मसालों में सौंफ एक खास फसल है. इस के पत्ते, तने, फूल और बीज सुगंधित होते हैं.
सौंफ का इस्तेमाल मसाले के तौर पर कई खाद्य पदार्थों जैसे सूप, चटनी, पेस्ट्री, ब्रेडरोल, अचार वगैरह में स्वाद, खुशबू और दवा के रूप में भी किया जाता है. देश में सौंफ की खेती खासकर राजस्थान, गुजरात और उत्तर प्रदेश में की जाती है. राजस्थान में इस की खेती मुख्य रूप से सिरोही, नागौर, जोधपुर, टोंक, पाली, दौसा और जालौर जिलों में की जाती है.
वातावरण : सूखा और ठंडा मौसम इस की अच्छी बढ़वार व उपज के लिए बेहतर रहता है. यह जाड़े के मौसम में बोई जाने वाली फसल है. सौंफ की अच्छी बढ़वार के लिए 15-20 डिगरी सेल्सियस तापमान सही रहता है. तापमान बढ़ने से इस के पौधों में समय से पहले फूल आने और दाने अधपके रहने से पैदावार पर बुरा असर पड़ता है.
सौंफ की फसल में खासतौर पर फूल आने के दौरान ज्यादा नमी और बादल छाए रहने से कीड़ों व रोगों का हमला बढ़ जाता है. फूल आते समय पाला पड़ना इस की फसल के लिए हानिकारक है.
जमीन: जिस मिट्टी में भरपूर मात्रा में जैविक पदार्थ मौजूद हों, उस में सौंफ की खेती की जा सकती है. इस की अच्छी पैदावार के लिए उर्वरक और अच्छे जल निकास वाली बलुईदोमट जमीन ज्यादा सही रहती है. इस की खेती के लिए मिट्टी का पीएच मान 6.5 से 8.0 के बीच होना चाहिए.
खेत की तैयारी: सौंफ की खेती के लिए खेत तैयार करने के लिए सब पहले मिट्टी पलटने वाले हल से एक गहरी जुताई करें. बाद की 2-3 जुताई देशी हल या हैरो से करने के बाद पाटा चला कर मिट्टी भुरभुरी व खेत को समतल कर लें. खरपतवार व कंकड़पत्थर को खेत से बाहर कर दें. समतल खेत में सुविधानुसार क्यारियां बना लें.
उन्नत किस्में
जीएफ 11: यह प्रजाति सिंचित खेती के लिए बेहतरीन है. इस में सभी छत्रक तकरीबन साथ आते हैं और यह पछेती गरमी को सहने वाली किस्म है. इस में वाष्पशील तेल की मात्रा 1.8 फीसदी होती है. यह 200-230 (पौधा रोपाई विधि) दिनों में पक जाती है.
इस की औसत उपज कूवत 24 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.
एएफ 1 : यह किस्म जल्दी बोआई और रबी के मौसम के लिए अच्छी है. इस प्रजाति के पौधे सीधे और छत्रक बड़ा होता है. इस में वाष्पशील तेल की मात्रा 1.6 फीसदी होती है. इस किस्म की औसत उपज कूवत 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. यह किस्म अल्टरनेरिया और रेमुलेरिया ब्लाइट के प्रतिरोधक है.
आरएफ 101 : यह प्रजाति दोमट और काली कपास वाली जमीन के लिए बेहतरीन है. यह 150 से 160 दिनों में पक जाती है. इस के पौधे सीधे व मध्यम ऊंचाई वाले होते हैं. इस की औसत उपज कूवत 15 से 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. इस में वाष्पशील तेल की मात्रा 1.2 फीसदी होती है. इस किस्म में रोगों की प्रतिरोधक कूवत ज्यादा और कीड़े भी कम लगते हैं.
आरएफ 143 : इस किस्म के पौधे सीधे व ऊंचाई में 116-118 सेंटीमीटर होते हैं, जिन पर 7-8 शाखाएं निकलती हैं. छत्रक (अंबल) घना होता है और प्रति पौधा अंबलों की संख्या 23-62 होती है. एक अंबल में 283 तक बीज होते हैं. इस में वाष्पशील तेल की मात्रा 1.87 फीसदी होती है. इस की फसल 140-150 दिनों में पक जाती है. इस की औसत उपज कूवत 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.
आरएफ 125 : यह शीघ्र पकने वाली किस्म है. इस के पौधे कम ऊंचाई वाले होते हैं. इस का छत्रक घना, लंबा, सुडौल व आकर्षक दानोंयुक्त होता है. इस किस्म में अल्टरनेरिया झुलसा के प्रति प्रतिरोधकता ज्यादा होती है और तेलिया कीट भी कम लगते हैं. यह प्रजाति 110 से 130 दिनों में पक जाती है. इस की औसत उपज कूवत 17 से 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. वाष्पशील तेल की मात्रा 1.9 फीसदी होती है.
आरएफ 205 : यह प्रजाति राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और बिहार के लिए बेहतरीन है. इस के पौधे सीधे व मध्यम लंबाई वाले होते हैं. इस की फसल 140 से 150 दिनों में पक जाती है. इस की औसत उपज कूवत 16 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. यह किस्म रेमूलेरिया ब्लाइट के प्रति प्रतिरोधक होती है और इस में तेला और दूसरे कीटों का प्रकोप भी कम होता है. इस के बीज लंबे, सुंदर और सुडौल होते हैं, जिन में वाष्पशील तेल की मात्रा 2.48 फीसदी होती है.
बीज दर और बीजोपचार : बीज से सौंफ की बोआई करने पर 8-10 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज लगता है. नर्सरी में सौंफ की पौध तैयार करने के लिए 1 हेक्टेयर खेत के लिए 2.5 से 4 किलोग्राम बीज ही काफी होता है. सौंफ को रोगों से बचाने के लिए ट्राइकोडर्मा मित्र फफूंद 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए.
बोआई का समय: लंबी अवधि की फसल होने की वजह से सौंफ की रबी की शुरुआत में ही बोआई करना फायदेमंद रहता है. अच्छी पैदावार लेने के लिए समय पर बोआई करनी चाहिए. पौधशाला में पौध तैयार कर के सौंफ की रोपाई की जा सकती है. अक्तूबर का पहला हफ्ता सौंफ की बोआई के लिए सही रहता है. नर्सरी विधि से बोने पर सौंफ की नर्सरी में बोआई जुलाईअगस्त में की जाती है और 45 से 60 दिनों बाद पौधों की रोपाई कर दी जाती है.
बोआई की विधि
बीज से सीधी बोआई : बीज से बोआई करने पर क्यारियों में बीजों को छिटक कर या 45 सेंटीमीटर दूर लाइनों में बोते हैं. कतार विधि में हुक की सहायता से 45 सेंटीमीटर की दूरी पर लाइनें खींच कर 2 सेंटीमीटर गहराई पर उपचारित बीजों की बोआई 15-20 सेंटीमीटर की दूरी पर करते हैं, जिन का अंकुरण 7 से 11 दिनों के बाद शुरू हो जाता है. पहली निराईगुड़ाई के समय लाइनों से फालतू पौधों को निकाल कर पौधों के बीच की दूरी 20 सेंटीमीटर कर देनी चाहिए.
नर्सरी
रोपाई विधि: इस विधि से बोआई करने के लिए पहले नर्सरी में पौध तैयार की जाती है. जूनजुलाई में 1 हेक्टेयर क्षेत्र के लिए 100 वर्गमीटर जमीन में 3×2 मीटर आकार की क्यारियां बना कर नर्सरी तैयार कर लेनी चाहिए. क्यारियों में 15-20 टोकरी गोबर की सड़ी हुई खाद या कंपोस्ट मिला देनी चाहिए. इस के अलावा 2 किलोग्राम डीएपी व 500 ग्राम यूरिया मिला देना चाहिए. 20 सेंटीमीटर दूरी पर लाइनें बना कर बीजों की बोआई करनी चाहिए. समयसमय पर जरूरत के मुताबिक पानी देना चाहिए. 40-50 दिनों में पौध तैयार हो जाती है. पौधे से पौधे की दूरी 20 सेंटीमीटर रखनी चाहिए.
खाद और उर्वरक : खेत की मिट्टी की जांच कर के खाद और उर्वरक सही मात्रा में देने चाहिए. सौंफ की अच्छी पैदावार के लिए 10-15 टन अच्छी सड़ी गोबर की खाद या कंपोस्ट प्रति हेक्टेयर की दर से सौंफ बोने या रोपने के 3-4 हफ्ते पहले खेत में अच्छी तरह मिला देना चाहिए. इस के अलावा सामान्य उर्वरता वाली जमीन में 90 किलोग्राम नाइट्रोजन और 40 किलोग्राम फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की दर से देनी चाहिए.
नाइट्रोजन की 30 किलोग्राम और फास्फोरस की पूरी मात्रा खेत की अंतिम जुताई के साथ देनी चाहिए. नाइट्रोजन की शेष मात्रा को 2 भागों में बांट कर 30 किलोग्राम बोआई के 45 दिनों बाद और शेष 30 किलोग्राम फूल आते समय सिंचाई के साथ देनी चाहिए.
सिंचाई: सौंफ लंबे समय की फसल होने से इस में सिंचाई की जरूरत अन्य बीजीय मसाला फसलों की तुलना में ज्यादा होती है. बोआई के एकदम बाद इस की सिंचाई करनी चाहिए ताकि जिस में बीज जम जाएं. सिंचाई करते समय ध्यान रखना चाहिए कि पानी का बहाव तेज न हो वरना बीज बह कर किनारों पर इकट्ठा हो जाएंगे. दूसरी सिंचाई बोआई के 7-8 दिनों बाद करनी चाहिए, ताकि बीजों का अंकुरण पूरा हो जाए. इस के बाद सर्दियों में 15-20 दिनों के बीच सिंचाई करनी चाहिए. फूल आने के बाद और दाना बनते समय फसल को पानी की कमी नहीं होनी चाहिए.
निराईगुड़ाई और खरपतवार प्रबंधन : फसल की सही बढ़वार और ज्यादा पैदावार के लिए सौंफ के पौधे जब 8-10 सेंटीमीटर के हो जाएं तब गुड़ाई कर के जहां पौधे ज्यादा हों वहां से कमजोर पौधों को निकाल कर पौधे से पौधे की दूरी 20 सेंटीमीटर कर दें.
फूल आते समय पौधे के तने के पास मिट्टी चढ़ा दें, ताकि तेज हवाओं से पौधे न गिरें. सौंफ की खेती की शुरुआती बढ़वार कम और पौधे के बीच ज्यादा दूरी होने के कारण शुरुआती अवस्था में खरपतवारों की दिक्कत ज्यादा रहती है.
रोग व कीड़ों की रोकथाम
तना और जड़ गलन : तने का नीचे से मुलायम होना और जड़ों का गलना इस रोग का खास लक्षण है. पौधे में काले रंग के स्क्लेरोशिया दिखाई देते हैं. इस रोग से पौधे की बढ़वार वाली पत्तियां पीली पड़ कर मुरझा जाती हैं और जड़ गलने से पूरा पौधा सूख जाता है. इस की रोकथाम के लिए फसलचक्र अपनाएं और बीजों को ट्राइकोडर्मा मित्र फफूंद 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज से बीजोपचार करें और बोआई से पहले जमीन में ट्राइकोडर्मा मित्र फफूंद 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज से बीजोपचार करें. बोआई से पहले जमीन में ट्राइकोडर्मा की ढाई किलोग्राम मात्रा 100 किलोग्राम गोबर की खाद में 15 दिन नमीयुक्त रखने के बाद जमीन में मिलाएं.
छाछया (पाउडरी मिल्ड्यू) : यह एक फफूंदजनित रोग है, जिस की शुरुआत पत्तियों व टहनियों पर सफेद चूर्ण के रूप में होती है, जो बाद में पूरे पौधे पर फैल जाता है.
इस रोग की रोकथाम के वास्ते लक्षण दिखाई देते ही गंधक चूर्ण 20 से 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर का बुरकाव करें या घुलनशील गंधक की 2.5 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें. जरूरत पड़ने पर इसे 15 दिन बाद दोहराएं.
झुलसा (ब्लाइट) : इस रोग की शुरुआत बोआई के 60 से 70 दिनों बाद नीचे पत्तियों पर गहरे भूरे रंग के रूप में होती है. धीरेधीरे ये धब्बे पूरे पौधे पर फैल जाते हैं और फूलकलियां सब पीली पड़ कर सूख जाने से पैदावार में गिरावट आती है.
इस रोग की रोकथाम के लिए रोग के लक्षण दिखाई देते ही कापर आक्सीक्लोराइड के 0.3 फीसदी घोल का छिड़काव करें. जरूरत के मुताबिक 15 दिनों बाद इसे दोहराएं. सौंफ की ज्यादा सिंचाई न करें. वैसे ड्रिप विधि द्वारा सिंचाई करने से रोग कम होता है.
गोंदिया : यह रोग पुष्प छत्रकों पर चिपचिपे गोंद के रूप में दिखाई देता है, जिस से पुष्प छत्रक सिकुड़ कर सूखने लगते हैं और फसल की पैदावार में भारी नुकसान होता है. इस की रोकथाम के लिए रोगमुक्त बीज इस्तेमाल करें, दीर्घकालीन फसलचक्र अपनाएं. पोषक तत्त्व प्रबंधन और संतुलित सिंचाई का इस्तेमाल कर के इसे कम किया जा सकता है.
मोयला : इस कीड़े के आक्रमण से काफी नुकसान होता है. यह हरेपीले रंग का सूक्ष्म कोमल शरीर वाला कीड़ा है. इसे चेपा, माहू, कालिया मच्छर हानि पहुंचाता है. इस का असर फसल में फूल आने के समय शुरू होता है और दाना पकते समय तक रहता है.
शुरू में इन कीड़ों का प्रकोप गुच्छों में कुछ पौधों पर ही होता है, जो पूरी फसल में फैल जाता है. रोकथाम के लिए खेत में 12 पीले चिपचिपे ट्रेप प्रति हेक्टेयर लगाएं. नीम बीज सत (एनएसकेई) 5 फीसदी या नीम तेल 2 फीसदी या डाइमिथियोट 20 ईसी 1 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी के घोल या वर्टिसीलियम लेकैनी (जैव कीटनाशी) का छिड़काव कर के भी इसे रोका जा सकता है.
पाले से बचाव : पाला पड़ने से सौंफ काफी प्रभावित होती है. फूल आने के दौरान पाले से सौंफ को भारी नुकसान हो सकता है. जब पाला पड़ने की आशंका हो उस दौरान सिंचाई करनी चाहिए. आधी रात के बाद खेत में घुआं कर के फसल को पाले से बचाया जा सकता है. पौधों में फूल आने के बाद गंधक अम्ल 0.1 फीसदी का घोल बना कर छिड़काव कर के पौधों को पाले से बचाया जा सकता है.
कटाई : सौंफ के सभी छत्रक एकसाथ नहीं पकते, इसलिए जब पूरा दाना विकसित हो जाए और हरापन लिए हो, तब उन छत्रकों की तोड़ाई कर के उन्हें छायादार और हवादार स्थान पर सुखाना चाहिए. इस तरह 7 दिनों के बीच 4 बार छत्रकों की तोड़ाई करें.
इन्हें सुखाते समय बारबार पलटते रहें, वरना इन में फफूंद लगने की आशंका रहती है. अच्छे किस्म की चबाने के काम आने वाली लखनवी सौंफ पैदा करने के लिए जब दाने पूरी तरह विकसित दानों की तुलना में आधे हों और नाखून से कट जाएं तब छत्रकों की कटाई कर के साफ जगह पर छाया में फैला कर सुखाने चाहिए. बोआई के लिए बीज हासिल करने के लिए मुख्य छत्रकों के दाने जब पूरी तरह पक कर पीले पड़ने लगें तभी उन्हें काटना चाहिए.
उपज : सौंफ की उन्नत विधियों से खेती करने पर पूरी तरह विकसित और हरे दाने वाली सौंफ की 20 से 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उपज हासिल की जा सकती है. साधारणतया 7 से 10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर महीन किस्म की सौंफ की पैदावार ली जा सकती है.