आज भी बेल वाली सब्जियों लौकी, तुरई, तरबूज, खरबूजा, पेठा, खीरा, टिंडा, करेला वगैरह की खासी मांग है. इन की खेती मैदानी इलाकों में गरमी में जून महीने तक की जा सकती है. सर्दियों के मौसम में इन सब्जियों की नर्सरी तैयार करने के लिए पौलीहाउस तकनीक का इस्तेमाल किया जा सकता है.
पहले इन सब्जियों की पौध तैयार करते हैं, फिर मुख्य खेत में जड़ों को बिना नुकसान पहुंचाए रोपने का काम करते हैं. इन सब्जियों की पौध करने से तमाम फायदे होते हैं, जो इस तरह हैं:
एक से डेढ़ महीने तक बेल वाली सब्जियों की अगेती फसल ली जा सकती है. बारिश, ओला, कम या ज्यादा तापमान, कीड़े व रोगों से पौधों की सुरक्षा कर सकते हैं. पौधों के लिए जरूरी आबोहवा देते समय पौध तैयार की जा सकती है. बीज दर कम लगने से उत्पादन लागत भी कम हो जाती है.
पौध तैयार करने की विधि
सर्दियों के मौसम यानी दिसंबर और जनवरी में इन सब्जियों की नर्सरी तैयार करने के लिए बीजों को पौलीथिन बैग में ही बो दिया जाता है. इन थैलियों का आकार 10.7 सैंटीमीटर या 15.10 सैंटीमीटर और मोटाई 200-300 गेज होनी चाहिए.
इन थैलियों में मिट्टी, खाद व बालू रेत का मिश्रण 1:1:1 के अनुपात में बना कर भर लेते हैं. मिश्रण भरने से पहले हर थैली की तली में 2-3 छेद पानी निकालने के लिए जरूर बना लेने चाहिए. थैलियों को भरने के बाद हजारे की मदद से एक हलकी सिंचाई कर देनी चाहिए.
बेल वाली सब्जियों के बीजों की थैलियों में बोआई करने से पहले इन का अंकुरण कराना जरूरी है, क्योंकि दिसंबरजनवरी में ज्यादा ठंड पड़ने के चलते जमाव बहुत देर से होता है.
बोआई करने से पहले बीजों को कैप्टान (2 ग्राम दवा प्रति किलोग्राम बीज) के हिसाब से उपचारित कर लेना चाहिए.
अंकुरण कराने के लिए सब से पहले बीजों को पानी में भिगो देते हैं. उस के बाद उन्हें एक सूती कपड़े या बोरे के टुकड़े में लपेट कर किसी गरम जगह पर जैसे बिना सड़ी हुई गोबर की खाद या भूसा या अलाव बुझ जाने के बाद गरम राख में रखते हैं.
बीजों को जमाव के लिए भिगोने की अवधि 3-4 घंटे (खरबूजा, तरबूज, ककड़ी, खीरा, कुम्हड़ा), 6-8 घंटे (लौकी, तुरई, पेठा), 10-12 घंटे (टिंडा, चिचिड़ा) और 48 घंटे (करेला) होती है.
अंकुरण के लिए बीजों को पानी में भिगोने के 3-4 दिन बाद बीजों का अंकुरण हो जाता है. इन अंकुरित बीजों को थैलियों में बो देते हैं.
थैलियों में बीजों की बोआई दिसंबर के आखिरी हफ्ते के आसपास कर देनी चाहिए. हर थैली में 2-3 बीजों की बोआई कर देते हैं. पौधे बड़े होने पर प्रत्येक थैली में 1 या 2 पौधा छोड़ कर निकाल देते हैं.
पौधों को कम तापमान से बचाने लिए 1-1.5 मीटर की ऊंचाई पर बांस या लकड़ी गाड़ कर पौलीथिन की चादर से ढक देना चाहिए ताकि तापमान सामान्य से 8-10 डिगरी सैल्सियस ज्यादा बना रहे और पौधों की बढ़वार सही तरीके से हो सके.
इस तरह दिसंबर के आखिरी हफ्ते में बोई गई नर्सरी जनवरी के आखिर तक तैयार हो जाती है. 5000 पौधे तैयार करने के लिए 9.3.5 मीटर आकार के पौलीहाउस की जरूरत होती है, जिस का पूरा क्षेत्रफल 31.5 वर्गमीटर होता है. इस में इस्तेमाल होने वाली पौलीथिन 400 गेज मोटी होती है.
पौलीहाउस की ऊंचाई उत्तर दिशा में 2 मीटर और दक्षिण दिशा में 1.80 मीटर रखते हैं. पौलीहाउस में आनेजाने के लिए एक दरवाजा होना जरूरी है, जिस की चौड़ाई 75 सैंटीमीटर और ऊंचाई 2 मीटर रखते हैं.
खाद और उर्वरक
खेत की आखिरी जुताई के समय 200-500 क्विंटल सड़ीगली गोबर की खाद मिला देनी चाहिए. अच्छी उपज लेने के लिए प्रति हेक्टेयर की दर से 240 किलोग्राम यूरिया, 500 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट और 125 किलोग्राम म्यूरेट औफ पोटाश की जरूरत होती है. इस में सिंगल सुपर फास्फेट और पोटाश की पूरी मात्रा और यूरिया की आधी मात्रा नाली बनाते समय कतार में डालते हैं.
यूरिया की एकचौथाई मात्रा रोपने के 20-25 दिन बाद दे कर मिट्टी चढ़ा देते हैं और 40 दिन बाद टौप ड्रैसिंग करते समय बची चौथाई मात्रा देनी चाहिए. लेकिन जब पौधों को गड्ढे में रोपते हैं तो हर गड्ढे में 30-40 ग्राम यूरिया, 80-100 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट और 40-50 ग्राम म्यूरेट औफ पोटाश दे कर रोपाई करते हैं.
पौधों की खेत में रोपाई
इन सब्जियों की बोआई के लिए नाली अच्छी मानी जाती है. इसे थामला या हिल भी कहते हैं. इस के लिए अगर मुमकिन हो तो पूरब से पश्चिम दिशा की ओर 45 सैंटीमीटर चौड़ी और 30-40 सैंटीमीटर गहरी नालियां रोपने से पहले बना लेते हैं.
एक नाली से दूसरी नाली के बीच की दूरी 2 मीटर (खीरा, टिंडा) से 4 मीटर (कद्दू, पेठा, तरबूज, लौकी, तुरई) रखी जाती है. हर नाली के उत्तरी किनारे पर थाले बना लेते हैं. एक थाले से दूसरे थाले की दूरी 0.50 मीटर (कद्दू, टिंडा व खीरा), 0.75 से 1.00 मीटर (कद्दू, करेला, लौकी, तरबूज) रखते हैं.
इस विधि से खेती करने से खाद, पानी और निराईगुड़ाई पर कम खर्च आता है और पैदावार भी अच्छी होती है. नालियों के बीच की जगह पर सिंचाई नहीं की जाती. इस वजह से बेलों पर लगने वाले फल गीली मिट्टी के संपर्क में नहीं आते और खराब होने से बच जाते हैं.
बीजों को रोपने का काम फरवरी में जब पाला पड़ने का अंदेशा न हो तब पौलीथिन की थैलियों से पौधा मिट्टी सहित निकाल कर तैयार थालों में शाम के समय रोप देते हैं.
एक थाले में एक ही पौधा लगाना चाहिए. रोपने के फौरन बाद पौधों में हलकी सिंचाई जरूर करनी चाहिए. रोपने से 4-6 दिन पहले सिंचाई रोक कर पौधों को अपनी जड़ें मजबूत करने का समय चाहिए.
इन कद्दूवर्गीय सब्जियों की बेमौसम खेती से अच्छी उपज लेने के लिए क्रांतिक अवस्थाओं यानी वर्धीय वृद्धि काल की अवस्था, पुष्पन की अवस्था, फल के बढ़ने की अवस्था में सिंचाई जरूर करनी चाहिए.
रोपाई के 10-15 दिन बाद हाथ से निराई कर के खरपतवार साफ कर देने चाहिए और समयसमय पर निराईगुड़ाई करते रहना चाहिए. पहली गुड़ाई के बाद जड़ों के आसपास हलकी मिट्टी चढ़ानी चाहिए.
कटाईछंटाई व सहारा देना
ज्यादा उपज लेने और फलों की क्वालिटी बनाए रखने के लिए कद्दूवर्गीय सब्जियों की कटाईछंटाई करना बहुत जरूरी है, जैसे खरबूजा में 3-7 गांठ तक सभी दूसरी शाखाओं को काट देने से उपज और क्वालिटी में बढ़ोतरी हो जाती है. तरबूज में 3-4 गांठ आने के बाद कटाईछंटाई कर देने से फल की क्वालिटी में अच्छी बढ़वार होती है.
इसी तरह इस कुल की सब्जियों में सहारा देना बहुत जरूरी है. सहारा देने के लिए लोहे के एंगल या बांस से मचान बनाते हैं. खंभों के ऊपरी सिरे पर तार बांध कर पौधों को मचान पर चढ़ाया जाता है. सहारा देने के लिए 2 खंभों या एंगल के बीच की दूरी 2 मीटर रखते हैं, लेकिन ऊंचाई फसल के अनुसार अलगअलग होती है. करेला और खीरा के लिए साढ़े 4 फुट रखते हैं, जबकि लौकी वगैरह के लिए 5.50 फुट रखते हैं.
इतनी मिलती है उपज
इस विधि द्वारा मैदानी भागों में इन सब्जियों की खेती तकरीबन एक महीने से ले कर डेढ़ महीने तक अगेती की जा सकती है और उपज व आमदनी भी ज्यादा ली जा सकती है.
इस तरह खेती करने से अनुमानत: टिंडे की 110-140 क्विंटल, लौकी की 450-500 क्विंटल, तरबूज की 350-400 क्विंटल, कुम्हड़ा की 800-850 क्विंटल, पेठा की 500-550 क्विंटल, खीरा, करेला और आरा तुरई की 280-300 क्विंटल और खरबूजा व चिकनी तुरई की 200-245 क्विंटल उपज प्रति हेक्टेयर ली जा सकती है.