धान एक प्रमुख खाद्यान्न फसल है, जो पूरे विश्व की आधी से ज्यादा आबादी को भोजन प्रदान करती है. चावल के उत्पादन में सर्वप्रथम चीन के बाद भारत दूसरे नंबर पर आता है. भारत में धान की खेती लगभग 450 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में की जाती है. छोटी होती जोत एवं कृषि श्रमिक न मिल पाने के चलते और जैविक, अजैविक कारकों की वजह से धान की उत्पादकता में लगातार कमी आ रही है.

इन सभी समस्याओं को ध्यान में रखते हुए धान की फसल में लगने वाले प्रमुख रोग, पहचान और उन के प्रबंधन के बारे में बता रहे हैं, जिस से कि किसान धान की फसल में उस रोग की समय से पहचान कर फसल का बचाव कर सकें.

1. झोंका रोग : यह धान की फसल का मुख्य रोग है, जो एक पाईरीकुलेरिया ओराइजी नामक फफूंद से फैलता है. इस रोग के लक्षण पौधे के सभी वायवीय भागों पर दिखाई देते हैं. परंतु सामान्य रूप से पत्तियां और पुष्प गुच्छ की ग्रीवा इस रोग से अधिक प्रभावित होती हैं. प्रारंभिक लक्षण में पौधे की निचली पत्तियों पर धब्बे दिखाई देते हैं. जब ये धब्बे बड़े हो जाते हैं, तो ये धब्बे नाव अथवा आंख की जैसी आकृति के जैसे हो जाते हैं. इन धब्बों के किनारे भूरे रंग के और मध्य वाला भाग राख जैसे रंग का होता है. बाद में धब्बे आपस में मिल कर पौधे के सभी हरे भागों को ढक लेते हैं, जिस से फसल जली हुई सी प्रतीत होती है.

रोग प्रबंधन

– रोगरोधी क़िस्मों का चयन करना चाहिए.
– बीज का चयन रोगरहित फसल से करना चाहिए.
– बीज को सदैव ट्राईकोडर्मा से उपचारित कर के ही बोना चाहिए.
– फसल की कटाई के बाद खेत में रोगी पौध अवशेषों एवं ठूठों इत्यादि को एकत्र कर के नष्ट कर देना चाहिए.
– फसल में रोग नियंत्रण के लिए बायोवेल का जैविक कवकनाशी बायो ट्रूपर की 500 मिली. मात्रा का प्रति एकड़ में 120 से 150 लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए.

2. जीवाणु झुलसा या झुलसा रोग : यह रोग जेंथोमोनास ओराईजी नामक जीवाणु से फैलता है. इसे साल 1908 में जापान में सब से पहले देखा गया था.

रोग की पहचान

पौधों की चोटी अवस्था से ले कर परिपक्व अवस्था तक यह रोग कभी भी लग सकता है. इस रोग में पत्तियां नोंक अथवा किनारों से शुरू हो कर मध्य भाग तक सूखने लगती हैं. सूखे हुए किनारे अनियमित एवं टेढ़ेमेढ़े या झुलसे हुए दिखाई देते हैं. इन सूखे हुए पीले पत्तों के साथसाथ राख़ के रंग के चकत्ते भी दिखाई देते हैं. संक्रमण की उग्र अवस्था में पत्ती सूख जाती है. बालियों में दाने नहीं पड़ते हैं.

रोग प्रबंधन
– शुद्ध एवं स्वस्थ बीजों का ही प्रयोग करें.
– बीजों को बोआई से पहले 2.5 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लिन और 25 ग्राम कौपरऔक्सीक्लोराइड के घोल में 12 घंटे तक डुबोएं.
– इस रोग के लगने की अवस्था में नत्रजन का प्रयोग कम कर दें.
– जिस खेत में रोग लगा हो, उस खेत का पानी किसी दूसरे खेत में न जाने दें. साथ ही, उस खेत में सिंचाई न करें.
– रोग को और अधिक फैलने से रोकने के लिए खेत में समुचित जल निकास की व्यवस्था की जानी चाहिए.

3. धान का भूरा धब्बा रोग : यह एक बीजजनित रोग है, जो हेलिमेंथो स्पोरियम ओराईजी नामक फफूंद द्वारा फैलता है. इस रोग की वजह से साल 1943 में बंगाल में अकाल पड़ गया था.

रोग की पहचान

इस रोग में पत्तियों पर गहरे कत्थई रंग के गोल अथवा अंडाकार धब्बे बन जाते हैं. इन धब्बों के चारों तरफ पीला घेरा बन जाता है और मध्य भाग पीलापन लिए हुए कत्थई रंग का होता है और पत्तियां झुलस जाती हैं. दानों पर भी भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं. इस रोग का आक्रमण पौध अवस्था से ले कर दाने बनने की अवस्था तक होता है.

4. शीत झुलसा या आवरण झुलसा रोग : यह एक फफूंदजनित रोग है, जिस का रोग कारक राईजोक्टोनिया सोलेनाई है. पूर्व में इस रोग को अधिक महत्व का नहीं माना जाता था. अधिक पैदावार देने वाली एवं अधिक उर्वरक उपभोग करने वाली प्रजातियों के विकास से यह रोग धान के रोगों में अपना प्रमुख स्थान रखता है, जो कि उपज में 50 फीसदी तक नुकसान कर सकता है.

रोग की पहचान

इस रोग का संक्रमण नर्सरी से ही दिखना आरंभ हो जाता है, जिस से पौधे नीचे से सड़ने लगते हैं. मुख्य खेत में ये लक्षण कल्ले बनने की अंतिम अवस्था में प्रकट होते हैं. लीफ शीथ पर जल सतह के ऊपर से धब्बे बनने शुरू होते हैं. इन धब्बों की आकृति अनियमित और किनारा गहरा भूरा व बीच का भाग हलके रंग का होता है. पत्तियों पर घेरेदार धब्बे बनते हैं. अनुकूल परिस्थितियों में कई छोटेछोटे धब्बे मिल कर बड़ा धब्बा बनाते हैं. इस के कारण शीथ, तना, ध्वजा पत्ती पूरी तरह से ग्रसित हो जाती है और पौधे मर जाते हैं.

खेतों में यह रोग अगस्त एवं सितंबर माह में अधिक तीव्र दिखता है. संक्रमित पौधों में बाली कम निकलती है और दाने भी नहीं बनते हैं.

रोग प्रबंधन
– धान की रोगरोधी प्रजातियों को चुनें.
– शुद्ध एवं स्वस्थ बीजों का ही प्रयोग करें.
– बीजों को फफूंदनाशक से उपचारित कर के बोएं.
– मुख्य खेत एवं मेंड़ों को खरपतवार से मुक्त रखें.
– संतुलित उर्वरक का प्रयोग करना चाहिए.
– नाइटोजन उर्वरकों को 2 या 3 बार में देना चाहिए.
– खेतों से फसल अवशेषों को नष्ट कर देना चाहिए.
– फसल में रोग नियंत्रण के लिए बायोवेल का जैविक कवकनाशी बायो ट्रूपर की 500 मिली. मात्रा का प्रति एकड़ में 120 से 150 लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए.

5. खैरा रोग : यह रोग जस्ता की कमी के कारण होता है. इस रोग के लगने पर पौधे की निचली पत्तियां पीली पड़नी शुरू हो जाती हैं और बाद में पत्तियों पर कत्थई रंग के अनियमित धब्बे उभरने लगते हैं. रोग की उग्र अवस्था में पौधे की पत्तियां पीली पड़ कर सूखने लगती हैं. कल्ले कम निकलते हैं और पौधों की बढ़वार रुक जाती है.

रोग प्रबंधन
– धान की फसल में यह रोग न लगे, उस के लिए 10 किलोग्राम जिंक सल्फेट प्रति एकड़ की दर से रोपाई से पहले खेत की तैयारी के समय डालना चाहिए.
– रोग लगने के बाद इस की रोकथाम के लिए 2 किलोग्राम जिंक सल्फेट और 1 किलोग्राम चूना 250 से 300 लिटर पानी में घोल कर प्रति एकड़ में छिड़काव करें. आवश्यकतानुसार 10 दिन के बाद फिर से स्प्रे करें.

6. आभासी कंड या ध्वज कंड या हलदी रोग : यह रोग क्लेविसेप्स ओराईजी नामक फफूंद से फैलता है. पहले यह रोग ज्यादा महत्व का नहीं माना जाता था, बल्कि इसे किसान के लिए शुभ संकेत माना जाता था. परंतु अधिक पैदावार देने वाली एवं अधिक उर्वरक उपयोग करने वाली प्रजातियों के विकास और जलवायु परिवर्तन से अब यह रोग धान के रोगों में अपना प्रमुख स्थान रखता है, जो कि संक्रमण के अनुसार उपज में 2 फीसदी से ले कर 40 फीसदी तक नुकसान करता है.

रोग की पहचान

इस रोग के लक्षण पौधों की बालियों में केवल दानों पर ही दिखाई देते हैं. रोगजनक के विकसित हो जाने के कारण बाली में कहीं कहीं बिखरे हुए दाने बड़़े मखमल के समान चिकने हरे समूह में बदल जाते हैं, जो अनियमित रूप में गोल अंडाकार होते हैं. इन का रंग बाहरी और नारंगी पीला और मध्य में लगभग सफेद होता है. इस रोग से बाली में कुछ ही दाने प्रभावित होते हैं.

रोग प्रबंधन

– सदैव बीजोपचार कर के ही बोना चाहिए.
– खेत को खरपतवारमुक्त रखना चाहिए.
– खेत की तैयारी के वक्त खेत की सफाई कर उस की गहरी जुताई कर के तेज धूप लगने के लिए खुला छोड़ देना चाहिए.
– फसल में रोग नियंत्रण के लिए बायोवेल का जैविक कवकनाशी बायो ट्रूपर की 500 मिली. मात्रा का प्रति एकड़ में 120 से 150 लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए.

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