मटर का स्थान शीतकालीन सब्जियों में प्रमुख है. इस का इस्तेमाल आमतौर पर हरी फली की सब्जी के तौर पर जाना जाता है, वहीं साबुत मटर और दाल के लिए भी किया जाता है. मटर की खेती सब्जी और दाल के लिए उगाई जाती है.

मटर दाल की जरूरत की भरपाई के लिए पीले मटर का उत्पादन करना बहुत जरूरी है. इस का प्रयोग दाल, बेसन व छोले के रूप में अधिक किया जाता है.

आजकल मटर की डब्बाबंदी भी काफी लोकप्रिय है. इस में प्रचुर मात्रा में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, फास्फोरस, रेशा, पोटैशियम व विटामिन पाया जाता है. देशभर में इस की खेती व्यावसायिक रूप से की जाती है.

जलवायु

मटर की फसल के लिए नम व ठंडी जलवायु की जरूरत होती है, इसलिए हमारे देश में ज्यादातर जगहों पर मटर की फसल रबी सीजन में उगाई जाती है. बीज अंकुरण के लिए औसत तापमान 22 डिगरी सैल्सियस और अच्छी बढ़वार व विकास के लिए 10-18 डिगरी सैल्सियस की जरूरत होती है.

अगर फलियों के बनने के समय गरम या शुष्क मौसम हो जाए तो मटर के गुणों व उत्पादन पर बुरा असर पड़ता है. उन सभी जगहों पर जहां सालाना बारिश60-80 सैंटीमीटर तक होती है, मटर की फसल कामयाबी से उगाई जा सकती है. मटर के बढ़ोतरी के दौरान ज्यादा बारिश का होना बहुत ही नुकसानदायक होता है.

भूमि

इस की सफल खेती के लिए उचित जल निकास वाली, जीवांश पदार्थ मिट्टी सही मानी जाती है, जिस का पीएच मान 6-7.5 हो, तो ज्यादा सही होती है.

मटियार दोमट और दोमट मिट्टी मटर की खेती के लिए अति उत्तम है. बलुई दोमट मिट्टी में भी सिंचाई की सुविधा उपलब्ध होने पर मटर की खेती अच्छी तरह से की जा सकती है, वहीं कछार की जमीन में पानी सूख जाने के बाद मटर की खेती करने योग्य नहीं होती है.

प्रजातियां

फील्ड मटर : इस वर्ग की किस्मों का इस्तेमाल साबुत मटर, दाल के अलावा दाना व चारा के लिए किया जाता है. इन किस्मों में प्रमुख रूप से रचना, स्वर्ण रेखा, अपर्णा, हंस, जेपी-885, विकास, शुभ्रा, पारस, अंबिका वगैरह हैं.

गार्डन मटर : इस वर्ग की किस्मों का इस्तेमाल सब्जियों के लिए किया जाता है.

अगेती यानी जल्दी तैयार होने वाली किस्में

आर्केल : यह यूरोपियन अगेती किस्म है. इस के दाने मीठे होते हैं. इस में बोआई के 55-65 दिन बाद फलियां तोड़ने योग्य हो जाती हैं. इस की फलियां 8-10 सैंटीमीटर लंबी एकसमान होती हैं. हरी फलियों की 70-100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज मिल जाती है.

बोनविले : यह जाति अमेरिका से लाई गई है. यह मध्यम समय में तैयार होने वाली प्रजाति है. इस की फलियां बोआई के 80-85 दिन बाद तोड़ने के लिए तैयार हो जाती हैं. इस की फलियों की औसत पैदावार 130-140 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक हासिल होती है.

अर्लीबैजर : यह किस्म संयुक्तराज्य अमेरिका से लाई गई है. यह अगेती किस्म है. बोआई के 65-70 दिन बाद इस की फलियां तोड़ने के लिए तैयार हो जाती हैं. हरी फलियों की औसत उपज 80-100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

अर्लीदिसंबर : यह जाति टा.19 व अर्लीबैजर के संस्करण से तैयार की गई है. यह किस्म 55-60 दिन में तोड़ने के लिए तैयार हो जाती है. हरी फलियों की औसत उपज 80-100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

असौजी : यह एक अगेती बौनी किस्म है. इस की फलियां बोआई के 55-65 दिन बाद तोड़ी जा सकती हैं. इस की फलियां गहरे हरे रंग की 5-6 सैंटीमीटर लंबी व दोनों सिरे से नुकीली होती हैं. प्रत्येक फली में 5-6 दाने होते हैं. हरी फलियों की औसत उपज 90-100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

पंत उपहार : इस किस्म की बोआई 25 अक्तूबर से 15 नवंबर तक की जाती है और इस की फलियां बोआई से 65-75 दिन बाद तोड़ी जा सकती हैं.

जवाहर मटर : इस किस्म की फलियां बोआई से 65-75 दिन बाद तोड़ी जा सकती हैं. यह मध्यम किस्म है. फलियों की औसत लंबाई 7-8 सैंटीमीटर तक होती है और प्रत्येक फली में 5-8 बीज होते हैं. फलियों में दाने ठोस रूप में भरे होते हैं. हरी फलियों की औसत पैदावार 130-140 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

Peasमध्यम किस्में

टी-9 : इस किस्म की फलियां 65 दिन में तोड़ने लायक हो जाती हैं. यह मध्यम किस्म है.  फसल की अवधि 120 दिन है. पौधों का रंग गहरा हरा, फूल सफेद व बीज  झुर्रीदार व हलका हरापन लिए हुए सफेद होते हैं. फलियों की औसत पैदावार 80-100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

टी-56 : यह भी मध्यम अवधि की किस्म है. पौधे हलके हरे, सफेद बीज  झुर्रीदार होते हैं. हरी फलियां 75 दिन में तोड़ सकते हैं. औसत उपज प्रति हेक्टेयर 80-90 क्विंटल हरी फलियां मिल जाती हैं.

एनपी-29 : यह भी अगेती किस्म है. फलियों को 75-80 दिन बाद तोड़ सकते हैं. इस की फसल अवधि 100-110 दिन है. हरी फलियों की औसत पैदावार 100-120 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

पछेती यानी देरी से तैयार होने वाली किस्में

ये किस्में बोने के तकरीबन 100-110 दिन बाद पहली तुड़ाई करने योग्य हो जाती हैं. जैसे- आजाद मटर-2, जवाहर मटर-2 वगैरह.

बीजों का चुनाव : मटर के अच्छे उत्पादन के लिए आधार बीज व प्रामाणित बीज बोआई के लिए उपयोग में लाना चाहिए.

बीज दर : अगेती किस्मों के लिए 100 किलोग्राम व मध्यम व पछेती किस्मों के लिए 80 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर लगता है. बीज हमेशा प्रमाणित व उपचारित कर के बोना चाहिए. बीज को बोने से पहले नीम का तेल या गौमूत्र या मिट्टी के तेल से उपचारित कर लेना चाहिए.

बीज और अंतरण : अकसर मटर शुद्ध फसल या मिश्रित फसल के रूप में ली जाती है. इस की बोआई हल के पीछे कूंड़ों में या सीड ड्रिल द्वारा की जाती है. बोआई के समय 30-45 सैंटीमीटर पंक्ति से पंक्ति की दूरी रखें और 10-15 सैंटीमीटर पौध से पौध की दूरी रखें. साथ ही, 5-7 सैंटीमीटर की गहराई पर बोएं.

बोने का समय

उत्तर भारत में दाल वाली मटर की बोआई का उचित समय 15-30 अक्तूबर तक है, वहीं दूसरी ओर फलियों वाली सब्जी के लिए बोआई 20 अक्तूबर से ले कर 15 नवंबर तक करना लाभदायक है.

खाद एवं उर्वरक

मटर की फसल से अच्छी पैदावार लेने के लिए 1 एकड़ जमीन में 10-15 क्विंटल गोबर की सड़ी खाद और नीम की खली को खेत में समान रूप से बिखेर कर जुताई के समय मिला देना चाहिए. ट्राईकोडर्मा 25 किलोग्राम प्रति एकड़ के अनुपात से खेत में मिलाना चाहिए. लेकिन याद रहे कि खेत में जरूरी नमी हो.

बोआई के 15-20 दिन बाद वर्मिवाश का अच्छी तरह से छिड़काव करें, ताकि पौधा तरबतर हो जाए. निराई के बाद जीवामृत घोल का छिड़काव कर दें.

जब फसल फूल पर हो या समय हो रहा हो तो एमिनो एसिड व पोटैशियम होमोनेट की मात्रा स्प्रे द्वारा देनी चाहिए. 15 दिनबाद एमिनो एसिड पोटैशियम होमोनेट फोल्विक एसिड को मिला कर छिड़क देना चाहिए.

नमी बनी रहे, इस का ध्यान रखें. अगर कैमिकल खाद का इस्तेमाल करते हैं, तो गोबर या कंपोस्ट खाद (10-15 टन प्रति हेक्टेयर) खेत की तैयारी के समय दें.

चूंकि यह दलहनी फसल है, इसलिए इस की जड़ें नाइट्रोजन स्थिरीकरण का काम करती हैं. यही वजह है कि फसल में कम नाइट्रोजन देने की जरूरत पड़ती है.

कैमिकल खाद के रूप में 20-25 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40-50 किलोग्राम फास्फोरस और 40-50 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर बीज बोआई के समय ही कतारों में दिया जाना चाहिए.

यदि किसान उर्वरकों की इस मात्रा को यूरिया, सिंगल सुपर फास्फेट व म्यूरेट औफ पोटाश के माध्यम से देना चाहता है, तो एक बोरी यूरिया, 5 बोरी सिंगल सुपर फास्फेट व डेढ़ बोरी म्यूरेट औफ पोटाश प्रति हेक्टेयर सही रहता है.

सिंचाई

मटर की देशी व उन्नतशील जातियों में 2 सिंचाई की जरूरत पड़ती है. सर्दियों में बारिश हो जाने पर दूसरी सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती.

पहली सिंचाई फूल निकलते समय बोने के 45 दिन बाद और दूसरी सिंचाई जरूरत पड़ने पर फली बनते समय बीज बोने के 60 दिन बाद करें. साधारणतया मटर को कम पानी की जरूरत होती है. सिंचाई हमेशा हलकी करनी चाहिए.

खरपतवार

मटर की फसल के प्रमुख खरपतवार हैं- बथुआ, गजरी, चटरीमटरी, सैजी, अंकारी. इन सभी खरपतवारों को निराईगुड़ाई कर के फसल से बाहर निकाला जा सकता है.

फसल बोने के 35-40 दिन तक फसल को खरपतवारों से बचाना जरूरी है. बोने के 30-35 दिन बाद जरूरत के मुताबिक 1 या 2 निराई करनी चाहिए.

कीट नियंत्रण

तनाछेदक : यह काले रंग की मक्खी होती है. इस की गिडारें फसल की शुरुआती अवस्था में छेद कर अंदर से खाती हैं. इस से पौधे सूख जाते हैं.

रोकथाम : 10 लिटर गौमूत्र रखना चाहिए. इस में 2.5 किलोग्राम नीम की पत्ती को छोड़ कर इसे 15 दिनों तक गौमूत्र में सड़ने दें. 15 दिन बाद इस गौमूत्र को छान लें, फिर छिड़काव करें.

फलीछेदक : देर से बोई गई फसल में इस कीट का हमला ज्यादा होता है. इस कीट की सूंडि़यां फली में छेद कर अंदर तक घुस जाती हैं और दानों को खाती रहती हैं.

रोकथाम : मदार की 5 किलोग्राम पत्ती 15 लिटर गौमूत्र में उबालें. 7.5 लिटर मात्रा बाकी रहने पर छान लें, फिर फसल में तरबतर कर छिड़काव करें.

माहू : इस कीट का प्रकोप जनवरी माह के बाद अकसर होता है.

रोकथाम : 10 लिटर गौमूत्र रखना चाहिए. इस में ढाई किलोग्राम नीम की पत्ती को छोड़ कर इसे 15 दिनों तक गौमूत्र में सड़ने दें. 15 दिन बाद इस गौमूत्र को छान लें, फिर छिड़काव करें.

रोग नियंत्रण

उकठा : इस रोग की शुरुआती अवस्था में पौधों की पत्तियां नीचे से ऊपर की ओर पीली पड़ने लगती हैं और पूरा पौधा सूख जाता है. यह बीजजनित रोग है. इस रोग में फलियां बनती नहीं हैं.

रोकथाम : जिस खेत में एक बार मटर में इस बीमारी का प्रकोप हुआ हो, उस खेत में 3-4  साल तक यह फसल नहीं बोनी चाहिए. तंबाकू की 2.5 किलोग्राम पत्तियां, 2.5 किलोग्राम आक या आंकड़ा और 5 किलोग्राम धतूरे की पत्तियों  को 10 लिटर गौमूत्र में उबालें और 5 लिटर मात्रा बाकी रहने पर छान लें, फिर फसल में अच्छी तरह छिड़काव करें.

झुलसा (आल्टरनेरिया ब्लाइट ) : इस का प्रकोप भी पत्तियों पर होता है. सब से पहले नीचे की पत्तियों पर किनारे से भूरे रंग के धब्बे बनते हैं.

रोकथाम : मदार की 5 किलोग्राम पत्ती 15 लिटर गौमूत्र में उबालें. 7.5 लिटर मात्रा बाकी रहने पर छान लें, फिर फसल में तरबतर छिड़काव करें.

उपज

हरी फलियों की पैदावार 80-120 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक मिल जाती है. फलियां तोड़ने के बाद कुल 150 क्विंटल तक हरा चारा मिल जाता है.

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