मक्के को दाने, पापकार्न, बेबीकार्न, मीठा मक्का आदि के लिए उगाया जाता है. आजकल मीठे मक्के के भुट्टों की मांग बहुत तेजी से बढ़ रही है. खासतौर पर बारिश का मौसम शुरू होने पर लोग भुट्टों को भून कर खाते हैं, लेकिन उस समय भुट्टों की कमी होती है. यदि मक्के को बंसत के मौसम में बोया जाए, तो इस की तोड़ाई बारिश का मौसम शुरू होने से पहले कर सकते हैं.
उत्तरी भारत के मैदानी इलाकों में जहां सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो, वहां बसंत के मौसम में मक्के की बोआई की जा सकती है. इन इलाकों में आलू, मटर, तोरिया व गन्ने की फसल के बाद मक्के को आसानी से उगाया जा सकता है. किसान इस से प्राप्त भुट्टों से ज्यादा आय हासिल कर सकते हैं. बसंत के मौसम में 7-9 घंटे तक धूप होने के कारण पौधों में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया अच्छी होती है. खरपतवार, कीट, रोग आदि की समस्या भी बसंत के मौसम में कम होती है. बसंत के मौसम में बोए गए मक्के का एक लाभ यह भी है कि कटाई के बाद पौधों से हरा चारा हासिल हो जाता है.
प्रजातियों का चुनाव व बोआई का समय
बसंत के मौसम में मीठे मक्के की प्रजाति का चुनाव बहुत खास है. मीठे मक्के की प्रजातियां प्रिया, माधुरी व शुगर 75 हैं.
इन प्रजातियों में शुक्रोस की मात्रा बहुत अधिक होती है और ये खाने में बहुत मीठी होती हैं.
संकुल प्रजातियों जैसे प्रगति, कंचन, श्वेता को भी हरे भुट्टे के लिए उगा सकते हैं, पर इन में मिठास की मात्रा कम होती है.
बसंत के मौसम में बोआई देर से करने पर तापमान ज्यादा होने के कारण अंकुरण कम होता है और पौधों की बढ़वार रुक जाती है, जिस से उपज घट जाती है. जल्दी बोआई करने पर तापमान कम होता है, जिस कारण अंकुरण कम होता है और पौधों की वृद्धि भी कम होती है. लिहाजा बसंत के मौसम में बोआई सही समय पर करनी चाहिए. बसंत के मौसम में मक्के की बोआई का सही समय फरवरी के दूसरे पखवारे से ले कर मार्च के पहले हफ्ते तक होता है.
बीज की मात्रा, उपचार व बोआई की विधि
मीठे मक्के का बीज छोटा व सिकुड़ा होता है, जिस कारण इस का भार भी कम होता है. लिहाजा मीठे मक्के की बीज दर सामान्य मक्के की तुलना में काफी कम होती है. 1 हेक्टेयर क्षेत्र के लिए 10 से 12 किलोग्राम बीज काफी होता है. यदि संकुल प्रजातियों को हरे भुट्टे के लिए उगाया जा रहा हो तो 18 से 20 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से लगता है.
मिट्टी से होने वाले रोगों से बचाव के लिए बीजों को थीरम या कारर्बेंडाजिम से 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित करना चाहिए. ज्वार की प्ररोह मक्खी के प्रकोप से बचाने के लिए बीजों को 5 मिलीलीटर इमेडाक्लोप्रिड से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर के बोएं.
किसान मक्के की बोआई बिखेर कर करते हैं, पर इस से कम उपज हासिल होती है. लिहाजा बोआई लाइनों में ही करनी चाहिए. लाइनों के बीच की दूरी 60 सेंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 20 से 25 सेंटीमीटर रखनी चाहिए. इस तरह बोआई करने से 1 हेक्टेयर क्षेत्रफल से 66000 से 83000 पौधे प्राप्त हो जाते हैं. बीजों को 4 से 5 सेंटीमीटर की गहराई पर बोना चाहिए.
खरपतवार नियंत्रण
खरपतवार नियंत्रण न करने की स्थिति में उपज में काफी कमी हो जाती है. खरपतवार नियंत्रण के लिए फसल में कम से कम 2 बार निराईगुड़ाई (पहली बोआई के 25 से 30 दिनों बाद व दूसरी 45-50 दिनों बाद) करनी चाहिए. रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण के लिए बोआई के 2-3 दिनों के अंदर एट्राजीन 1.0-1.5 किलोग्राम सक्रिय तत्त्व प्रति हेक्टेयर की दर से 500-600 लीटर पानी में मिला कर खेत में छिड़कना चाहिए. एट्राजीन दवा न होने पर पैंडीमैथालीन को 3.33 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई के 2-3 दिनों में छिड़कें. छिड़काव के समय मिट्टी में सही नमी होनी चाहिए. संभव हो तो छिड़काव शाम के वक्त करना चाहिए. छिड़काव के बाद खेत में आनाजाना नहीं चाहिए वरना दवा का असर कम हो जाता है. रसायनों का इस्तेमाल करने के बाद मक्के में निराई की जरूरत नहीं होती है, क्योंकि इन रसायनों का असर काफी समय तक रहता है. यदि खेत में चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों का प्रकोप ज्यादा हो तो 2, 4 डी ईथाइल एस्टर की 2.65 किलोग्राम मात्रा या 2, 4 डी एमिन साल्ट की 860 ग्राम मात्रा को बोआई के 30-35 दिनों बाद प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें. लेकिन इन दवाओं का इस्तेमाल लाइनों के बीच में करें. मक्के के पौधों पर इन दवाओं का उलटा असर पड़ता है, लिहाजा इन के छिड़काव के समय स्प्रेयर में हुड लगाएं और सावधानी बरतें वरना लाभ के बजाय नुकसान हो सकता है.
सिंचाई
बसंत के मौसम में मक्के की सफलता काफी हद तक सिंचाई पर निर्भर करती है. उस दौरान 5-6 सिंचाई की जरूरत होती है. यदि समयसमय पर बारिश हो जाए तो सिंचाई की जरूरत कम होती है. लेकिन फसल के दौरान बारिश कम हो तो सिंचाई करनी पड़ती है. सिंचाई पूरे खेत में समान रूप से हो, इस के लिए खेत को बोआई से पहले समतल करना जरूरी है वरना सिंचाई के समय खेत के कुछ भाग सूखे रह जाते हैं और कुछ भागों में पानी भर जाता है. खेत को समतल बनाने से सिंचाई पूरे खेत में अच्छे ढंग से होती है और फसल पानी को बेहतर ढंग से इस्तेमाल करती है.
बोआई के 20-25 दिनों बाद, फिर 20-25 दिनों के अंतराल पर, पौधों के घुटने तक पहुंचने की अवस्था में, फिर नर मंजरी निकलते समय, फिर भुट्टा निकलते समय और दानों में दूध पड़ते समय सिंचाई करनी चाहिए. अगर बोआई के समय मिट्टी में नमी कम हो तो पलेवा कर के बोआई करनी चाहिए वरना बीजों के अंकुरण पर असर पड़ता है.
यदि बोआई मेंड़ों पर की जाए तो सिंचाई करने में सुविधा होती है और पानी भी कम लगता है. लिहाजा कोशिश यही करनी चाहिए कि बोआई मेंड़ों पर करें. मेंड़ों के बीच बनी नालियों का इस्तेमाल सिंचाई के साथसाथ जल निकासी के लिए भी कर सकते हैं.
यदि बोआई मेंड़ बना कर करना मुमकिन न हो तो समतल खेत में लाइनों में बोआई करने के 25-30 दिनों बाद पौधों पर दोनों ओर से मिट्टी चढ़ा दें. इस से बीच में नालियां बन जाएंगी. इन नालियों में सिंचाई करने से पौधों की बढ़वार अच्छी होती है, साथ ही साथ पानी का भी पूरा इस्तेमाल होता है. सिंचाई के समय खेत में 5-6 सेंटीमीटर (करीब 2 इंच) की गहराई तक पानी लगाएं. ज्यादा गहराई तक पानी लगाने से खेत में पानी भरने का खतरा रहता है, जिस का फसल की बढ़वार व उपज पर उलटा असर पड़ता है. यदि बोआई मेंड़ों पर की गई है, तब सिंचाई करते समय लाइनों के बीच बनी नालियों को पूरा भरने की जरूरत नहीं होती है. पानी मेंड़ की ऊंचाई के 2 तिहाई भाग तक लगाएं. सिंचाई समय से न करने से मिट्टी में नमी की कमी आ जाती है और पत्तियां मुरझा कर मुड़ने लगती है. अकसर पानी की कमी होने पर पूरा पौधा सूख जाता है.
जलनिकास
जल भराव की हालत में मक्के की फसल तबाह हो जाती है, लिहाजा खेत में जल निकास का सही इंतजाम होना चाहिए. इस के लिए खेत को ठीक से समतल कर लेना चाहिए और खेत के बीचबीच में नालियां बनानी चाहिए ताकि फालतू पानी को बाहर निकाला जा सके.
मक्के को मेंड़ों पर बोना चाहिए और मेंड़ों के बीच बनी नालियों का इस्तेमाल जल निकास के लिए करना चाहिए. मक्के को कभी भी निचले खेतों में जहां जल भराव की समस्या हो नहीं बोना चाहिए.
उर्वरकों की मात्रा
उर्वरकों का इस्तेमाल मिट्टी की जांच के आधार पर करना चाहिए. वैसे बसंत के मक्के के लिए आमतौर पर 5 से 10 टन गोबर की खाद, 120 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस, 40 किलोग्राम पोटाश व 25 किलोग्राम जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करना चाहिए. सड़ी हुई गोबर की खाद को बोआई से 10 से 15 दिन पहले खेत में डाल कर मिट्टी में मिला देना चाहिए.
फास्फोरस, पोटाश व जिंक की पूरी मात्रा बोआई के समय कूड़ों में इस्तेमाल करनी चाहिए. नाइट्रोजन की 10 फीसदी मात्रा बोआई के समय, 20 फीसदी मात्रा जब पौधों में 4 पत्तियां आ जाएं, 30 फीसदी मात्रा जब पौधे में 8 पत्तियां आ जाएं, 30 फीसदी मात्रा नरमंजरी निकलते समय और 10 फीसदी मात्रा दानों के भरने की अवस्था में इस्तेमाल करनी चाहिए. ऐसा करने से उपज में काफी इजाफा होता है.
कीट नियंत्रण
बसंत के मौसम में कीटों का प्रकोप कम होता है, फिर भी निम्नलिखित कीट फसल को नुकसान पहुंचाते हैं:
ज्वार की प्ररोह मक्खी : इस कीट का प्रकोप बसंत के मौसम में बहुत ज्यादा होता है. इस कीट की सूंडि़यां फसल की शुरुआती अवस्था में हमला करती हैं, इस कारण पौधे सूख जाते हैं. इस कीट से बचाव के लिए बोआई के समय मिट्टी में कार्बोफ्यूरान 3 जी को 15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से मिलाएं. बीजों को इमिडाक्लोप्रिड से 5 मिलीलीटर प्रति किलोग्राम बीज दर से उपचारित कर के बोएं.
तना भेदक : इस कीट की सूंडि़यां तनों में छेद कर के उन्हें अंदर ही अंदर खाती रहती हैं, जिस के कारण पूरा पौधा सूख जाता है. इस की रोकथाम के लिए जमाव के 2 से 3 हफ्ते बाद क्वीनालफास 25 ईसी का 2 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से घोल बना कर छिड़काव करें या प्रभावित पौधों में कार्बोफ्यूरान 3 जी की कणिकाएं गोफ में डालें जिस से कीट की आने वाली पीढ़ी को रोक कर अन्य स्वस्थ्य पौधों को बचाया जा सके.
गुलाबी तना बेधक : इस का लारवा गुलाबी रंग का होता है. यह तना बेधक की तरह नुकसान पहुंचाता है. इस की रोकथाम भी तना बेधक की तरह ही जाती है.
कटुआ : इस का लारवा मटमैले रंग का होता है. दिन के समय यह मिट्टी में छिपा रहता है और रात में पौधों को जड़ के पास से काट देता है. इस की रोकथाम के लिए कार्बाक्यूरान 3 फीसदी की कणिकाओं को 15-20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई के समय मिट्टी में मिला देना चाहिए.
रोग नियंत्रण
बसंत के मौसम में रोगों का प्रकोप कम होता है. कभीकभी पत्ती झुलसा और रतुआ रोग फसल में लग जाते हैं. इन रोगों की रोकथाम के लिए मैंकोजेब की 2 किलोग्राम मात्रा को 500-600 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से 3-4 बार 15-20 दिनों के अंतर पर छिड़काव करने चाहिए.
तोड़ाई
हरे भुट्टे की तोड़ाई भुट्टे निकलने के 20 से 25 दिनों बाद करनी चाहिए. इस अवस्था में दानों में दूध भरा रहता है और दाने खाने में मुलायम रहते हैं. कभी भी पके हुए दानों की अवस्था में तोड़ाई नहीं करनी चाहिए, ऐसे दाने कठोर हो जाते हैं और खाने में स्वादिष्ठ नहीं होते हैं.
उपज
आधुनिक वैज्ञानिक तरीकों को अपना कर बसंत के मौसम में भुट्टों की 150-200 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज हासिल की जा सकती है. बाजार में प्रचलित मूल्य के आधार पर प्रति हेक्टेयर 1 लाख रुपए तक का फायदा हासिल किया जा सकता है.