस की बोआई गरमी के मौसम के लिए (जायद) में 15 फरवरी से 15 मार्च तक और बरसात (खरीफ) के लिए 15 जून से 15 जुलाई तक करते हैं. पहाड़ी इलाकों में बोआई अप्रैल माह में की जाती है.

बोआई की दूरी : करेले की बोआई जहां तक हो सके, मेंडों पर करनी चाहिए. कतार से कतार की दूरी 1.5 से 2.5 मीटर और पौध से पौध की दूरी 45 से 60 सैंटीमीटर के बीच रखनी चाहिए.

खाद और उर्वरक : आमतौर पर 20-22 टन गोबर की सड़ी खाद या कंपोस्ट खाद को खेत तैयार करते समय मिट्टी में मिला देनी चाहिए. इस के बाद 1 हेक्टेयर खेत के लिए 50 किलोग्राम नाइट्रोजन, 50 किलोग्राम फास्फोरस और 50 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देनी चाहिए.

याद रखें कि नाइट्रोजन  की एकतिहाई मात्रा, फास्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा खेत की तैयारी के समय दें. बीज बोने के

30 दिन व 45 दिन बाद जड़ के पास नाइट्रोजन टौप ड्रैसिंग के रूप में देनी चाहिए.

सिंचाई : खरीफ मौसम में खेत की खास सिंचाई करने की जरूरत नहीं होती. बारिश न होने पर सिंचाई की जरूरत 10-15 दिन बाद होती है. ज्यादा बारिश के समय पानी के निकलने का सही बंदोबस्त होना चाहिए. गरमियों में अधिक तापमान होने के कारण जल्दीजल्दी सिंचाई की जरूरत होती है.

खरपतवार नियंत्रण : बारिश या गरमी के मौसम में सिंचाई के बाद खेत में काफी खरपतवार उग आते हैं उन्हें समयसमय पर खुरपी से निकाल देना चाहिए. करेले में पौधे की बढ़ोतरी और विकास के लिए 2-3 बार गुड़ाई कर मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए. समय पर निराईगुड़ाई करने से अच्छी पैदावार मिलती है.

मचान बनाना बेहतर तरीका

करेले की बेहतर पैदावार लेने के लिए मचान खेती अच्छा तरीका है. करेले की बेलों को लकड़ी का सहारा देने से या मचान पर

चढ़ा देने से फल जमीन के संपर्क से दूर रहते हैं. इस से फलों का साइज और क्वालिटी अच्छी रहती है और पैदावार भी बेहतर मिलती है. मचान पर फल लगने से सड़ते नहीं हैं. इस के लिए हरेक पौधे जब 30 सैंटीमीटर के हो जाएं तो नायलौन या जूट की रस्सी के सहारे मचान तक चढ़ाया जाता है.

इस के अलावा लोहे या लकड़ी के खंभे गाड़ कर उन के सिरे पर तार बांध कर भी मचान बनाया जाता है. खंभों के आपस की दूरी 2 से 3 मीटर रख सकते हैं. आमतौर पर मचान की ऊंचाई 4-5 फुट तक रखते हैं.

फलों की तुड़ाई : जब फलों का रंग गहरे हरे से हलका हरा होना शुरू हो जाए और फल अपना सही आकार ले ले तो फलों की तुड़ाई करने के लिए सही माना जा सकता है.

फलों की तुड़ाई एक तय समय के दौरान करनी चाहिए ताकि फल कड़े न हों वरना उन की बाजार में मांग कम हो जाती है.

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