फसलों की पैदावार बढ़ाने में नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश जैसे जरूरी पोषक तत्त्वों के बाद गंधक की पहचान चौथे प्रमुख पोषक तत्त्व के रूप में की गई है. फसलों में विशेषकर तिलहनी और दलहनी फसलों का उत्पादन व उन की क्वालिटी बढ़ाने में गंधक मुख्य भूमिका निभाता है.

गंधक का अवशोषण पौधे की जड़ों द्वारा सल्फेट आयन और सल्फाइड के रूप में और पत्तियों द्वारा ‘सल्फर डाईऔक्साइड’ के रूप में किया जाता है. पत्तियों पर गंधक का ज्यादा इस्तेमाल होने पर यह जहरीला असर डालता है.

पौधों में आमतौर पर 0.1-0.4 फीसदी तक गंधक पाया जाता है. गेहूं, चना, सरसों के बीजों में क्रमश: 0.25 से 0.23 फीसदी और 1.1-1.7 फीसदी तक गंधक पाया जाता है.

जांच से पता चला है कि प्रति 10 क्विंटल तिलहन उत्पादन के लिए 12 किलोग्राम गंधक और 10 क्विंटल दलहन उत्पादन के लिए 8 किलोग्राम गंधक की जरूरत होती है.

गंधक के इस्तेमाल से तिलहनी फसलों में प्रोटीन की मात्रा में बढ़ोतरी होती है. साथ ही, गंधक के चलते तेल, प्याज व लहसुन में तीखापन भी बढ़ता है.

गंधक खाद्यान्न फसलों की क्वालिटी में भी बढ़ोतरी करता है, जिस से उन को पीसने व पकाने में आसानी हो जाती है. कंद वाली फसलों में स्टार्च की मात्रा में बढ़ोतरी होती है और गन्ने से ज्यादा शर्करा मिलती है जबकि चारे वाली फसलों की पोषकता में बढ़ोतरी करती है.

गंधक पौधों की विभिन्न जैविक क्रियाओं में अहम भूमिका निभाता है जैसे थायोयूरिया, वृद्धि नियामक थायोमिन, बायोटिन ग्लूदाथायोन वगैरह गंधक पौधों में पर्णहरित यानी क्लोरोफिल को बनाने में मददगार होती है.

* ज्यादा गंधक वाली फसलें जैसे तिलहन, दलहन और चारे वाली फसलों को ज्यादा अनुपात में उगाना.

* हरी खाद और गोबर की खाद का कम से कम इस्तेमाल करना.

* गंधक की कमी आमतौर पर काली, लाल, लेटेराइट, जलोढ़, दोमट, कछारी व कंकरीली मिट्टी में पाई जाती है.

* विभिन्न फसलों की उन्नत व संकर किस्मों और गहन खेती के चलते जमीन में गंधक का दोहन ज्यादा होता है.

* गंधकरहित उर्वरक जैसे यूरिया, डीएपी का निरंतर इस्तेमाल न करना यानी अमोनियम सल्फेट और सिंगल सुपर फास्फेट उर्वरकों का कई सालों से इस्तेमाल न करना.

* धान, गेहूं पद्धति के निरंतर इस्तेमाल से पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार वगैरह राज्यों में जमीन में गंधक की कमी पाई जा सकती है.

सही समय

किसानों को अपने खेत की मिट्टी जांच स्थानीय प्रसार विभाग, कृषि विभाग या कृषि विश्वविद्यालय की प्रयोगशालाओं में कराएं. मिट्टी जांच रिपोर्ट की संस्तुति के मुताबिक ही गंधक का इस्तेमाल करें.

आमतौर पर ज्यादातर कृषि फसलों में गंधक का इस्तेमाल 20-25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से किया जाता है. अगर मिट्टी अम्लीय है तो उस में अमोनियम सल्फेट और पोटेशियम सल्फेट का इस्तेमाल मुफीद होता है. इस के उलट क्षारीय मिट्टी में जिप्सम या सिंगल सुपर फास्फेट का इस्तेमाल करना सही रहता है.

जिन इलाकों में जिप्सम या पाइराइट काम में लाना हो, वहां पौधों को रोपने से 2-4 हफ्ते पहले खेत में डाल देना चाहिए. ताकि जब तक पौधों की बढ़वार हो तब तक गंधक मिट्टी में घुल कर पौधों द्वारा अवशोषित करने लायक हो जाएंगे. इस की कमी को दूर करने के लिए अमोनियम सल्फेट का घोल डालना चाहिए.

राई, सरसों, तिल, सूरजमुखी, अलसी,  कुसुम वगैरह की अच्छी क्वालिटी वाली फसल लेने के लिए सिंगल सुपर फास्फेट या जिप्सम का इस्तेमाल कई हिस्सों में करना चाहिए, जिस से उन्हें गंधक व चूना भरपूर मिल सके.

इस के अलावा धान की फसल को खैरा रोग से बचाने के लिए नर्सरी से ले कर रोपण के पहले और बाद में भी जिंक सल्फेट की सही मात्रा देनी चाहिए.

फसलों की ज्यादा पैदावार हासिल करने के लिए उर्वरकों की संतुलित मात्रा सही समय पर ही डालनी चाहिए.

फसलों में 20-25 किलोग्राम जिंक सल्फेट का बोआई से पहले बेसिल ड्रैसिंग प्रति हेक्टेयर की दर से दिया जाए या खड़ी फसल में जैसे धान, गेहूं में बालियां निकलने से पहले दिया जाए.

राई व सरसों में फूल की पहली शाखा निकलने के समय और आलू में जब पौधे तकरीबन 15 सैंटीमीटर ऊंचे हो जाएं तब जिंक सल्फेट का 0.5 फीसदी चूने का घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए, तो 10-15 फीसदी उपज में बढ़ोतरी अनुसंधान द्वारा देखी गई है.

साथ ही, जिंक सल्फेट के घोल में चूने का घोल जरूर मिलाना चाहिए ताकि जिंक सल्फेट के अम्लीय प्रभाव से पत्तियां पूरी तरह से न जलें, फसल सेहतमंद रहे और ज्यादा से ज्यादा पैदावार दे सके.

गंधक की कमी के पौधों में लक्षण

गंधक (Sulfur)तिलहनी फसलें

सरसों : गंधक की कमी से पत्तियां सीधी खड़ी हुईं और अंदर की ओर मुड़ी हुई दिखाई देती हैं.

शुरू में नई पत्तियों की निचली सतह पर लाल रंग बनता है जो बाद में ऊपरी सतह पर भी आ जाता है. उत्पादन और क्वालिटी पर बुरा असर पड़ता है. तेल भी कम मिलता है.

मूंगफली : नई पत्तियों का फलक छोटा, पीला और सीधा खड़ा हो जाता है. पत्तियां अंगरेजी के ‘वी’ आकार की हो जाती हैं. इस से मूल गं्रथियों का बनना कम हो जाता है. इस के चलते नाइट्रोजन स्थिरीकरण भी कम हो जाता है. पौधे छोटे रह जाते हैं.

सूरजमुखी : शुरू में पुरानी पत्तियां सामान्य रहती हैं, पर कुछ समय बाद पूरा पौधा ही पीला पड़ जाता है. सब से पहले पौधे का शीर्ष भाग प्रभावित होता है. नई पत्तियां झुर्रीदार हो जाती हैं, जिन का रंग हलका पीला हो जाता है. तेल कम मात्रा में हासिल होता है.

सोयाबीन : शुरू में नई पत्तियां हलकी पीली हो जाती हैं, पर पुरानी पत्तियां सामान्य रहती हैं. कुछ समय बाद पत्तियां छोटे आकार की हो जाती हैं और पूरा पौधा पीला पड़ जाता है. उत्पादन के साथसाथ क्वालिटी में कमी आ जाती है.

दलहनी फसलें

चना : नई पत्तियां हलकी हरी से पीली पड़ जाती हैं. शीर्ष कलिकाएं जिंदा रहती हैं. उत्पादन व क्वालिटी में कमी आ जाती है. प्रोटीन कम मात्रा में बनता है.

अरहर : नई पत्तियां हलकी हरी से पीली पड़ जाती हैं. शीर्ष कलिकाएं जिंदा रहती हैं. उत्पादन और क्वालिटी में कमी आ जाती है. प्रोटीन भी कम मात्रा में बनता है.

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