लहसुन कंद वाली मसाला फसल है. मध्य प्रदेश में लहसुन का रकबा 60000 हेक्टेयर है और उत्पादन 270 हजार टन है. लहसुन की खेती मंदसौर, नीमच, रतलाम, धार, व उज्जैन के साथसाथ प्रदेश के सभी जिलों में की जा सकती है. आजकल इस का प्रसंस्करण कर के पाउडर, पेस्ट व चिप्स तैयार करने की तमाम इकाइयां मध्य प्रदेश में कार्यरत हैं, जो प्रसंस्करण किए गए उत्पादों को दूसरे देशों में बेच कर अच्छा मुनाफा कमा रही है.
जलवायु : लहसुन को ठंडी जलवायु की जरूरत होती है. वैसे तो लहसुन के लिए गरमी और सर्दी दोनों ही मौसम मुनासिब होते हैं, लेकिन ज्यादा गरम और लंबे दिन इस के कंद बनने के लिए सही नहीं रहते हैं. छोटे दिन इस के कंद बनने के लिए अच्छे माने जाते हैं. इस की सफल खेती के लिए 29 से 35 डिगरी सेल्सियस तापमान मुनासिब होता है.
खेत की तैयारी : इस के लिए जल निकास वाली दोमट मिट्टी बढि़या रहती है. भारी मिट्टी में इस के कंदों की सही बढ़ोतरी नहीं हो पाती है. मिट्टी का पीएच मान 6.5 से 7.5 ठीक रहता है. 2-3 बार जुताई कर के खेत को अच्छी तरह बराबर कर के क्यारियां व सिंचाई की नालियां बना लेनी चाहिए.
अन्य किस्में : नासिक लहसुन, अगेती कुआरी, हिसार स्थानीय, जामनगर लहसुन, पूना लहसुन, मदुराई पर्वतीय व मैदानी लहसुन, वीएलजी 7 आदि स्थानीय किस्में हैं.
बोआई का समय : लहसुन की बोआई का सही समय अक्तूबर से नवंबर के बीच होता है.
बीज व बोआई : लहसुन की बोआई के लिए 5 से 6 क्विंटल कलियों बीजों की प्रति हेक्टेयर जरूरत होती है. बोआई से पहले कलियों को मैंकोजेब और कार्बांडाजिम दवा के घोल से उपचारित करना चाहिए. लहसुन की बोआई कूंड़ों में बिखेर कर या डिबलिंग तरीके से की जाती है. कलियों को 5 से 7 सेंटीमीटर की गहराई में गाड़ कर ऊपर से हलकी मिट्टी से ढक देना चाहिए. बोते समय कलियों के पतले हिस्से को ऊपर ही रखते हैं. बोते समय बीज से बीज की दूरी 8 सेंटीमीटर व कतार से कतार की दूरी 15 सेंटीमीटर रखना ठीक होता है. बड़े क्षेत्र में फसल को बोने के लिए गार्लिक प्लांटर का भी इस्तेमाल किया जा सकता है.
खाद व उर्वरक : सामान्यतौर पर प्रति हेक्टेयर 20 से 25 टन पकी गोबर या कंपोस्ट या 5 से 8 टन वर्मी कंपोस्ट, 100 किलोग्राम नाइट्रोजन 50 किलोग्राम फास्फोरस व 50 किलोग्राम पोटाश की जरूरत होती है. इस के लिए 175 किलोग्राम यूरिया, 109 किलोग्राम डाई अमोनियम फास्फेट व 83 किलोग्राम म्यूरेट औफ पोटाश की जरूरत होती है. गोबर की खाद, डीएपी व पोटाश की पूरी मात्रा और यूरिया की आधी मात्रा खेत की आखिरी तैयारी के समय खेत में मिला देनी चाहिए. बची हुई यूरिया की मात्रा को खड़ी फसल में 30 से 40 दिनों बाद छिड़काव के साथ देना चाहिए. सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की मात्रा का इस्तेमाल करने से उपज में बढ़ोत्तरी हाती है. 25 किलोग्राम जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर 3 साल में 1 बार इस्तेमाल करना चाहिए.
सिंचाई व जल निकास : बोआई के तुरंत बाद हलकी सिंचाई कर देनी चाहिए. वानस्पतिक बढ़ोतरी के समय 7 से 8 दिनों के अंतर पर और फसल पकने के समय 10 से 15 दिनों के अंतर पर सिंचाई करते रहना चाहिए पर खेत में पानी नहीं भरने देना चाहिए.
निराईगुड़ाई व खरपतवार नियंत्रण : जड़ों में हवा की सही मात्रा के लिए खुरपी या कुदाली द्वारा बोने के 25 से 30 दिनों बाद पहली निराईगुड़ाई व 45 से 50 दिनों बाद दूसरी निराईगुड़ाई करनी चाहिए.
खुदाई व लहसुन का सुखाना : जिस समय पौधों की पत्तियां पीली पड़ जाएं और सूखने लग जाएं तो सिंचाई बंद कर के खुदाई करनी चाहिए. इस के बाद गांठों को 3 से 4 दिनों तक छाया में सुखा लेते हैं. फिर 2 सेंटीमीटर छोड़ कर पत्तियों को कंदों से अलग कर लेते हैं. कंदों को भंडारण में पतली तह में रखते हैं. ध्यान रखें कि फर्श पर नमी न हो.
बढ़ोतरी नियामक का प्रयोग : लहसुन की उपज ज्यादा हो इसलिए 0.05 मिलीलीटर प्लैनोफिक्स या 500 मिग्रा साइकोसिल या 0.05 मिलीलीटर इथेफान प्रति लीटर पानी में घोल बना कर बोआई के 60 से 90 दिनों बाद छिड़काव करना सही रहता है.
कंद की खुदाई से 2 हफ्ते पहले 3 ग्राम मैलिक हाइड्रोजाइड प्रति लीटर पानी में छिड़काव करने से भंडारण के समय अंकुरण नहीं होता है व कंद 10 महीने तक बिना नुकसान के रखे जा सकते हैं.
भंडारण : अच्छी तरह से सुखाए गए लहसुन को उन की छंटाई कर के हवादार घरों में रख सकते हैं. 5 से 6 महीने भंडारण से 15 से 20 फीसदी तक का नुकसान मुख्य रूप से सूखने से होता है. पत्तियां सहित बंडल बना कर रखने से कम नुकसान होता है.
औषधीय गुण : भोजन को पचाने व सोखने में लहसुन काफी फायदेमंद है. यह रक्त कोलेस्ट्राल के गाढ़ेपन को कम करता है. इस का इस्तेमाल करने से कई बीमारियों जैसे गठिया, तपेदिक, कमजोरी, कफ व लाल आंखें हो जाना आदि से छुटकारा पाया जा सकता है.
कीटनाशी प्रभाव : लहसुन के रस में कीटनाशी गुण के कारण 10 मिलीलीटर अर्क प्रति लीटर पानी में घोल कर इस्तेमाल करने से मच्छर व घरेलू मक्खी की रोकथाम की जा सकती है.
जीवाणुनाशी प्रभाव : स्टेफाइलोकोकस आरियस नामक जीवाणु की रोकथाम लहसुन के इस्तेमाल से की जा सकती है. खाद्य पदार्थो में 2 फीसदी से ज्यादा लहसुन की मात्रा जहर पैदा करने वाले जीवाणु क्लोस्ट्रीडियम परिफ्रंजेंस से रक्षा करती है. इस के अलावा इस में अन्य कई प्रकार के हानिकाक जीवाणुओं से बचाने की कूवत होती है.
खास कीट
माहूं (माईजस परसिकी) : इस के निम्फ व वयस्क पौधे से रस चूसते हैं, जिस से पत्तियां किनारों से मुड़ जाती हैं. कीट की पंख वाली जाति लहसुन में वाइरस जनित रोग भी फैलाती है. ये चिपचिपा मधुरस पदार्थ अपने शरीर के बाहर निकालते हैं, जिस से पत्तियों के ऊपर काली फफूंद पनपती देखी जा सकती है, जिस से पौधों की भोजन बनाने की क्रिया पर असर पड़ता है.
रोकथाम : माहूं का प्रकोप होने पर पीले चिपचिपे ट्रैप का इस्तेमाल करें, जिस से माहूं ट्रैप पर चिपक कर मर जाएं. परभक्षी काक्सीनेलिड्स या सिरफिड या क्राइसोपरला कार्निया को एकत्र कर 50000-100000 अंडे या सूंड़ी प्रति हेक्टेयर की दर से छोडे़ं. जरूरतानुसार डाइमेथोएट 30 ईसी या मेटासिसटाक्स 25 ईसी 1.25-2.0 मिलीलीटर प्रति लीटर की दर से छिड़काव करना चाहिए.
लहसुन का मैगट : मैगट पौधे के तने व शल्ककंद में घुस कर नुकसान पहुंचाते हैं. बड़े शल्ककंदों में 8 से 10 मैगट एकसाथ घुस कर उसे खोखला बना देते हैं.
रोकथाम : शुरुआत में रोगी खेत पर काटाप हाइड्रोक्लोराइड 4जी की 10 किलोग्राम मात्रा को प्रति हेक्टेयर की दर से भूमि में बिखेर कर सिंचाई कर दें. बढ़ते हुए पौधों पर मिथोमिल 40 एसपी की 1.0 किलोग्राम या ट्रायजोफास 40 ईसी की 750 मिलीलीटर मात्रा को 500-600 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करने पर नए निकले हुए मैगट मर जाते हैं.
थ्रिप्स : इस कीट का हमला तापमान के बढ़ने के साथसाथ होता है व मार्च महीने में इस का हमला जयादा दिखाई देता है. यह पत्तियों से रस चूसता है, जिस से पत्तियां कमजोर हो जाती हैं और रोगी जगह पर सफेद चकत्ते पड़ जाते हैं, जिस के कारण पत्तियां मुड़ जाती हैं.
रोकथाम : लहसुन की कीट रोधी प्रजातियां उगानी चाहिए. कीट के ज्यादा प्रकोप की दशा में 150 मिलीलीटर इमिडाक्लोपिड 17.8 एसएल को 500-600 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.
माइट्स : इस कीट के प्रकोप से पत्ती का असर वाला भाग पीला हो जाता है और पत्तियां मुड़ी हुई निकलती हैं. वयस्क और शिशु कीट दोनों ही नई पत्तियों का रस चूस कर फसल को नुकसान पहुंचाते हैं. रोग के शुरू में सब से पहले पौधों की निचली पत्तियां तैलीय हो जाती हैं और बाद में पूरा पौधा तैलीय हो जाता है. रोगी पत्तियां छोटी हो जाती हैं और चमड़े की तरह दिखाई देती हैं. पत्तियां निचली तरफ से तांबे जैसी रंगत की दिखाई देती हैं. माइट का ज्यादा हमला होने से रोगी पत्तियां सूख कर गिर जाती हैं और पूरा पौधा मुरझा कर सूख जाता है.
रोकथाम : रोगी पौधों को कंद व जड़ सहित उखाड़ कर नष्ट कर दें. घुलनशील गंधक 2 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर या कैराथीन 500 मिलीलीटर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से इस्तेमाल करें. मैटासिस्टाक्स का छिड़काव भी लाभदायक होता है.
लहसुन के रोग
विगलन : इस रोग का असर कंदों पर खेतों में या भंडारगृह दोनों में हो सकता है. खेत में रोगी पौधा पीला हो जाता है और जड़ें सड़ने लगती हैं. कभीकभी रोग के लक्षण बाहर से नहीं दिखाई पड़ते हैं, लेकिन लहसुन की गर्दन के पास दबाने से कुछ शल्क मुलायम जान पड़ते हैं. बाद में ये शल्क भूरे रंग के हो जाते हैं. सूखे मौसम में शल्क धीरेधीरे सूख कर सिकुड़ जाते हैं, जिस की वजह से छिलका फट कर अलग हो जाता है.
रोकथाम : खेत को ट्राईकोडर्मा नामक जैव फफूंद की 2.5 किलोग्राम मात्रा से प्रति हेक्टेयर की दर से उपचारित करना चाहिए. गरमी के महीनों में खेत की अच्छी तरह जुताई कर के खुला छोड़ दें, जिस से कि कवक व अन्य रोग जनकों की मौत हो जाए. कंदों को बोआई से पहले 2.0 ग्राम कार्बेंडाजिम का प्रति लीटर पानी की दर से घोल बना कर उपचारित करें.
बैगनी धब्बा : इस रोग से लहसुन को काफी नुकसान होता है. इस रोग के लक्षण पत्तियों, कंदों पर उत्पन्न होते हैं, शुरू में छोटे धंसे हुए धब्बे बनते हैं, जो बाद में बड़े हो जाते हैं. धब्बे का बीच का भाग बैगनी रंग का हो जाता है. यदि आप उसे हाथों से छुएं तो काले रंग का चूर्ण हाथ में चिपका हुआ दिखाई देता है. रोगी पत्तियां झुलस कर गिर जाती हैं. रोगी पौधों से प्राप्त कंद सड़ने लगते हैं.
रोकथाम : 2-3 साल का सही फसलचक्र अपनाएं. रोग के लक्षण दिखाई देते ही मैंकोजेब की 2.0 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी की दर से घोल बना कर 2 बार छिड़काव करें.
सफेद सड़न : इस बीमारी से कलियां सड़ने लगती हैं.
रोकथाम : जमीन को ट्राईकोडर्मा नामक जैव फफूंद की 2.5 किलोग्राम मात्रा से प्रति हेक्टेयर की दर से उपचारित करना चाहिए. गरमी के महीनों में खेत की अच्छी तरह जुताई कर के खुला छोड़ दें जिस से कि कवक व अन्य रोगजनकों की मौत हो जाए. कंदों को बोआई के पहले 2.0 ग्राम कार्बेंडाजिम का प्रति लीटर पानी की दर से घोल बना कर उपचारित करें.
कंद सड़न : इस बीमारी का हमला भंडारण में होता है.
रोकथाम : इस की रोकथाम के लिए कंद को 2 फीसदी बोरिक अम्ल से उपचारित कर के भंडारण करना चाहिए. बीज के लिए यदि कंद को रखना हो तो 0.1 फीसदी मरक्यूरिक क्लोराइड से उपचारित कर के रखें. खड़ी फसल में मैंकोजेब की 2.0 ग्राम मात्रा का प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें.
फुटान : नाइट्रोजन युक्त उर्वरकों के ज्यादा इस्तेमाल से यह बीमारी फैलती है. इस के अलावा ज्यादा पानी या ज्यादा दूरी पर रोपाई की वजह से फुटान ज्यादा होती है. इस बीमारी से लहसुन कच्ची दशा में कई छोटेछोटे फुटान देता है, जिस से कलियों का भोजन पदार्थ वानस्पतिक बढ़वार में इस्तेमाल होता है.
रोकथाम : लहसुन की रोपाई कम दूरी पर करें और नाइट्रोजन व सिंचाई का इस्तेमाल ज्यादा न करें. ऐसे रोगी पौधों को देखते ही पौलीथीन की थैली से ढक कर सावधानीपूर्वक उखाड़ कर मिट्टी में दबा दें. बीजों को बोने से पहले विटावैक्स 2.5 ग्राम या टेबूकोनाजोल 1.0 ग्राम से प्रति किलोग्राम की दर से उपारित करें.