भारत में जीरे की खेती खासकर गुजरात और राजस्थान में की जाती है. राजस्थान में खासकर बाड़मेर, जालौर, जोधपुर, जैसलमेर, नागौर, पाली, अजमेर, सिरोही और टोंक जिलों में जीरे की खेती की जाती है. जीरे के बीजों से उस की किस्म व जगह के मुताबिक 2.5 से 4.5 फीसदी वाष्पशील तेल हासिल होता है. जीरे से हासिल होने वाले ओलियोरेजिन की अंतर्राष्ट्रीय बाजार में काफी मांग है. इस की खेती कर के कम लागत व कम समय में ज्यादा लाभ कमाया जा सकता है.

जीरा सर्दी के मौसम की फसल है, इस के लिए सूखा और हलका ठंडा मौसम अच्छा रहता है. जिन इलाकों में फूल व बीज बनते समय वायुमंडलीय नमी ज्यादा रहती है, वहां जीरे की खेती अच्छी नहीं होती है. वायुमंडल में ज्यादा नमी से रोग व कीड़े ज्यादा पनपते हैं. जीरे की फसल पाला सहन नहीं कर पाती. पकते समय हलका गरम मौसम इस की फसल के लिए मुफीद रहता है. वातावरण का तापमान 30 डिगरी सेंटीग्रेड से ज्यादा व 10 डिगरी सेंटीग्रेड से कम होने पर जीरे के अंकुरण पर बुरा असर पड़ता है.

जमीन की तैयारी : जीरे की खेती वैसे तो हर तरह की मिट्टी में की जा सकती है, लेकिन रेतीली, चिकनी बलुई या दोमट मिट्टी जिस में कार्बनिक पदार्थों की अधिकता हो, इस की खेती के लिए काफी अच्छी रहती है. खेत में ज्यादा वक्त तक पानी रुकने से उकठा रोग हो सकता है. साधारण किस्म की भारी और लवणीय मिट्टी भी जीरे की फसल के लिए अच्छी रहती है. बोआई से पहले खेत की मिट्टी भुरभुरी बनाने के लिए खेत की ठीक तरह से जुताई करें और खेत से कंकड़पत्थर, पुरानी फसल के अवशेष, खरपतवार आदि निकाल कर खेत को साफ कर दें.

जीरे की उन्नत किस्में

गुजरात जीरा 4 (जीसी 4) : यह प्रजाति गुजरात कृषि विश्वविद्यालय के मसाला अनुसंधान केंद्र, जगूदान ने तैयार की है. इस के पौधे बौने व झाड़ीनुमा होते हैं और शाखाएं ज्यादा होती हैं. यह किस्म 110 से 120 दिनों में पक कर 7 से 10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है. इस के बीजों में 4 फीसदी तक तेल की मात्रा होती है.

जीसी 4 के अलावा आरजेड 223, आरजेड 209 और आरजेड 19 भी उम्दा किस्में हैं.

खाद और उर्वरक : जीरे की ज्यादा पैदावार के लिए 10 टन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से सड़ी हुई गोबर की खाद जुताई से पहले अच्छी तरह खेत में बिखेर कर मिलानी चाहिए. ढाई टन सरसों का अवशेष प्रति हेक्टेयर के हिसाब से अप्रैलमई में खेत में डाल कर तवी चला कर अच्छी तरह मिट्टी में मिलाने से उकठा रोग की रोकथाम होने के साथसाथ मिट्टी में जीवांश की मात्रा भी बढ़ती है.

उर्वरकों का इस्तेमाल मिट्टी की जांच के हिसाब से करना चाहिए. औसत उर्वरता वाली जमीन में प्रति हेक्टेयर 30 किलोग्राम नाइट्रोजन, 20 किलोग्राम फास्फोरस और 15 किलोग्राम पोटाश की जरूरत पड़ती है. फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा और नाइट्रोजन की आधी मात्रा बोआई से पहले आखिरी जुताई के समय जमीन में मिलाएं. नाइट्रोजन की बची आधी मात्रा बोआई के 30 से 35 दिनों बाद खड़ी फसल में सिंचाई के साथ दें. इस के अलावा बेहतर पैदावार के लिए बोआई के समय 40 किलोग्राम गंधक जिप्सम के माध्यम से प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में डालें.

बीजों की मात्रा और उपचार : उन्नत किस्म के 12 से 15 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर सही रहते हैं. बोआई से पहले बीजों को मित्र फफूंद यानी ट्राइकोडर्मा की 4 किलोग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें. उस के बाद एजेटोबेक्टर जैव उर्वरक के 200 ग्राम के 3 पैकेटों से प्रति हेक्टेयर बोए जाने वाले बीजों को उपचारित कर के बोआई करें.

बोआई का समय व विधि : जीरे की बोआई 15 नवंबर के आसपास करनी चाहिए. आमतौर पर जीरे की बोआई छिटकवां तरीके से की जाती है.

पहले से तैयार खेत में एक जैसी क्यारियां बना कर उन में बीज एकसाथ छिटक कर लोहे की दंताली (दांतों वाला खास फावड़ा) इस तरह फिराएं कि बीजों के ऊपर मिट्टी की हलकी परत चढ़ जाए ध्यान रहे कि बीज ज्यादा गहराई में न जाएं.

निराईगुड़ाई और अन्य शस्य क्रियाओं व छिड़काव की सुविधा के लिहाज से छिटकवां तरीके के बजाय कतारों में बोआई करना ज्यादा मुफीद रहता है. कतारों में बोआई के लिए सीडड्रिल से भी 30 सेंटीमीटर की दूरी पर बोआई की जा सकती है. बोआई के दौरान इस बात का ध्यान रखें कि बीज मिट्टी से एकसार ढक जाएं और मिट्टी की परत 1 सेंटीमीटर से ज्यादा मोटी न हो.

सिंचाई : बोआई के एकदम बाद सिंचाई करें और दूसरी हलकी सिंचाई पहली सिंचाई के 8-10 दिनों बाद अंकुरण के समय करें. यदि दूसरी सिंचाई के बाद पूरी तरह अंकुरण न हो या जमीन पर पपड़ी जम गई हो तो फिर एक हलकी सिंचाई करना फायदेमंद रहता है. इस के बाद मिट्टी और मौसम के अनुसार 15 से 25 दिनों के बीच सिंचाई करें. जीरे में दाने आते समय भी सिंचाई करनी चाहिए, लेकिन पकने के दौरान फसल में सिंचाई न करें. जीरे में फव्वारा विधि से सिंचाई करना मुफीद रहता है.

निराईगुड़ाई : जीरे की शुरुआती बढ़वार काफी धीमी होती है और इस का पौधा भी काफी छोटा होता है. खरपतवारों से इस का काफी बचाव करना पड़ता है. जीरे की फसल में खरपतवारों की रोकथाम और जमीन में सही वायु संचार के लिए 2 बार निराईगुड़ाई करना जरूरी है. पहली निराईगुड़ाई बोआई के 30-35 दिनों बाद व दूसरी 55-60 दिनों बाद करनी चाहिए. पहली निराईगुड़ाई के दौरान फालतू पौधों को उखाड़ कर हटा दें, जिस से पौधों के बीच की दूरी 5 सेंटीमीटर रहे.

जीरा (Cumin)जीरे के रोग और कीट

उकठा : यह रोग फ्यूजेरियम आक्सीस्पोरम क्यूमीनाई नामक फफूंद से पौधों की जड़ों में लगता है और मिट्टी व बीज जनित है. जीरे में यह रोग किसी भी अवस्था में बोआई से कटाई तक हो सकता है. इस के पहले लक्षण में पत्तियां पीली पड़ जाती हैं और पौधा धीरेधीरे मुरझा कर सूखने लगता है. यदि रोग का संक्रमण फूल या बीज बनने के समय होता है, तो जीरे का बीज पतला, छोटा व सिकुड़ा हुआ होता है. यदि रोगग्रसित जड़ों को चीर कर देखें तो तने तक लंबी काले रंग की एक धारी दिखाई देती है. इस का प्रभाव उन खेतों में ज्यादा दिखता है, जहां लगातार जीरे की खेती की जाती है.

रोकथाम

* खेत की सफाई पर ध्यान दें. रोगी पौधों के अवशेषों को नष्ट कर दें.

* गरमी में खेत खाली छोड़ कर गहरी जुताई करें.

* फसल चक्र अपनाएं.

* जब सरसों की फसल कट जाए तो उस का कचरा उसी खेत में दबा कर गरमी के मौसम में एक बार सिंचाई करें. इस कचरे के सड़ने से फफूंदनाशक गैस पैदा होती  है, जो उकठा रोग की फफूंद को मार देती है.

* स्वस्थ व रोगरोधी किस्मों की ही बोआई करें.

* बीजों को ट्राइकोडर्मा की 4 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें.

* रोग से प्रभावित पौधों को उखाड़ कर नष्ट करें और ढाई किलोग्राम ट्राइकोडर्मा 100 किलोग्राम अच्छी तरह सड़ी नमीयुक्त गोबर की खाद के साथ जमीन में दें. ट्राइकोडर्मा बोआई से पहले खेत में देना ज्यादा फायदेमंद होता है.

झुलसा : यह रोग अल्टरनेरिया बर्नसाई नामक फफूंद से पैदा होता है, जो रोगी पौधों के अवशेषों पर जमीन में रहता है. यह रोग फसल पर फूल आने के दौरान दिखाई देता है और हवा से रोगी पौधों से स्वस्थ पौधों पर फैलता है. पत्तियों पर छोटेछोटे धब्बों के रूप में इस रोग की शुरुआत होती है. रोग के संक्रमण के बाद नमी बनी रहे या छुटपुट बारिश हो जाए तो यह रोग बढ़ जाता है और तने को भी अपनी चपेट में ले लेता है. शुरू में रोग के धब्बे बैगनी और बाद में गहरे भूरे रंग से काले रंग के हो जाते हैं. रोग ग्रसित पौधों में बीज बिल्कुल भी नहीं बनते और यदि बनते हैं तो छोटे और सिकुड़े होते हैं. यह रोग इतनी तेजी से फैलता है कि फसल को नुकसान से बचाना मुश्किल हो जाता है.

रोकथाम

* खेत के आसपास पिछले साल का रोगग्रस्त कचरा न छोड़ें.

* गरमी के मौसम में गहरी जुताई कर के खेत को खुला छोड़ें.

* स्वस्थ बीज बोएं.

* खेत में रोग के लक्षण दिखाई देते ही कापरआक्सीक्लोराइड 0.3 फीसदी 3 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल का छिड़काव करें. जरूरत पड़ने पर 15 दिनों बाद छिड़काव दोहराएं.

* ज्यादा सिंचाई न करें और ज्यादा सिंचाई वाली फसलों जैसे गेहूं व अरंडी के पास बिल्कुल भी जीरा न लगाएं.

* पौधों को सही दूरी पर रखें.

छाछ्या रोग : यह रोग ऐरीसाइफी पोलीगोनी नामक फफूंद से पैदा होता है और जड़ों को छोड़ कर पौधे के सभी भागों को नुकसान पहुंचाता है. फूल आने से बीज बनने के दौरान यह रोग ज्यादा नुकसान करता है.

रोग की शुरुआत पत्तियों पर छोटेछोटे सफेद धब्बों के रूप में रोग होती है और धीरेधीरे पत्तियों की पूरी सतह व पौधों पर रोग फैल जाता है. गरम व नमी वाले मौसम में यह रोग तेजी से फैलता है. इस रोग का फैलाव हवा, पानी व कीटों से होता है. इस रोग की वजह से बीज सिकुड़े व वजन में हलके बनते  हैं और उपज घट जाती है.

रोकथाम

* रोगी पौधों के अवशेषों को इकट्ठा कर के नष्ट कर दें.

* खेत में रोग के लक्षण दिखाई देते ही 25 किलोग्राम गंधक चूर्ण या 2 से 5 किलोग्राम घुलनशील गंधक का प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

मोयला : इस कीट से फसल को काफी नुकसान होता है. यह हरेपीले रंग का छोटा व कोमल कीट होता है. इसे माहू, चैंपा या कालिया जीवड़ा भी कहते हैं. यह पौधे के मुलायम हिस्से से रस चूस कर उसे नुकसान पहुंचाता है. इस का असर फसल में फूल आने के दौरान शुरू होता है और दाना पकने तक रहता है.

रोकथाम

* 12 पीले चिपचिपे ट्रैप प्रति हेक्टेयर की दर से लगाएं.

* पहला छिड़काव 2 फीसदी लहसुन के अर्क का, दूसरा छिड़काव गौमूत्र (100 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी) का व तीसरा छिड़काव एजीडीराक्टीन 3000 पीपीएम (3 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी) का करें.

कटाई : जीरे की फसल 110 से 120 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. फसल को हंसिया से काट कर ठीक तरह से सुखा लें. खेत में सूखते ढेर पर रेत न डालें. उड़ने का डर हो तो अखबार से ढक कर ऊपर से पत्थर रख दें. जहां तक संभव हो पक्के फर्श या त्रिपाल पर दानों को थ्रेसर से अलग कर लें. दानों से धूल व कचरा आदि ओसाई कर के दूर कर लें और उन्हें अच्छी तरह सुखा कर साफ बोरियों में भरें.

भंडारण : भंडारण करते समय दानों में नमी साढ़े 8 या 9 फीसदी से ज्यादा नहीं होनी चाहिए. बोरियों को दीवार से 50-60 सेंटीमीटर की दूरी पर लकड़ी की पट्टियों पर रखें और चूहों व अन्य कीटों से बचाएं.

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