हमारे भोजन में सागसब्जियों का खासा महत्व है. इस से हमारी सभी जरूरी तत्वों की पूर्ति होती है. रबी के मौसम में सभी प्रकार की सागसब्जियां उगाई जाती हैं. ये सब्जियां सभी प्रायः सीमित प्रक्षेत्रांे में ही लगाई जाती हैं. किसान फसल चक्र नहीं अपनाते हैं, जिस से सागसब्जियों में रोगों का प्रकोप बहुत ज्यादा मिलता है.
रबी मौसम की प्रमुख सब्जियों में जहां आलू, टमाटर, मटर एवं गोभी (फूलपत्ता व गांठगोभी), मूली, गाजर, शलगम आदि हैं, वहीं पत्तेदार साग में पालक, चुकंदर प्याज, लहसुन और शिमला मिर्च को माना जाता है. लेकिन मौडर्न जमाने में माली नजरिए से आलू, टमाटर व मटर का खासा महत्व है. सब्जियों में बीमारी की समस्या प्रधान बनती जा रही है. इन में लगने वाली प्रमुख बीमारियों के नुकसान से तत्काल नियंत्रण के लिए समुचित मात्रा में फफूंदनाशकों का उपयोग कर के रोकथाम की जा सकती है.
आलू की प्रमुख बीमारी व रोकथाम
अगेती झुलसा: आल्टनेरिया सोलेनाई नामक फफूंद से यह बीमारी होती है. इस के लक्षण फसल बोने के 3-4 हफ्ते बाद पौधों की निचली पत्तियों पर हलके भूरे रंग के छोटेछोटे बिखरे हुए धब्बों के रूप में दिखाई देते हैं, जो कि बाद में अनुकूल परिस्थितियों में पूरी पत्तियों पर फैल जाते हैं, जिस से पत्तियां खराब हो जाती हैं. इस बीमारी के लक्षण आलू में भी दिखते हैं. भूरे रंग के धब्बे आलू में भी फैल जाते हैं. इस वजह से आलू का आकार छोटा और उस की क्वालिटी में भी कमी आ जाती है.
रोकथाम: ब्लाईटौक्स-50 को 3 ग्राम प्रति लिटर पानी में घोल कर 12 से 15 दिन के अंतराल में 2 बार छिड़काव करना चाहिए अथवा मैंकोजेब (एम. 45) को 3 ग्राम प्रति लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए.
पछेती झुलसा: यह बीमारी फाइटोप्थोरा इनफेस्टेंस नामक फफूंद से होती है. जब वातावरण में नमी व आर्द्रता अधिक होती है और कई दिनों तक बरसात होती है, तब इस बीमारी का प्रकोप अधिक होता है. यह बीमारी एक सप्ताह के अंदर पौधों की हरी पत्तियों को नष्ट कर देती है. पत्तियों की निचली सतहों पर सफेद रंग के गोले बन जाते हैं, जो बाद में भूरे व काले रंग के हो जाते हैं. इस बीमारी की विशेष पहचान पत्तियों के किनारे और चोटी का भाग भूरा हो कर झुलस जाता है. इस बीमारी का असर आलू की पत्तियों, शाखाओं व कंदों पर भी देखने को मिलता है.
रोकथाम: जहां आलू की फसल में अभी भी पछेती झुलसा की बीमारी प्रकट नहीं हुई है, वहां पर मैंकोजेब, प्रोपीनेब, क्लोरोथेलौनीलयुक्त फफूंदनाशक दवा की बीमारी सुगाही किस्मों पर 0.2-0.25 फीसदी की दर से यानी 2.0-2.5 किलोग्राम दवा 1,000 लिटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें. वहीं जिन खेतों में बीमारी प्रकट हो चुकी हो, उन में किसी भी फफूंदनाशक साईमोक्सेनिल़, मैंकोजेब का 3.0 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर को 1,000 लिटर पानी की दर से अथवा डाईमेथोमार्फ, मैंकोजेब का 3.0 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर को 1,000 लिटर पानी की दर से छिड़काव करें. फफूंदनाशक का छिड़काव 10-12 दिन के अंतराल पर दोहराया जा सकता है. लेकिन बीमारी की तीव्रता के आधार पर इस अंतराल को घटाया या बढ़ाया जा सकता है. इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि एक ही फफूंदनाशक का बारबार छिड़काव न करें. खेतों में जल निकास का उचित प्रबंध करें एवं खेतों को खरपतवार से रहित रखें.
टमाटर की प्रमुख बीमारी व रोकथाम
आर्द्र गलन: टमाटर में यह बीमारी फफूंद राइजोक्टोनिया एवं पीथियम कवकों के मिलेजुले संक्रमण से होती है. इस से प्रभावित पौधे का निचला तना गल जाता है. शुरुआत में इस बीमारी के लक्षण कुछ जगहों में दिखाई पड़ते हैं और 2-3 दिन में पूरी तरह पौधों में फैल जाते हैं. टमाटर के पौधे भूरे और सूखे धब्बों के साथ पीलेहरे दिखाई पड़ते हैं. पौधे अचानक ही सूख जाते हैं और जमीन पर गिर कर सड़ जाते हैं.
रोकथाम: कैप्टान अथवा कौपर औक्सीक्लोराइड 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज दर से उपचारित कर के बोना चाहिए. इस के अलावा रोगी पौधों को खेत से निकाल कर नष्ट कर दें. खेत में जल निकास की उत्तम व्यवस्था रखें.
अगेती झुलसा: टमाटर की फसल में यह बीमारी अल्टरनेरिया सोलेनाई नामक कवक से होती है. प्रभावित पौधों की पत्तियों पर छोटे काले रंग के धब्बे दिखाई पड़ते हैं, जो बड़े हो कर गोल छल्लेनुमा धब्बों में बदल जाते हैं. फल पर धब्बे शुष्क धंसे हुए और गहरे होते हैं. इन धब्बों के बढ़ने के साथ ही पत्तियां झुलस कर गिर जाती हैं.
रोकथाम: टमाटर के बीजों को बोने से पहले केप्टान 75 फीसदी डब्ल्यूपी 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजोपचार करना चाहिए, वहीं फसल में रोग के लक्षण दिखाई देने पर मैंकोजेब 75 फीसदी डब्ल्यूपी का 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से 10-15 दिन के अंतराल पर छिडकाव करना चाहिए.
पछेती झुलसा: यह बीमारी टमाटर की फसल में फाइरोप्थोरा इनफेस्टेंस नामक कवक से होती है. शुरुआत में पत्तियों पर जलीय अनियमित आकार के धब्बे बनते हैं, जो बाद में भूरे से काले धब्बों में बदल जाते हैं. टमाटर की फसल में यह बीमारी पौधे की किसी भी अवस्था में लग सकती है. पौधे के किसी भी भाग पर भूरे, बैंगनी या काले रंग के धब्बे दिखाई पड़ते हैं. वातावरण में लगातार नमी रहने पर इस बीमारी का प्रकोप बढ़ जाता है.
रोकथाम: प्रभावित फसल पर साईमोक्सेनिल़मैंकोजेब का 3.0 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर (1,000 लिटर पानी) की दर से छिडकाव करें.
उकठा: टमाटर की फसल में यह बीमारी फ्यूजियम औक्सीस्पोरम लाइकोपर्सिकी नामक कवक से होती है. इस में रोगी पौधे की निचली पत्तियां पीली पड़ कर झुलस जाती हैं, पौधे मुरझा जाते हैं व पौधों की बढ़वार रुक जाती है. साथ ही, उस पर फल भी नहीं लगते हैं. मुख्य तने के संवहन तंतु के साथ भूरी धारियां देखी जा सकती हैं.
रोकथाम: बीजों को बोने से पहले ट्राइकोडर्मा हारजिएनम 5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें. इस के अलावा ट्राइकोडर्मा हारजिएनम 2.5 किलोग्राम को 50 किलोग्राम गोबर की खाद में मिला कर प्रति हेक्टेयर बोआई से पूर्व खेत में मिलाएं. पौध रोपने के 30 दिन बाद कार्बंडाजिम 25 फीसदी, मैंकोजेब 50 फीसदी, डब्ल्यूएस 0.2 फीसदी की दर से खेत में छिडकाव करें.
मटर की प्रमुख बीमारी व रोकथाम
उकठा: यह बीमारी फ्यूजेरियम औक्सीस्पोरम पाइसी कवक से होती है. इस बीमारी का संक्रमण फसल की शुरुआती अवस्था में उस समय होता है, जब पौधे 5-6 सप्ताह के होते हैं. बीमारी का प्रमुख लक्षण प्रौढ़ पौधों का मुरझाना है. पौधे पानी की कमी में मुरझा जाते हैं, जबकि खेत में नमी प्रर्याप्त मात्रा में होती है, तब भी पत्तियां पीली पड़ कर मुरझाने और सूखने लगती हैं व पौधा सूख जाता है. मुख्य जड़ों और तनों के आधार वाले ऊतक काले रंग के दिखाई देते हैं व जड़ों पर काले रंग की धारियां बन जाती हैं.
रोकथाम: बीजों को ट्राइकोडर्मा की 5.0 ग्राम प्रति किलोग्राम मात्रा से उपचारित कर के ही बोएं. फसल में ज्यादा सिंचाई न करें, क्योंकि रोग की उग्रता मिट्टी में ज्यादा नमी से बढ़ती है. कार्बंडाजिम (बाविस्टिन) 0.2 फीसदी फफूंदनाशी के घोल से छिडकाव करें.
चूर्णिल आसिता: यह बीमारी इरिसीफे पीसी कवक से होती है. इस बीमारी से पत्तियां सब से पहले प्रभावित होती हैं और बाद में तनों और फली पर भी असर होता है. पत्तियों की दोनों सतह पर सफेद चूर्ण धब्बे बनते हैं. पहले धब्बे छोटीछोटी रंगहीन कलंक या चित्तियों के रूप में बनते हैं. लेकिन बाद में इन के चारों ओर चूर्णी समूह फैल जाता है. रोगी पौधों में प्रकाश संश्लेषण की कमी हो जाती है, पौधे छोटे रह जाते हैं और उन पर फलियां भी कम और हलकी लगती हैं. पत्तियों के जिस स्थान पर परजीवी का कवक जाल फैला रहता है, वहां की कोशिकाएं ऊतक क्षय की वजह से मर जाती हैं.
रोकथाम: बीमारी के लक्षण दिखाई देने पर 2.5 से 3.0 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से सल्फर पाउडर बुरकना चाहिए अथवा सल्फैक्स (2.5 ग्राम प्रति लिटर पानी) का छिड़काव करें.
मृदुरोमिल आसिता: पेरोनोस्पोरा पाइसी नामक कवक से यह बीमारी होती है. इस के लक्षण तरुण पौधों पर उस समय दिखते हैं, जब उन में तीसरी और चैथी पत्तियां निकल आती हैं. सब से पहले पत्तियों पर पीलापन दिखने लगता है और बाद में भूरे धब्बे बनने लगते हैं. पहले ये धब्बे निचली पत्तियों पर बनते हैं और बाद में ऊपर वाली पत्तियों पर फैल जाते हैं. बीमारी का प्रभाव फलियों पर भी होता है. फलियों के दोनों सतह पर हलके हरे दागों के रूप में धब्बे बनते हैं.
रोकथाम: मैंकोजेब (एम. 45) की 0.25 फीसदी (2.5 ग्राम प्रति लिटर पानी) का घोल बना कर 2 बार 12-15 दिन के अंतराल पर छिड़काव करें.
– डा. रवि प्रकाश मौर्य, निदेशक, प्रसार्ड ट्रस्ट मल्हनी, भाटपार रानी देवरिया,
– डा. प्रदीप कुमार दलाल