मटर की जैविक खेती में फसलों के उत्पादन के लिए प्राकृतिक संसाधनों जैसे गोबर की सड़ी खाद, जैव उर्वरक का प्रयोग आदि फसल के पोषण व रसायनरहित कीट, रोग और खरपतवार नियंत्रण के लिए किया जाता है. मटर की जैविक खेती में किसान कम लागत में अच्छी गुणवत्ता वाली सब्जी मटर का अधिक उत्पादन कर सकते हैं.
मटर की रासायनिक खेती में न चाहते हुए भी उत्पादकों को 8 से 10 छिड़काव कीटनाशकों के करने पड़ते हैं, जिस से मटर के फल जहरीले हो जाते हैं, जो इनसानी सेहत के लिए नुकसानदायक हैं. अंधाधुंध रसायनों के इस्तेमाल से भूमि बंजर हो रही है और पर्यावरण दूषित हो रहा है, इसलिए मटर की जैविक खेती आज की जरूरत है.
जलवायु
मटर की जैविक खेती के लिए नम और ठंडी जलवायु अधिक अच्छी रहती है, इसलिए हमारे देश में ज्यादातर मटर की फसल रबी के मौसम में लगाई जाती है, जहां पर 4 महीने ठंडा मौसम रहता है, साथ ही, ठंड धीरेधीरे गरमी की ओर बढ़ती है, इसलिए मटर की जैविक खेती के लिए यह मौसम सब से बेहतर होता है. साथ ही, उन सभी स्थानों पर जहां सालाना बारिश 60 से 80 सैंटीमीटर तक होती है, वहां मटर की फसल आसानी से उगाई जा सकती है.
मटर फसल की बढ़वार में अधिक बारिश का होना काफी नुकसानदायक होता है. बीज के अंकुरण के लिए औसत तापमान 22 डिगरी सैल्सियस व अच्छी फसल के लिए 12-20 डिगरी सैल्सियस तापमान सब से अच्छा होता है.
भूमि का चयन
मटर की खेती ज्यादातर उन सभी तरह की मिट्टियों में आसानी से की जा सकती है, जिन में अच्छी मात्रा में नमी उपलब्ध हो, परंतु फलीदार फसल के लिए अधिक अम्लीय एवं अधिक क्षारीय भूमि अच्छी नहीं होती. लेकिन जैविक पदार्थों से भरपूर बलुई दोमट या दोमट मिट्टी, मटर की खेती के लिए सब से अच्छी होती है.
भूमि का पीएच मान 6.5 से 7.5 के बीच होना अच्छा होता है. ऐसी मिट्टी, जिस में पानी का ठहराव न होता हो और पानी सोखने की क्षमता अधिक हो, वहां उत्पादन सब से अच्छा होता है.
खेत की तैयारी
मटर की जैविक खेती के लिए खेत को 2 से 3 बार गहरी जुताई कर मिट्टी को भुरभुरी बना लेना चाहिए, ताकि पौधों की बढ़वार अच्छी हो सके. गोबर की खाद 250 से 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से अंतिम जुताई के समय मिला दें.
गोबर की खाद के बदले केंचुआ खाद भी 100 से 150 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से मिला सकते हैं. बीजों के अच्छे जमाव के लिए खेत में उचित नमी होनी चाहिए. ट्राइकोडर्मा पाउडर से मिट्टी को बोआई से पहले मिला कर उपचारित कर लेना चाहिए. बोआई से पहले उपचारित खाद को खेत में फैला दें. ट्राइकोडर्मा के प्रयोग से फफूंद या कवकजनित रोगों की रोकथाम बेहतर तरीके से हो जाती है.
उन्नत किस्में
मटर की जैविक खेती के लिए उन्नत और अधिक उत्पादन देने वाली किस्मों का चयन करना चाहिए, ताकि मटर की जैविक फसल से अधिकतम उपज प्राप्त हो सके. साथ ही, यदि संभव हो, तो जैविक प्रमाणित बीज का बोआई के लिए उपयोग करें.
मटर की कुछ प्रचलित किस्में अर्केल, बोनविले, जवाहर मटर-1, जवाहर मटर-2, लिंकन, वीएल-3, पालम प्रिया, सोलन निरोग, जीसी-477, पंजाब-89, पंत मटर-155 व विवेक मटर-8 व 9 आदि हैं.
बोआई का उचित समय
मैदानी क्षेत्रों में अंगरेजी किस्म के लिए मध्य सितंबर से मध्य अक्तूबर व मध्यम देर से पकने वाली किस्म के लिए 15 अक्तूबर से 15 नवंबर तक बोआई की जा सकती है.
लेकिन बोआई के समय अधिक तापमान होने के कारण पौधे कम बढ़ते हैं और मटर में तना छेदक व उकठा रोग के होने की संभावना बढ़ जाती है.
मटर की बोआई अक्तूबर के पहले सप्ताह से ले कर नवंबर माह के अंत तक की जा सकती है. समय से पहले और समय के बाद बोआई करने से उत्पादकता एवं गुणवत्ता दोनों पर बुरा असर पड़ सकता है.
बीज का उपचार मटर की जैविक खेती के लिए स्वस्थ व रोगमुक्त प्रमाणित बीज का चयन करना चाहिए और खेत में बोआई से पहले राइजोबियम कल्चर से उपचारित करें (3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज). ऐसा करने से उपज में 10-15 फीसदी तक की बढ़ोतरी होती है.
बीज दर व अंतराल
मटर की जैविक खेती में जल्दी पकने वाली किस्मों के लिए 100 से 125 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर और मध्य व देर से पकने वाली किस्मों के लिए 70 से 90 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज की मात्रा उपयुक्त है.
अगेती किस्मों की कतार से कतार की दूरी 30 सैंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 5 से 7 सैंटीमीटर और देर से पकने वाली किस्मों के लिए कतार से कतार की दूरी 30-40 सैंटीमीटर और कतार में पौधे से पौधे की दूरी 5 से 8 सैंटीमीटर रहती है.
उपचारित बीज की बोआई सीड ड्रिल अथवा देशी हल द्वारा कतारों में की जाती है. बीज की बोआई 5-8 सैंटीमीटर की गहराई पर करें.
खाद प्रबंधन
मटर की अच्छी उपज लेने के लिए 2 टन वर्मी कंपोस्ट या 5 टन गोबर की खाद का इस्तेमाल करना चाहिए. यह खाद अच्छी प्रकार से हल चलाते समय भूमि में मिला देनी चाहिए. वर्मी कंपोस्ट को आखिरी बोआई के समय उपयोग करना चाहिए, जिस से मटर की जैविक फसल में पोषक तत्त्वों की पूर्ति संभव हो.
वर्मी कंपोस्ट 1:10 भाग पानी के साथ मिला कर कम से कम फसल बोनी के 30 दिन एवं 45 दिन के बाद स्प्रे करें.
सिंचाई व जल प्रबंधन
मटर की बिजाई से पहले एक सिंचाई और उस के बाद 10-12 दिन के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए. मटर की फसल के लिए पानी की आवश्यकता भूमि व बारिश पर निर्भर करती है, इसलिए आमतौर पर मटर की फसल के लिए 2 से 3 सिंचाइयां बहुत जरूरी होती हैं.
पहली सिंचाई बीज बोने से पहले, दूसरी सिंचाई फल आने पर और तीसरी सिंचाई जब फलियां तैयार हो रही हों. जमीन में अधिक नमी मटर की फसल के लिए नुकसानदायक होती है, जिस से जड़ सड़न रोग, पौधों का पीला पड़ना और फसल के दूसरे तत्त्वों को उपयोग में लाने में बाधा होती है.
खरपतवार नियंत्रण
मटर की जैविक खेती में 1 से 2 निराईगुड़ाई की जरूरत होती है, जो कि फसल की किस्म पर निर्भर करती है. पहली निराई व गुड़ाई जब पौधों में 3-4 पत्ते हों या बिजाई से 3 से 4 सप्ताह बाद करनी चाहिए. दूसरी, फूल आने से पहले करें. खेत की मेंड़ों पर पाए जाने वाले सालाना घास वाले और चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों की रोकथाम उन को नष्ट करने के बाद कर सकते हैं.
कीट एवं रोग नियंत्रण
एंथ्रेक्नोज
इस रोग में पत्तियों के ऊपर पीलेकाले रंग के सिकुड़े हुए धब्बे बन जाते हैं और धीरेधीरे पूरी पत्ती को ढक लेते हैं. यह बीमारी बीज के माध्यम से एक मौसम से दूसरे मौसम में फैलती है.
रोकथाम
बोने से पहले बीज को बीजामृत या गौमूत्र से उपचारित करें और रोगरोधी किस्म लगाएं.
फली छेदक
खेत में फेरोमोन ट्रैप लगाएं. टी आकार की खूंटियां (20-25 प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में लगाएं) टांगें. रस्सों की अंतर्वर्ती फसल लगाने से भी काफी फायदा होता है.
माहू
माहू कीट का प्रकोप जनवरी महीने में शुरू होता है. यह कीट पत्तियों व टहनियों से रस चूसता है.
रोकथाम
इस रोग से बचाव के लिए पीला ट्रैप लगाएं. नीम तेल को अच्छी तरह पानी के साथ मिलाने के बाद 1500 पीपीएम का 2.5 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी के साथ मिला कर स्प्रे करें.
पत्ती में सुरंग बनाने वाला कीड़ा पौधे की पत्तियों में सफेद धागे की तरह बारीक सुरंग बनाता है. अधिक प्रकोप होने से पत्तियां सूख जाती हैं. इस कीट के उपचार के लिए नीम गोल्ड 2 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी में मिला कर या नीम की निंबोली का सत (अर्क) 4 फीसदी का छिड़काव 15 दिनों के अंतराल पर करें.
जैविक प्रमाणीकरण
जैविक प्रमाणीकरण, जैविक उत्पाद की गुणवत्ता एवं सत्यता को प्रमाणित करने के लिए तीसरे पक्ष द्वारा कराया गया एक मूल्यांकन है. जैविक उत्पादों की बढ़ती मांग को ध्यान में रखते हुए सभी देशों ने जैविक खेती करने के कुछ मापदंड तैयार किए हैं.
भारत में एपीडा यानी कृषि एवं प्रसंस्कृत खाद्य उत्पादन निर्यात एवं विकास प्राधिकरण जैविक उत्पादों के मापदंड तय करती है. जैविक प्रमाणपत्र भूमि पर जैविक तरीके से की गई खेती की सत्यता को निर्धारित करते हुए उस भूमि के लिए निर्गत किया जाता है.
फलियों की तुड़ाई
मटर की जैविक फसल से अधिक पैदावार प्राप्त करने के लिए फलियों को समय पर तोड़ना बहुत आवश्यक है, अन्यथा इन की क्वालिटी पर असर पड़ता है.
फलियां तब तोड़ें, जब वे पूरी तरह दानों से भर जाएं. इस के बाद फलियों का हरा रंग घटने लगता है. आमतौर पर फलियों की तुड़ाई सुबह या शाम के समय 7 से 10 दिन के अंतराल पर करनी चाहिए.
मटर फसल की कुल 4-5 बार तुड़ाई होती है. दाल के लिए उगाई गई फसल की कटाई पूरी तरह पकने के बाद ही करनी चाहिए. दिन में तेज धूप पड़ने पर मटर की क्वालिटी पर असर पड़ता है.
पैदावार
मटर की जैविक फसल की पैदावार 70 से 90 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.
भंडारण
हरी मटर की फलियों की ग्रेडिंग व पैकिंग बहुत ध्यान से करनी चाहिए. अकसर मटर को बोरियों, बांस की टोकरियों आदि में पैक किया जाता है और मंडियों में पहुंचाया जाता है. मटर की फलियों पर अधिक नमी नहीं होनी चाहिए, वरना इस पर फफूंद जैसे रोग लग सकते हैं.