देश की बढ़ती आबादी की खाद्यान्न जरूरतों को पूरा करने के लिए किसानों द्वारा अपने खेत में बोई गई फसल से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए अंधाधुंध रासायनिक खादों एवं उर्वरकों का प्रयोग किया जा रहा है. इसी वजह से मिट्टी में जीवाश्म की मात्रा में दिनोंदिन कमी होती जा रही है और मिट्टी ऊसर होने के कगार पर पहुंचती जा रही है.
ऐसी स्थिति से बचने के लिए फसल उत्पादन बढ़ाने के लिए ऐसे उर्वरकों का प्रयोग करना होगा, जिस से मिट्टी में उपलब्ध लाभदायक जीवाणुओं को कोई नुकसान न पहुंचे और उर्वराशक्ति भी बढे.
खेत में जीवाश्म की मात्रा को बढ़ाने और उर्वराशक्ति के विकास में जैविक एवं हरी खादों का प्रयोग बहुत ही लाभदायक होता है. हरी खाद के लिए उपयोग में लाई जाने वाली ढैंचा की फसल न केवल खेत की उर्वराशक्ति बढ़ाती है, बल्कि फसल उत्पादन को बढ़ा कर लागत में भी कमी लाती है.
ढैंचा एक ऐसी फसल है, जिसे खेत में बोआई के 55 से 60 दिन बाद खड़ी फसल को हल से पलट कर मिट्टी में दबा दिया जाता है.
ढैंचा की बोआई उसी खेत में की जाती है, जिस खेत में हरी खाद का प्रयोग करना हो, क्योंकि इस के नाजुक पौधे और पत्तियों को 55 से 60 दिन बाद जुताई कर खेत में मिला कर पानी भर दिया जाता है. थोड़ी नमी पाने के बाद ही यह सड़ना शुरू हो जाती है.
ढैंचा की हरी खाद से मिट्टी को भरपूर मात्रा में नाइट्रोजन मिलता है, जिस से खेत में पोषक तत्वों का संरक्षण होता है और मिट्टी में नाइट्रोजन के स्थिरीकरण के साथ ही क्षारीय एवं लवणीय मिट्टी की उर्वराशक्ति को भी बढाया जा सकता है.
ढैंचा में अन्य हरी खादों की अपेक्षा नाइट्रोजन की मात्रा अधिक मिलती है. अगर एक हेक्टेयर खेत में ढैंचा की खेती की जा रही है, तो 20 से 25 टन ढैंचा की जरूरत पड़ती है, जिस में 0.42 फीसदी नाइट्रोजन की मात्रा मिलती है और इस से 84-105 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन मिल जाती है.
ढैंचा की उन्नत किस्में : चूंकि ढैंचा की फसल से खाद्यान्न उत्पादन नहीं लेना होता है, फिर भी इस में खनिज पदार्थों की उपलब्धता नाइट्रोजन की अच्छी मात्रा व बोई गई फसलों पर अच्छी प्रभावशीलता को देखते हुए कुछ किस्में अनुकूल मानी गई हैं, जिस में सस्बेनिया एजिप्टिका, एस. रोस्ट्रेटा व एस. एक्यूलेटा आदि प्रमुख हैं.
हरी खाद के लिए अनुकूल मिट्टी
वैसे तो हरी खाद के लिए ढैंचा की बोआई किसी भी तरह की मिट्टी में की जा सकती है, लेकिन जलमग्न, क्षारीय, लवणीय एवं सामान्य मिट्टी में ढैंचा की फसल से अच्छी गुणवत्ता वाली हरी खाद प्राप्त होती है.
बोआई का उचित समय व बीज की मात्रा : ढैंचा की बोआई के पहले खेत की एक जुताई कर लेनी चाहिए. उस के बाद प्रति हेक्टेयर 35-50 किलोग्राम बीज का प्रयोग करना चाहिए.
ढैंचा की बोआई अप्रैल माह के अंतिम सप्ताह से ले कर जून माह के अंतिम सप्ताह तक उपयुक्त मानी जाती है. बोआई के 10 से 15 दिन के बाद हलकी सिंचाई कर लेनी चाहिए. जब फसल 20 दिन की अवस्था में पहुंच जाए, तो 25 किलोग्राम यूरिया की मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करने से फसल में नाइट्रोजन की मात्रा बनने में सहायता मिलती है.
फसल की पलटाई : जब ढैंचा की फसल की लंबाई 2 से 2.5 फीट की हो जाए, तो इसे हल द्वारा खेत में पलट देना चाहिए. इस के बाद ढैंचा की फसल का सड़ना शुरू हो जाता है, जिस से मिट्टी में जीवाश्म व कार्बनिक पदार्थों की मात्रा में तेजी से वृद्धि होती है. ढैंचा की पलटाई के तीसरे दिन से धान की रोपाई की जा सकती है.
ढैंचा की हरी खाद से लाभ : इस फसल को हरी खाद के रूप में प्रयोग करने से मिट्टी की उर्वराशक्ति को बढ़ाने के साथ ही सूक्ष्म पोषक तत्वों व सूक्ष्म जीवाणुओं को भी बढ़ाने में मदद मिलती है, जिस से मिट्टी की संरचना में सुधार होता है और बोई गई फसल की जड़ों का फैलाव बेहतर होता है.
चूंकि हरी खाद पौधों के सड़नेगलने से तैयार होती है, जो मिट्टी की जलधारण क्षमता को बढ़ा कर नमी को लंबे समय तक बनाए रखने में सहायक होती है. हरी खाद को दबाने के बाद धान की बोई गई फसल में कुछ प्रजातियों के खरपतवार न के बराबर होते हैं, जिस से खरपतवार नियंत्रण के लिए प्रयोग किए जाने वाले खरपतवारनाशी के कुप्रभाव से मिट्टी को बचाने में मदद मिलती है. ढैंचा के प्रयोग से मृदा क्षरण के प्रभाव को कम किया जा सकता है.
इस प्रकार बेहद कम लागत और कम मेहनत में अपनी मिट्टी की उर्वराशक्ति को बढ़ाने के लिए ढैंचा की फसल को हरी खाद के रूप में प्रयोग कर किसान रासायनिक उर्वरकों और होने वाले खर्चे में कमी ला सकते हैं और मिट्टी को रासायनिक उर्वरकों के प्रभाव से मुक्त कर सकते हैं.