हमारे यहां तिल की खेती किसानों के लिए बहुत ही फायदेमंद है. बलुई और दोमट मिट्टी में सही नमी होने से फसल अच्छी होती है. तिलहन की खेती में पानी की तो कम जरूरत पड़ती ही है, साथ ही इस से पशुओं के लिए चारा भी मिल जाता है.

फसल को आमतौर पर छिटक कर बोया जाता है. नतीजतन, निराईगुड़ाई करने में बाधा नहीं आती. फसल से ज्यादा उपज पाने के लिए कतारों में बोनी करनी चाहिए.

छिटकवां विधि से बोने पर 1.6-3.80 किलोग्राम प्रति एकड़ बीज की जरूरत होती है. कतारों में बोने के लिए सीड ड्रिल का इस्तेमाल किया जाता है तो बीज दर घटा कर 1-1.20 किलोग्राम प्रति एकड़ बीज की जरूरत होती है.

बोने के समय बीजों का समान रूप से वितरण करने के लिए बीज को रेत (बालू), सूखी मिट्टी या अच्छी तरह से सड़ी हुई गोबर की खाद के साथ 1:20 के अनुपात में मिला कर बोना चाहिए.

मिश्रित पद्धति में तिल के बीज की दर 1 किलोग्राम प्रति एकड़ होनी चाहिए. कतार से कतार और पौधे से पौधे के बीच की दूरी 30×10 सैंटीमीटर रखते हुए तकरीबन 3 सैंटीमीटर की गहराई पर बोना चाहिए.

अच्छी तरह से फसल प्रबंधन होने पर तिल की सिंचित अवस्था में 400-480 किलोग्राम प्रति एकड़ और असिंचित अवस्था में ठीकठाक बारिश होने पर 200-250 किलोग्राम प्रति एकड़ उपज हासिल होती है.

जमीन की उत्पादकता बनाए रखने और अच्छी उपज पाने के लिए जमीन की तैयारी करते समय अंतिम बखरनी के पहले 4 टन प्रति एकड़ के हिसाब से अच्छी सड़ी गोबर की खाद को मिला देना चाहिए. फास्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा और नाइट्रोजन की आधी मात्रा के साथ मिला कर बोआई के समय दी जानी चाहिए. नाइट्रोजन की बाकी बची मात्रा पौधों में फूल निकलने के दौरान यानी बोने के 30 दिन बाद दी जा सकती है.

तिलहनी फसल होने के चलते मिट्टी में गंधक तत्त्व की उपलब्धता फसल के उत्पादन और दानों में तेल की फीसदी को प्रभावित करती है इसलिए फास्फोरस तत्त्व की पूर्ति सिंगल सुपर फास्फेट उर्वरक से करनी चाहिए.

जमीन परीक्षण में अगर जमीन में गंधक तत्त्व की कमी पाई जाती है तो वहां पर जिंक सल्फेट 10 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से डालें. जमीन में 3 साल में एक बार गंधक का जरूर इस्तेमाल करें.

तिल की पत्तियां जब पीली हो कर गिरने लगें और पत्तियां हरा रंग लिए हुए पीली हो जाएं तब समझना चाहिए कि फसल पक कर तैयार हो गई है. इस के बाद कटाई नीचे से करनी चाहिए. कटाई के बाद बंडल बना कर खेत में ही छोटेछोटे ढेर बना लेने चाहिए. जब अच्छी तरह से पौधे सूख जाएं तब डंडे या छड़ वगैरह की मदद से पौधों को पीट कर या हलका झाड़ कर बीज निकाल लेना चाहिए.

तिल के तेल की उपयोगिता

तिल का तेल 2 तरह का होता है. पहला, हलका तिल तेल जो कच्चे बीज से तैयार होता है. वहीं दूसरा, भारी तेल जो भुने हुए बीज से तैयार होता है और इस का स्वाद व सुगंध तेज होता है.

तिल के तेल का इस्तेमाल स्वादिष्ठ पकवान बनाने, औषधि यानी दवा के रूप में और सुगंधित तेल को बनाने में किया जाता है. तिल का तेल दक्षिण भारतीय राज्यों में सब से ज्यादा लोकप्रिय है जहां इस का व्यापक इस्तेमाल जैतून के तेल के इस्तेमाल के समान है. इस के तेल का इस्तेमाल अचार बनाने और कृत्रिम माखन बनाने के लिए रिफाइंड तिल के तेल का इस्तेमाल किया जाता है.

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