राजस्थान भारत का सब से बड़ा राज्य है और पिछड़े हुए राज्यों की कैटीगरी में आता है. यह राज्य भारत की उत्तरीपश्चिमी सीमा पर बसा है. यहां की पारिस्थितिकी और वातावरणीय हालात बहुत ही प्रतिकूल हैं और यहां पर कम और अनियमित बारिश, ज्यादा तापमान, चलायमान रेतीले टीबे, धूल भरी आंधियां वगैरह जैसे हालात आमतौर पर बने रहते हैं. यहां के ज्यादातर लोग खेती पर निर्भर रहते हैं और परंपरागत फसलों जैसे बाजरा, तिल वगैरह की खेती करते हैं.

ज्यादा गंभीर हालत और बारिश की अनियमितता के चलते इस इलाके के किसान हमेशा आशंकित और डरेसहमे रहते हैं. यहां अकाल जैसी आपदा का अंदेशा बना रहता है. कुछ गैरपरंपरागत फसलों जैसे सोनामुखी, जोजोबा, तुंबा वगैरह की खेती द्वारा इस इलाके के किसान न केवल बारिश की अनियमितता से होने वाले नुकसान से बच सकते हैं, वरना उन्हें इस से एक अच्छी आमदनी भी मिल सकती है. इन सभी के अलावा इन गैरपरंपरागत फसलों की खेती से परती जमीन में हरियाली भी लाई जा सकती है.

जोजोबा

JoJoba

 

जोजोबा या होहोबा के नाम से पुकारे जाने वाली इस मध्यम आकार की और सदा हरी रहने वाली  झाड़ी का वानस्पतिक नाम साइमोन्डीया चाइनेनसिस है और यह साइमोनडिएसी कुल का सदस्य है. यह द्विलिंगी प्रकृति की  झाड़ी मरू इलाके के विकटतम हालात में भी अच्छी तरह पनप सकती है. इस के नर व मादा पौधे में भेद महज पुष्पन के दौरान ही किया जा सकता है.

यह पादप मुख्य रूप से मैक्सिको व कैलिफोर्निया के सोनारन रेगिस्तान भूभाग का है और शुष्क अनुसंधान संस्थान, काजरी द्वारा भारत में लाया गया है. जोजोबा मुख्य रूप से इस के वसीय तेल के व्यापारिक महत्त्व के चलते उगाया जाता है.

खेती : इसे सब से पहले साल 1965 में सैंट्रल एरिड जोन रिसर्च इंस्टीट्यूट, काजरी द्वारा इजरायल से ला कर उगाया गया था. इस के पौधे रोपने के लिए बीजों का उपयोग किया जाता है.

बीजों को पौली बैग में लगा कर उगाया जाता है, परंतु कभीकभी सीधे ही रोपनी यानी नर्सरी में बीजारोपण भी किया जाता है. प्रयोगों द्वारा सीधे बीज रोपण से बहुत ही कम अंकुरण होने की पुष्टि के बाद इस की खेती के लिए पौली बैग में ही बीज रोपण किया जाता है.

बीजारोपण के लिए बीजों को ताजा पानी में 24 घंटे तक डुबो कर रखा जाता है और उस के बाद क्ले, मिट्टी व फार्मयार्ड मैन्योर यानी एफवाईएम के 1:1:1 के अनुपात के मिश्रण से भरी पौली बैग में बीजारोपण कर दिया जाता है.

बीजारोपण आमतौर पर अक्तूबर माह में किया जाता है और शुरू में दिन में 2 बार हलकी सिंचाई भी की जाती है. रोपणी में पौधे 8-9 माह में तैयार हो जाते हैं.

इस तरह रोपणी में तैयार पौधों को मानसून के दौरान 45×45×45 आकार के गड्ढों में 5 किलोग्राम फार्मयार्ड मैन्योर व कुछ कीटनाशी डाल कर रोप दिया जाता है. बडे़ पैमाने पर इस की खेती के लिए 4×3 का फासला रखा जाता है.

इस की खेती में नर व मादा पौधों का अनुपात 1:4 रखने के लिए ज्यादा पौधों नर या मादा को हटा लेते हैं.

शुरुआत में खरपतवारों को उखाड़ कर या नष्ट कर के इस की बढ़वार दर को बढ़ाया जा सकता है. जोजोबा में फल उत्पादन अप्रैलमई माह में शुरू हो जाता है. शुरूशुरू में फलोत्पादन बहुत कम होता है, पर यह धीरेधीरे बढ़ता जाता है और 10वें साल में औसत प्रति पौधे से 1 किलोग्राम बीजोत्पादन फलों से हासिल किया जा सकता है.

उपयोग : जोजोबा का मुख्य उपयोगी पदार्थ इस से मिलने वाला तेल है, जिस का इस्तेमाल कौस्मैटिक उद्योग के अलावा फार्मास्यूटिकल, स्नेहतक तेल व खाने वाले तेल के रूप में किया जाता है.

इस के अलावा विद्युत रोधी, आग प्रतिरोधी पदार्थ के साथ ही ट्रांसफार्मर में तेल के रूप में इस्तेमाल होता है. इस के तेल का उच्च क्विथनांक और गलनांक होता है और इस का श्रेय बिंदु भी 315 डिगरी सैंटीग्रेड है.

सोनामुखी

Sonamukhi

इस पौधे का वानस्पतिक नाम कैसिया अंगुस्टीफोलिया है. इसे अरब के फिजिशियनों द्वारा भारत में प्रवर्तित किया गया और इस के बाद इसे भारतीय, ब्रिटिश व दुनिया के दूसरे फार्मोकोपियास में शामिल किया गया.

यह हर तरह की जमीन में उग सकता है. इस में सेनोसाइड ए और बी ग्लाइकोसाइड नामक कैमिकल पदार्थ पाए जाते हैं. यह एक छोटी बहुवार्षिक शाकीय पादप है, जिसे पूरी फसल या मिश्रित फसल के रूप में परंपरागत फसलों के साथ उगाया जाता है.

खेती : इसे आमतौर पर बीजों द्वारा उगाया जाता है. बीजों की बोआई ड्रिलिंग द्वारा छिड़काव विधि से की जाती है, पर 30 डिगरी सैंटीग्रेड की दूरी पर बोआई करना सही रहता है. बारिश पर आधारित खेती की परिस्थितियों में आमतौर पर 27 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर और सिंचित इलाके में 15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर मुफीद रहते हैं.

बीजों की बोआई से पहले बीजों की सतह को अच्छी तरह रगड़ लेना चाहिए. बीजों को बोने के बाद अंकुरित बीजों में एक से दो बार निराईगुड़ाई करनी चाहिए. पुष्प वृंत की मोटाई, पौधे के निचले हिस्से की मोटाई के बराबर होने पर उसे काट लेते हैं. इस से पौधे में ज्यादा शाखाएं निकलती हैं और बढ़वार की दर भी बढ़ जाती है.

खेती में हलकी सिंचाई करना जरूरी है. ज्यादा बारिश भी नुकसानदायक होती है. सोनामुखी फसल की 2 माह बाद कटाई की जा सकती है, पर पत्तियों की कटाई 3 माह बाद करना उपयुक्त रहता है.

सोनामुखी की पत्तियां व्यापारिक महत्त्व की होती हैं और उन्हें उचित तरीके से सुखाना व भंडारित करना चाहिए. सोनामुखी की पत्तियां और फलियों की जैविक क्षमता 5 सालों तक बरकरार रखी जा सकती है.

भारत में पैदा होने वाला सोनामुखी विदेशों में भेजा जाता है. सोनामुखी की फसल 2-3 साल तक खेत में खड़ी रह सकती है. इस की जडें़ बहुत गहरी जाती हैं और पादप तेज गरमी में भी खड़ा रह सकता है.

लैग्युमिनस कुल का पादप होने के चलते यह नाइट्रोजन स्थिरीकरण में मददगार होता है और इस का स्वाद बहुत कड़वा होने के चलते इसे जानवर भी नहीं खाते हैं. सोनामुखी की फसल से 1-1.4 टन पत्तियां व 1.5 क्विंटल फली प्रति हेक्टेयर हासिल हो सकती है. सोनामुखी की खेती के लिए फरवरी से मार्च माह व जुलाई से अक्तूबर माह तक का समय यानी साल में 2 बार सही रहता है.

तुंबा

इसे वैज्ञानिक भाषा में सिटुलस कोलोसिंथिस कहते हैं. यह एक रेंगने वाला शाकीय पादप है, जो कुकुरबिटेसी कुल का सदस्य है. यह मूलत: अफ्रीका प्रायद्वीप का पादप है और तकरीबन पूरे भारत में पाया जाता है. यह मतीरे कुल का एक अहम सदस्य है और मरु इलाके के विकट हालात में भी अच्छी बढ़वार करने के अलावा माली रूप से भी उपयोगी है. इसी वजह से इसे मरु इलाके के रेगिस्तानी भूभाग के लिए उपयुक्त माना गया है.

तुंबा का पौधा बहुत तेजी से बढ़ता है और इस में 30 दिनों में ही पुष्पन शुरू हो जाता है और बोआई के 60 दिन बाद फलों का उत्पादन भी शुरू हो जाता है.

यह पौधा मिट्टी को बांधे रखने व रेतीले टीबों के स्थिरीकरण में मददगार है. इस के फलों में एक उपयोगी पदार्थ ग्लूकोसाइड कोलोसिंथिस होता है, जबकि बीजों में 20 फीसदी तेल व 11 फीसदी प्रोटीन होता है.

खेती : इस की बडे़ पैमाने पर खेती के लिए बीजों को 5 फीसदी सोडियम क्लोराइड घोल में डुबो देते हैं और उस में से कुछ देर बाद ऊपर तैरने वाले बीजों को जमा कर के गड्ढों में 20 सैंटीमीटर गहराई पर डाल कर 30-35 तापमान में बोआई करते हैं. 10-12 दिन बाद ही बीजों में अंकुरण शुरू हो जाता है.

बीजों की बोआई के लिए मानसून का समय उपयुक्त रहता है और देरी से बीजों की बोआई अगस्त माह के मध्य तक भी की जा सकती है. बीजों की बोआई ड्रिलिंग द्वारा खांचों में बोआई विधि से की जा सकती है या 120×120 सैंटीमीटर के गहरे गड्ढों में भी की जा सकती है. गड्ढों में बोआई के पहले 2 टन फार्मयार्ड मैन्योर और 5 किलोग्राम कीटनाशक प्रति हेक्टेयर मिट्टी में मिलाना फायदेमंद रहता है.

खेती के लिए 2 बार खरपतवार उन्मूलन 20 दिन व 45 दिन बाद करना अच्छा रहता है. इस पर किसी खास कीट या रोग का हमला नहीं होता है, लेकिन कायिक अवस्था में पत्तियों पर कीटों का हमला देखा गया है और इसे कार्बारिल 0.2 फीसदी स्प्रे द्वारा काबू कर सकते हैं.

इस  के हरे फलों को जानवरों को खिलाया जाता है, जबकि पूरी तरह से पके हुए विकसित पीले फूलों को इकट्ठा कर के सुखाया जाता है और इन के बीज निकाले जाते हैं. अनुकूल हालात में 120 से 150 क्विंटल फल प्रति हेक्टेयर हासिल किए जा सकते हैं.

उपयोग : इस के फलों का औषधीय महत्त्व है. हमारे देशी चिकित्सा शास्त्र में इसे औषधि के रूप में काफी इस्तेमाल किया जाता है.

आमतौर पर इसे जुलाव के रूप में इस्तेमाल में लिया जाता है. इस के बीजों में 20 फीसदी प्रोटीन पाया जाता है. इस के तेल का उपयोग साबुन उद्योग के अलावा मोमबत्ती बनाने वगैरह में होता है.

राजस्थान में यह साबुन उद्योग के लिए कच्चे माल के रूप में इस्तेमाल होता है. इस के बीजों को साधारण नमक के साथ मिला कर रखने से इस का खारापन खत्म किया जा सकता है. सूखे बीज बाजरे के साथ मिश्रित कर पीसे जाते हैं और इस तरह का बना आटा गरीबों द्वारा अकाल में खाया जाता है.

इस तरह से इन गैरपरंपरागत नकदी फसलों की खेती कर के कम बारिश में भी उत्पाद हासिल किए जा सकते हैं. इन की खेती द्वारा इलाके में हरियाली के साथसाथ माली उन्नति भी हासिल की जा सकती है.

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