हमारे देश में कीटों और रोगों के प्रकोप से हर साल 18-30 फीसदी फसल खराब हो जाती है, जिस से देश को हर साल तकरीबन 100,000 करोड़ रुपयों का नुकसान होता है. रोगों और नाशीकीटों से होने वाले नुकसान को रोकने के लिए हमें रासायनिक जीवनाशियों की जरूरत पड़ती है. इन रसायनों की खपत साल 1954 में 434 टन की तुलना में साल 1990 में 90,000 टन तक पहुंच गई थी, जो अब 55,000 टन के आसपास है.
इस में कोई संदेह नहीं है कि वर्तमान में हम इन रोगों और नाशीकीटों को रोकने में तो सक्षम रहे हैं, पर नाशीकीटों की रासायनिक जीवनाशियों के विरुद्ध प्रतिरोधक क्षमता, जो साल 1954 में 7 नाशीकीटों में विद्यमान थी, आज वह 504 से अधिक नाशीकीटों में पाई गई है.
इसी तरह फफूंद की भी कई ऐसी प्रजातियां हैं, जिन में रासायनिक फफूंदनाशियों के विरुद्ध प्रतिरोधक क्षमता पाई गई है. इसलिए पौधों में रोगों की रोकथाम के लिए वैकल्पिक तरीकों की आवश्यकता है, ताकि हम रासायनिक जीवनाशियों के उपयोग में कमी ला सकें.
भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद की साल 1996 में जारी रिपोर्ट के अनुसार, बाजार में 51 फीसदी विभिन्न कृषि खाद्य पदार्थों के नमूनों में विषैले जीवनाशियों के अवशेष पाए गए, जिन में से 20 फीसदी खाद्य पदार्थों में ये मात्रा इन जीवनाशियों की न्यूनतम सुरक्षित मात्रा से अधिक थी.
कृषि में रासायनिक जीवनाशियों के प्रयोग से कृषि उत्पाद में इन रसायनों के अवशेषों से इन का सेवन करने वाले लोगों की सेहत पर बुरा असर पड़ता है.
दुनियाभर में हर साल रासायनिक फफूंदनाशियों और कीटनाशियों की तीव्र विषाक्तता से अनजाने में तकरीबन 385 मिलियन किसान और अन्य लोग प्रभावित होते हैं, जिन में से तकरीबन 11,000 लोगों की मौत हो जाती है.
यदि हम कीटनाशकों की विषाक्तता की सीमा का और विश्लेषण करें, तो हम पाते हैं कि वैश्विक कृषि भूमि का 64 फीसदी भूभाग एक से अधिक प्रकार के कीटनाशी अणुओं द्वारा प्रदूषण के खतरे में है और 31 फीसदी उच्च जोखिम की श्रेणी में आता है.
भारत में साल 2008-18 के दौरान फलसब्जियों सहित 2.1 फीसदी खाद्य नमूनों में कीटनाशकों के अवशेष न्यूनतम स्तर से ऊपर पाए गए.
विश्व स्वास्थ्य संगठन और संयुक्त राष्ट्र संघ के पर्यावरण कार्यक्रम के आंकड़ों के अनुसार, कृषि में रासायनिक जीवनाशियों के जहर से विकासशील देशों में हर साल 30 लाख लोग प्रभावित होते हैं. वहीं भारत सरकार के कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार बाजार में उपलब्ध 18 फीसदी सब्जियों और 12 फीसदी फलों के नमूनों में रासायनिक जीवनाशियों के अवशेष पाए गए, जिन में प्रतिबंधित रसायन भी शामिल हैं.
कृषि उत्पाद में मौजूद इन हानिकारक रसायनों के सेवन से मनुष्य के शरीर में कई तरह के गंभीर रोग पनपते हैं, जिन में कैंसर, हृदय रोग, सिरदर्द, बांझपन और आंखों से जुड़े रोग शामिल हैं.
कृषि में प्रयोग होने वाली भूमि एक सजीव माध्यम है, जिस में फसलों के उपयोगी कई तरह के जीवाणु होते हैं, जो फसलों की बढ़ोतरी में बहुमूल्य योगदान करते हैं.
इन रासायनिक जीवनाशियों की फसलों में रोगों और नाशीकीटों के प्रबंधन में दीर्घकालीन उपयोगिता पर भी एक प्रश्न चिह्न है, क्योंकि रासायनिक जीवनाशियों का एक और बुरा असर हमारे पर्यावरण और भूमंडल पर मौजूद दूसरे जीवजंतुओं पर भी पड़ रहा है, जिन का जीवनचक्र भी इन रसायनों से प्रभावित हो रहा है. लिहाजा, इन रासायनिक जीवनाशियों से जलवायु परिवर्तन का खतरा भी बढ़ा है. ऐसे में हमें स्थानीय जैविक संसाधनों पर आधारित जैविक जीवनाशी विकसित करने की जरूरत है, जो पर्यावरण के अनुकूल हो और हमें दीर्घकालीन रोग प्रबंधन भी दे.
हमारा देश ऐसे वानस्पतिक और दूसरे जैविक संसाधनों से संपन्न है, जिन के उपयोग से हम जैविक जीवनाशी तैयार कर सकते हैं. हमारे देश में 2 करोड़ के आसपास नीम के पेड़ हैं, जिन से 30 लाख टन बीज का उत्पादन होता है, जिस से 7 लाख टन तेल और 20 लाख टन से अधिक खली निकलने की क्षमता है.
इस नीम के तेल और खली का उपयोग हम फसलों में रोग प्रबंधन के लिए कर सकते हैं. हमारे देश में रासायनिक जीवनाशियों की हर साल खपत 55,000 टन के आसपास है और अकेले नीम के पेड़ में ही ऐसी क्षमता है, जिस से सभी फसलों में हम सफलतापूर्वक रोग और नाशीकीट प्रबंधन कर सकते हैं.
शोधकर्ताओं के आंकड़े दर्शाते हैं कि हम नीम द्वारा तैयार जीवनाशी से फसलों के 200 से अधिक नाशीकीटों और 50 से अधिक रोगों की रोकथाम कर सकते हैं.
नीम के अलावा भी 200 से अधिक ऐसे स्थानीय पौधे हैं, जिन का उपयोग हम रोगों और नाशीकीटों के प्रबंधन में कर सकते हैं. इस के अलावा हम पौधों से प्राप्त जैविक जीवनाशियों के साथ गोमूत्र का भी प्रयोग कर सकते हैं.
प्राचीनकाल से पौध संरक्षण के लिए पौधों का उपयोग किया जा रहा है, जिस का वर्णन अथर्ववेद और ऋग्वेद में किया गया है. पौधों का चयन उन के जीवनाशी गुणों के आधार पर किया जाता है. पौधों के विभिन्न भागों से बने पदार्थ जैसे बीज और उस से निकलने वाला तेल, छाल या पत्तों का पाउडर, खली, गोंद और लेटेक्स इत्यादि का प्रयोग पौधों की विभिन्न बीमारियों को नियंत्रित करने के लिए किया जा रहा है. यह पदार्थ ठंडे पानी, गरम पानी अथवा दूसरे रासायनिक घोलों में बनाए जाते हैं. पौधों और उन से बने पदार्थ बीमारी पैदा करने वाले रोगाणुओं की रोकथाम कई प्रकार से जैसे पौधों की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ा कर, रोगों के जीवाणुओं की पैदावार को रोक कर, जीवाणु विरोधी रसायन उत्पन्न कर के, जीवाणुओं में विकृति कर के या उन की भौतिक क्रियाओं को रोक कर इत्यादि करते हैं.
रोगकारक फफूंद और जीवाणुओं के विरुद्ध जीवनाशी क्षमता वाले कुछ प्रमुख पौधों में नीम (अजादीरेक्टा इंडिका), दरेक (मीलिया अजादीरैक), कड़व्या (रोयलिया एलेगंस), लहसुन (एलियम स्टाइवम), फूलबूटी (लेनटाना केमेरा), तुलसी (ओसिमम सेंकटम), अलो बारबाडैनसिस, बौगेनविलीया ग्लाबरा, यूकेलिप्टस ग्लोबूल्स, मैंथा लौंगीफोलिया, ओसिमम सैंकटम, रोयालिया ऐलिगैन्स, क्रिपटोलैप्सिस बुचानानी, मैंथा पिपरीटा, थूजा चाईनैनसिज, आर्टिका डाईवोसिया, विटैक्स निगुंडों, पोगौसटिमोन बैंघालैन्सिस, आर्टेमिसीया रौक्सबरघियाना, मीलिया अजादीरैक, धतूरा स्ट्रेमोनियम, लाउसिनिया इनरमिस, गैंदा (टेजेटस इरेक्टा), यूकेलिप्टस ग्लोब्स, विंसा रोसिए, निरियम ओडोरम इत्यादि मुख्य रूप से पौधों के रोगकारकों और नाशीकीटों के विरुद्ध प्रयोग किए जाते हैं. इन पौधों में नीम और दरेक के बीजों के साथ पत्तों का भी प्रयोग किया जाता है, जबकि अन्य पौधों के पत्तों का उपयोग किया जाता है.
हमारे देश में नीम के 2 करोड़ के लगभग पौधे हैं, जिन में से 4 लाख, 14 हजार टन के लगभग बीज निकलने की क्षमता है. इस बीज से 85,000 टन के लगभग तेल और 3 लाख, 30 हजार टन के लगभग खली निकल सकती है.
अगर हम चाहें तो देश में फसलों की रोगों और नाशीकीटों से सुरक्षा अकेले नीम से भी कर सकते हैं. भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग की कुछ महत्त्वपूर्ण अनुसंधान परियोजनाओं में डा. यशवंत सिंह परमार औद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय, नौणी, सोलन के पादप रोग विज्ञान विभाग में पौधों की कुछ प्रजातियों और गाय के मूत्र से तैयार रासायनिक जीवनाशियों के ऐसे विकल्प बनाए गए हैं, जो फलों और सब्जियों के कई महत्वपूर्ण रोगों के विरुद्ध प्रभावी पाए गए हैं.
स्ट्राबेरी दुनियाभर में रासायनिक कीटनाशियों के छिड़काव से होने वाला सब से अधिक प्रदूषित फल है. ऐसा इस फल की बाहरी संरचना के कारण है, क्योंकि इस पौधे में फल बनने के बाद किए जाने वाले छिड़काव फल अपने अंदर सोख लेता है, जिस से उस में जीवनाशी रसायनों के अवशेष रह जाते हैं. इसी तरह टमाटर, सेब, शिमला मिर्च और गोभीवर्गीय फसलों में भी रोगों और नाशीकीटों का अधिक संक्रमण होने के कारण किसान इन फसलों में 5 से 12 तक विभिन्न फफूंदनाशियों और कीटनाशियों के छिड़काव करते हैं.
पौधों के रोगों के विरुद्ध मारक क्षमता रखने वाले पौध के मिश्रण से हम रासायनिक फफूंदनाशियों के प्रभावशाली विकल्प बना सकते हैं. रोगों के विरुद्ध मारक क्षमता रखने वाले ऐसे पौधों का विवरण दिया गया है, जिन में से अधिकतर हमारे देश के अलगअलग भागों में आसानी से हमारे खेतों के आसपास या फिर नजदीक के जगलों में पाए जाते हैं. इन पौधों से छिड़काव का घोल तैयार करने का भी बहुत आसान तरीका है. इन पौधों में से हमारे पास जितने भी प्रकार के पौधे हैं और उन के बीज व पत्तों की जितनी भी मात्रा मौजूद है लें और फिर बीजों को अच्छी तरह पीस लें और पत्तों और कोमल टहनियों को घास काटने वाली मशीन से छोटेछोटे टुकड़ों में काट लें. उस के बाद एक 200 लिटर प्लास्टिक के ड्रम में 100 लिटर गोमूत्र या फिर पानी लें और फिर उस में विभिन पौधों से इकट्ठा किए गए 50 किलोग्राम के लगभग पिसे हुए बीज और पत्तों को मिक्स कर दें.
इस मिश्रण को इसी तरह से एक महीने तक रहने दें, जिस से बीज और पत्ते पानी में अच्छी तरह से गल जाएं. फिर इस मिश्रण को अच्छी तरह घोल लें, ताकि बीजों और पत्तों से उन के तत्व और रस अच्छी तरह से बाहर निकल जाएं. फिर इस घोल को मलमल के कपड़े से छान लें, ताकि स्प्रे करते समय आसानी हो. पिसे हुए बीजों और पत्तों के मिश्रण को हम ग्राइंडर में पीस कर पानी में मिला सकते हैं, जिस से यह घोल तुरंत तैयार हो जाएगा. इस तरह से बनाए गए इस घोल की सघनता 50 फीसदी होगी.
विभिन्न फसलों में छिड़काव करने के लिए हमें 10 फीसदी सघनता वाले घोल का प्रयोग करना होगा. वानस्पतिक जीवनाशियों का प्रयोग हम विभिन्न फसलों में पौधों के ऊपरी किसी भी भाग में होने वाले रोगों के लिए छिड़काव कर सकते हैं.
दुनियाभर में शोधकर्ताओं ने वानस्पतिक जीवनाशियों की उपयोगिता कई फसलों के महत्वपूर्ण रोगों के विरुद्ध दर्शाई हैं. पौधों से बने रोगाणुओं के विरुद्ध इन जीवनाशियों के प्रयोग में कुछ सावधानी बरतनी चाहिए. इन जीवनाशियों का प्रयोग रोगों के शुरू के लक्षण दिखाई देने के तुरंत बाद शुरू कर दें. रोगों के लिए अनुकूल मौसम होने के समय छिड़काव एक सप्ताह के अंतराल पर करते रहें, अन्यथा छिड़काव 10 से 12 दिनों के अंतराल पर करें.
रासायनिक कीटनाशियों की तरह इन जीवनाशियों के छिड़काव के बाद फसल तोड़ने के लिए अधिक इंतजार करने की जरूरत नहीं है. वानस्पतिक जीवनाशियों का उपयोग हम जैविक खेती के लिए भी कर सकते हैं.
इस तरह हम इन जीवनाशियों के उपयोग से जहां लाभकारी सूक्ष्म जीवाणुओं और कीटों की हिफाजत करेंगे, उस के साथ हम अपने पर्यावरण की भी रक्षा करेंगे और इस तरह इस पृथ्वी पर विद्यमान दूसरे जीवों के लिए भी एक अच्छा वातावरण बनाएंगे.