पार्थेनियम को अनेक नामों से जाना जाता है जैसे गाजर घास, सफेद टोपी, गंधी बूटी, चटक चांदनी, कांग्रेस घास वगैरह, पर इस का वानस्पतिक नाम पार्थेनियम हिस्टेरोफोरस है, इसलिए यह पार्थेनियम नाम से ही ज्यादा प्रचलित है.
यह एक सफेद फूलों वाली, सीधी खड़ी रहने वाली, बीज से पैदा होने वाली, एक से डेढ़ मीटर ऊंचाई वाली विदेशी घास या खरपतवार है. इस की पत्तियां किनारे से कटी होती हैं और वे गाजर या गुलदाऊदी फूल की पत्तियों जैसी होती हैं.
पार्थेनियम के फूल छोटे, आकर्षक और बहुत ज्यादा तादाद में होते हैं. प्रति पौधा तकरीबन 2,000 से ले कर 6,000 बीज और कभीकभार उस से भी ज्यादा बीज बनाता है, जो छोटे, हलके व काले रंग के होते हैं. ये फूल कई सालों तक सुषुप्तावस्था में पड़े रह सकते हैं.
माकूल हालात आने पर भी यह पौधा सालभर फलताफूलता रहता है और यह 3 से 4 महीनों में अपना जीवनचक्र पूरा कर लेता है. इस के तनों व पत्तियों पर बहुत छोटेछोटे रोएं पाए जाते हैं, जो बहुत तरह से नुकसान पहुंचाते हैं.
गाजर घास से नुकसान
* यह घास अपने छोटेछोटे हलके बीजों से, जिन की अंकुरण कूवत बहुत ज्यादा होती है, बहुत जल्दी हवा, पानी, पक्षी व जानवरों की मदद से फैलता है. इस के चलते यह फसलों के साथसाथ दूसरे वनस्पतियों को भी खत्म कर देती है.
रिसर्च में यह पाया गया है कि इस घास की जड़ों में जहरीले कैमिकलों का रिसाव होता है, जिस से दूसरी वनस्पति बहुत ज्यादा प्रभावित होती है. फसलोत्पादन में 40 फीसदी से भी ज्यादा हानि होती है और इस के नियंत्रण में होने वाले खर्च को अगर देखें, तो किसानों को बहुत कम मुनाफा होता है और कभीकभार नुकसान भी उठाना पड़ता है.
* दुनिया के तकरीबन 20 देशों में इस पार्थेनियम नामक खरपतवार का प्रकोप देखा गया है. भारत में यह खरपतवार पहली बार साल 1955 में पूना, महाराष्ट्र में दिखाई दिया था.
ऐसा माना जाता है कि अमेरिका से आयात किए गए गेहूं के साथ यह खरपतवार हमारे देश में आया था और अब भीषण प्रकोप की तरह पूरे देश में 35 मिलियन हेक्टेयर से ज्यादा क्षेत्र पर अपना कब्जा जमा चुका है. यह घास खेती के लिए ही नहीं, बल्कि जैव विविधता के लिए भी घातक बनती जा रही है.
* इस खरपतवार की जड़ों से एक तरह का तरल पदार्थ निकलता रहता है, जो मिट्टी को खराब करता है. यह पोषक तत्त्व व नमी का लगातार अवशोषण भी करता रहता है.
आमतौर पर वनस्पति या फसलों की तुलना में अवशोषण करने की क्षमता इस में ज्यादा होती है. मिट्टी धीरेधीरे अपनी उर्वरता खो कर बंजर जमीन में बदल जाती है.
* गाजर घास में पार्थेनिन नामक कैमिकल पाया जाता है, जो बहुत ही नुकसानदायक होता है. गाजर घास के संपर्क में आने से एक्जिमा, डर्मेटाइटिस, एलर्जी, बुखार, दमा जैसी कई बीमारियां हो जाती हैं. बहुत ज्यादा प्रभावित होने पर इनसान की मौत तक हो जाती है.
* बहुत ज्यादा हरा दिखने के चलते पशु इसे खाने के लिए दौड़ते हैं. कुछ पशु बहुत भूखे होने के चलते इसे खा भी लेते हैं, पर इस की खराब गंध होने के चलते ज्यादातर पशु नहीं खाते.
* जो पशु इसे खा लेते हैं, उन के मुंह में अल्सर हो जाता है. मुंह से लार निकलने लगती है और कभीकभार तो पशु मर भी जाते हैं, वहीं दुधारू पशुओं के दूध में गंध आ जाती है और एक जहरीला पदार्थ घुस जाता है, जिसे लेने से इनसानों में भी अनेक तरह की बीमारियां हो जाती हैं. इस से होने वाली दूसरी बीमारियों में त्वचा पर धब्बे, फफोले पड़ जाते हैं और आंख से पानी आने लगता है.
* कभीकभी यह घास सड़कों के मोड़ पर, पगडंडियों पर दोनों ओर उग कर गाडि़यों को चलाने में रुकावट पैदा करती है, तो कभीकभी पैदल चलने वालों के लिए परेशानी का सबब बन जाती है.
नियंत्रण के उपाय
गाजर घास के जहरीलेपन को देखते हुए उस के प्रभावी नियंत्रण के बारे में सभी को सामूहिक कोशिश करने की जरूरत है. जैसे, कोई दूसरी मुहिम चलाई जाती है, उसी तरह से पार्थेनियम मुहिम चलाने की जरूरत है.
वैसे, हर साल भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के सभी संस्थानों और उस के अधीन सभी केंद्रों व कार्यालयों को 16 से 22 अगस्त तक पार्थेनियम जागरूकता अभियान मनाने का निर्देश रहता है. इस के तहत पूरे हफ्ते अनेक कार्यक्रम किए जाते हैं. किसानों, आम नागरिकों, छात्रों को पार्थेनियम या गाजर घास के नुकसान व नियंत्रण के तरीकों के बारे में बताया जाता है.
नियंत्रण की विधियां
निवारक विधि : पार्थेनियम के पौधों को इस के वानस्पतिक बढ़वार वाली अवस्था यानी फूल आने से पहले जड़ से उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिए.
जड़ उखाड़ने से पहले हाथों में दस्ताने पहन लेने चाहिए और शरीर के संपर्क से दूर रखते हुए उखाड़ना चाहिए, पर यह किसी एक की कोशिश से नहीं होगा. इस के लिए सामूहिक अभियान चलाने की जरूरत है.
गरमियों में खेत की गहरी जुताई करनी चाहिए, ताकि इस के बीज ऊपर आ जाएं और नष्ट हों. गाजर घास की मार झेल रहे खेत की मिट्टी को दूसरे खेतों में न ले जाएं, जहां से पार्थेनियम के पौधों को उखाड़ कर नष्ट किया गया हो. उन जगहों का निरीक्षण करते रहना चाहिए, क्योंकि वहां पहले से पड़े बीजों से पौधे फिर से आ सकते हैं.
रासायनिक विधि : शाकनाशी दवाओं का इस्तेमाल बहुत ही आसानी से इसे नियंत्रित कर सकता है. इन कैमिकलों में एट्राजिन, एलाक्लोर, डाययुरान, मैट्रिब्युजिन, 2-4 डी, ग्लाइफोसेट वगैरह खास हैं.
गाजर घास के पौधे जब छोटे हों, तब अगर इन दवाओं का इस्तेमाल किया गया है तो बहुत ही कारगर होता है, वरना बाद में इस की शाखाएं कड़ी हो जाती हैं और नियंत्रण मुश्किल होता है.
गाजर घास के साथ उगी दूसरी घासों या वनस्पतियों के नियंत्रण के लिए ग्लाइफोसेट 1 से 1.5 फीसदी (10 से 15 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी) और घास कुल के पौधों को नष्ट करने के लिए मैट्रिब्युजिन 0.3 से 0.5 फीसदी (3 से 5 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी) का छिड़काव किया जा सकता है.
जैविक विधि : गाजर घास पर काबू पाने के लिए कुछ वनस्पतियां जैसे चकोड़, जंगली चौलाई, हिप्टिस वगैरह को इस्तेमाल में लाया जा सकता है. चकोड़ के बीज अक्तूबरनवंबर माह में इकट्ठा कर लें और अप्रैलमई माह में गाजर घास के क्षेत्रों में बिखेर दें. बरसात शुरू होते ही चकोड़ के पौधे निकलेंगे और जल्दी ही बढ़ कर गाजर घास को नियंत्रित करेंगे.
चकोड़ एक चौड़ी पत्ती वाली घास है. इसे साग के रूप में खाया भी जाता है. यह लैग्यूमिनस कुल का पौधा है और जमीन को फायदा भी पहुंचाता है.
गाजर घास को एक बीटल यानी कीट, जिसे मैक्सिकन बीटल (जाइगोग्रामा वाइकोलोराटा) कहा जाता है का इस्तेमाल करने से भी नियंत्रण पाया जा सकेगा. इस के पूरे पौधे यानी पत्तियों, तना व फूल को खा कर ये पौधों को सुखा कर मार देते हैं.
ये बीटल सिर्फ गाजर घास को ही खाते हैं और इन की तादाद बहुत तेजी से बढ़ती है. एक जगह पर पौधों को चट करने के बाद ये बीटल दूसरी जगह गाजर घास के पौधों पर अपना भरणपोषण करने के लिए चले जाते हैं. नतीजतन, फसल का सफाया होने लगता है. साथ ही, इस का प्रयोग कंपोस्ट बनाने में भी किया जा सकता है. इस के फूल आने से पहले उखाड़ कर कंपोस्ट पिट में डाल कर कंपोस्ट बनाया जा सकता है. वर्मी कंपोस्ट (केंचुआ खाद) बनाने में भी इसे उपयोग में ला सकते हैं.
सामूहिक अभियान चला कर ही इस खतरनाक गाजर घास को समूल नष्ट किया जा सकता है.