गाजर घास की 20 प्रजातियां पूरे विश्व में पाई जाती हैं. गाजर घास की उत्पत्ति का स्थान दक्षिणमध्य अमेरिका है. अमेरिका, मैक्सिको, वेस्टइंडीज, चीन, नेपाल, वियतनाम और आस्ट्रेलिया के विभिन्न भागों में फैला यह खरपतवार भारत में अमेरिका या कनाडा से आयात किए गए गेहूं के साथ आया.
हमारे देश में साल 1951 में सब से पहले पूना में नजर आने के बाद यह विदेशी खरपतवार तकरीबन 35 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में फैल चुका है.
गाजर घास को देश के विभिन्न भागों में अलगअलग नामों जैसे कांग्रेस घास, सफेद टोपी, चटक चांदनी व गंधी बूटी वगैरह नामों से जाना जाता है. कांग्रेस घास इस का सब से ज्यादा इस्तेमाल किया जाने वाला नाम है.
वैसे तो गाजर घास पानी मिलने पर सालभर पनपती है, पर बारिश के मौसम में ज्यादा अंकुरण होने पर यह खतरनाक खरपतवार का रूप ले लेती है. गाजर घास का पौधा 3-4 महीने में अपना जीवनचक्र पूरा कर लेता है यानी 1 साल में इस की 3-4 पीढि़यां पूरी हो जाती हैं.
तकरीबन डेढ़ मीटर लंबी गाजर घास के पौधे का तना काफी रोएंदार और शाखाओं वाला होता है. इस की पत्तियां असामान्य रूप से गाजर की पत्तियों की तरह होती हैं. इस के फूलों का रंग सफेद होता है. हर पौधा 1,000 से 50,000 बेहद छोटे बीज पैदा करता है, जो जमीन पर गिरने के बाद नमी पा कर अंकुरित हो जाते हैं.
गाजर घास के पौधे हर प्रकार के वातावरण में तेजी से बढ़ते हैं. ये ज्यादा अम्लीयता व क्षारीयता वाली जमीन में भी उग सकते हैं. इस के बीज अपनी 2 स्पंजी गद्दियों की मदद से हवा व पानी के जरीए एक स्थान से दूसरे स्थान तक आसानी से पहुंच जाते हैं.
गाजर घास के नुकसान
* गाजर घास से इनसानों को एग्जिमा, एलर्जी, बुखार व दमा जैसी बीमारियां हो जाती हैं. इस का 1 पराग कण भी इनसान को बीमार करने के लिए काफी है. इस के पराग कण सांस नली में घुस कर दमा व एलर्जी पैदा करते हैं. इस के ज्यादा असर से इनसानों की मौत तक हो जाती है.
* गाजर घास की वजह से खाद्यान्नों की फसलों की पैदावार में 40 फीसदी तक की कमी आंकी गई है. इस से फसलों की उत्पादकता घट जाती है.
* इस पौधे से एलीलो रसायन जैसे पार्थेनिन, काउमेरिक एसिड, कैफिक एसिड वगैरह निकलते हैं, जो अपने आसपास किसी अन्य पौधे को उगने नहीं देते हैं. इस से फसलों के अंकुरण और बढ़वार पर बुरा असर पड़ता है.
* गाजर घास के वन क्षेत्रों में तेजी से फैलने के कारण कई खास वनस्पतियां और जड़ीबूटियां खत्म होती जा रही हैं.
* दलहनी फसलों में यह खरपतवार जड़ ग्रंथियों के विकास को प्रभावित करता है और नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाले जीवाणुओं की क्रियाशीलता को कम कर देता है.
* इस के परागकण बैगन, मिर्च व टमाटर वगैरह सब्जियों के पौधों पर जमा हो कर उन के परागण, अंकुरण व फल विन्यास को प्रभावित करते हैं और पत्तियों में क्लोरोफिल की कमी व पुष्प शीर्षों में असामान्यता पैदा कर देते हैं.
* पशुओं के चारे में इस खरपतवार के मिल जाने से दुधारू पशुओं के दूध में कड़वाहट आने लगती है. ज्यादा मात्रा में इसे चर लेने से पशुओं की मौत भी हो सकती है.
यों करें रोकथाम
* बारिश के मौसम में गाजर घास को फूल आने से पहले जड़ से उखाड़ कर कंपोस्ट व वर्मी कंपोस्ट बनाना चाहिए.
* घर के आसपास गेंदे के पौधे लगा कर गाजर घास के फैलाव को रोका जा सकता है.
* गाजर घास की रासायनिक विधि द्वारा रोकथाम करने के लिए खरपतवार वैज्ञानिक की सलाह लेनी चाहिए.
* नमक के 20 फीसदी घोल से गाजर घास की रोकथाम की जा सकती है, पर यह विधि छोटे क्षेत्र के लिए ही ठीक है.
सामुदायिक कोशिशें
* जमीन को गाजर घास से बचाने के लिए सामुदायिक कोशिशें बहुत जरूरी हैं. गांवों, शहरी कालोनियों, स्कूलों, महाविद्यालयों में रहने या पढ़ने वाले लोगों को चाहिए कि वे अपने आसपास की जमीन को गाजर घास से मुक्त रखें. इसी तरह की कोशिशों से पंजाब राज्य के लुधियाना जिले का मनसूरा गांव पहला गाजर घास मुक्त क्षेत्र बन गया है.
* जगहजगह जा कर लोगों को गाजर घास के नुकसानों व रोकथाम के बारे में जानकारी दे कर उन्हें जागरूक करना चाहिए.
* हर साल अगस्तसितंबर माह में गाजर घास जागरूकता सप्ताह मनाया जाता है, क्योंकि अक्तूबरनवंबर में गाजर घास बहुत ज्यादा होती है.
गाजर घास के इस्तेमाल
* गाजर घास का इस्तेमाल तमाम किस्म के कीटनाशक, जीवाणुनाशक और खरपतवारनाशक बनाने में किया जा सकता है.
* इस की लुगदी से कई तरह के कागज तैयार किए जा सकते हैं.
* बायोगैस उत्पादन में भी इसे गोबर के साथ मिलाया जा सकता है.