घास प्रजाति का गड़हनी साग (Garhani Saag) गरीब आदिवासियों की थाली में सब से स्वादिष्ठ सागभाजी है. वे इसे बाजार से नहीं, बल्कि मुफ्त में नदीनालों के किनारों से लाते हैं और सागभाजी बना कर चावल या रोटी के साथ मजे से खाते हैं.

यह उन का सब से प्रिय सागभाजी है. अब तो इस सागभाजी को आदिवासियों की देखादेखी और भी लोग खाने लगे हैं.

घास पतवार के रूप में गड़हनी साग झारखंड के पूर्वी और पश्चिमी सिंहभूमि के नमी वाले स्थानों पर पाया जाता है. यह साग खेतों में नहीं उपजाया जाता, बल्कि यह अन्य सब्जीभाजी लगे खेतों में अपनेआप उग आता है. इस की पैदावार के स्थान उथली नदी, नालों के किनारे, सब्जीभाजी लगे खेत, कुएं व तालाब के किनारे वगैरह हैं. यह साग मुख्य रूप से पानी वाले स्थानों पर होता है.

गड़हनी साग के डंठल में दाएंबाएं चारों तरफ से पत्तियां निकली होती हैं. इस में फूल नहीं होता. इस की लंबाई 7 से 8 इंच के करीब होती है. इस का डंठल बाल पेन के रीफिल से थोड़ा ही मोटा होता है और पत्तियां 1 इंच से बड़ी नहीं होतीं. डंठल हलके हरे रंग का होता है, जबकि इस की पत्तियां गहरे हरे रंग की होती हैं. इस की जड़ मिट्टी और पानी दोनों में होती है, लेकिन पानी इस के लिए जरूरी है. इस की जड़ मिट्टी के बगैर भी बढ़ती है, लेकिन पानी के बिना यह तुरंत मुरझा जाता है.

आम शहरी लोग गड़हनी साग से अनजान होने के कारण अपने खानपान में इसे शामिल नहीं करते, इसलिए यह बाजारों में नहीं बिकता है. सच तो यह है कि इस के बारे में आदिवासियों के अलावा कोई जानता ही नहीं है.

यह साग खाने में काफी स्वादिष्ठ होता है. जैसे चौलाई का साग बनाया जाता है, उसी तरह से इसे भी बनाया जाता है. पहले इसे नाखूनों से तोड़ा जाता है, फिर धो कर काट लिया जाता है. काटने के बाद सरसों का तेल कड़ाही में गरम कर के मेथी की छौंक लगाई जाती है, फिर गड़हनी साग को कड़ाही में डाल कर फ्राई किया जाता है. फ्राई करते समय यह साग पानी छोड़ता है, जिसे कड़ाही में ही सुखा दिया जाता है. पकने के बाद इसे कड़ाही से निकाल कर एक कटोरे में ले कर इस में थोड़ा कच्चा तेल, नमक और कटी हरी मिर्च मिलाते हैं.

इस प्रकार यह खाने के लिए तैयार हो जाता है. इस का स्वाद चने के साग जैसा ही लगता है, लेकिन थोड़ा अलग सा लगता है. इसे भात यानी चावल के साथ सान कर खाया जा सकता है. कुछ लोग इसे दालभात के साथ भी खाते हैं. रोटी के साथ खाने में यह और भी स्वादिष्ठ लगता है.

गड़हनी साग सेहत के लिहाज से भी काफी लाभदायक होता है. इसे खाने से आंखों की रोशनी बरकरार रहती है, खून का संचार सही रहता है, पेट ठंडा रहता है, कब्ज नहीं होता, सिर के बाल नहीं झड़ते हैं और न ही जल्दी सफेद होते हैं. यह सच है कि इसे खाने वाले आदिवासी लोगों की आंखों पर चश्मा नहीं चढ़ता और न ही वे गंजे होते हैं.

ठंड के मौसम में नमी ज्यादा रहने के कारण गड़हनी साग जगहजगह उग आता है. वैसे तो यह गरमी के मौसम में भी होता है, लेकिन कम होता है. चौलाई व सरसों जैसे मशहूर सागों की तरह इस में भी ठंड के मौसम में पानी की मात्रा ज्यादा होती है, जबकि गरमी के दिनों में इस में पानी की मात्रा कम हो जाती है. आदिवासी लोग इसे जाड़े के दिनों में ज्यादा खाना पसंद करते हैं, क्योंकि इस मौसम में इस का स्वाद बढ़ जाता है.

ऐसा भी नहीं है कि इसे केवल आदिवासी ही खाते हैं. यह साग इसे जानने वाले आम मध्यमवर्ग के घरों में भी हफ्ते में एकाध बार पकता ही है. शहरी माहौल में रहने वाले लोगों को इसे स्थानीय बाजारों में खोजते देखा गया है. ऐसे लोग गांवदेहातों से आने वाले सब्जी विक्रेताओं को आर्डर दे कर इसे मंगवाते हैं.

यह एक ऐसा घास प्रजाति का साग है, जिस की खेती नहीं होती. अगर इसे व्यावसायिक रूप से बेचने के लिए उपजाया जाए तो इस पर कोई लागत नहीं आएगी और मुनाफा भी काफी हो सकता है.

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