दालों को प्रोटीन का सब से अच्छा जरीया माना जाता है. इसीलिए रोजाना खाने में दालों का सब से ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है. भारत दलहनी फसलों के उत्पादन के मामले में दुनिया में पहले स्थान पर होने के बावजूद प्रति हेक्टेयर उत्पादन के लिहाज से पिछड़ा हुआ है, जिस के चलते दलहन का उत्पादन देश में लगातार घट रहा है.
देश में दलहनी फसलों की खेती करीब 2 करोड़ 38 लाख हेक्टेयर रकबे में की जाती है, जिस से करीब 6.5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर का औसत उत्पादन ही हासिल होता है, जो बेहद कम माना जा सकता है. दलहनी फसलों के कम उत्पादन के कारणों में उन्नत कृषि तकनीकी की कमी, उन्नतशील बीजों व उर्वरकों की कमी और फसल पर कीड़ों व रोगों का प्रकोप खास है. दलहनी फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीड़ों में छेदक, फली मक्खी, पत्ती लपेटक वीटल वगैरह खास हैं.
कृषि विज्ञान केंद्र बंजरिया (बस्ती) में विशेषज्ञ राघवेंद्र विक्रम सिंह बताते हैं कि दलहनी फसलों में अरहर की खेती देश के कई राज्यों में प्रमुख स्थान रखती है. वर्तमान में अरहर का औसत उत्पादन 8.5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है, जो बेहद कम है. इस की सब से खास वजह कीड़ों व रोगों का प्रकोप है. ऐसे में अगर समय रहते कीड़ों व रोगों को काबू कर लिया जाए तो उत्पादन 2 गुना किया जा सकता है.
राघवेंद्र विक्रम सिंह के मुताबिक दिसंबर से फरवरी तक का समय अगेती व पछेती फसलों में फली बनने व फूल आने का होता है. इस अवस्था में अरहर की फसल पर कीड़ों का सब से ज्यादा प्रकोप पाया जाता है, जिस के चलते कभीकभी अरहर की पूरी फसल खराब हो जाती है. ऐसी हालत में हमें अरहर में लगने वाले कीड़ों की पहचान कर के उन की रोकथाम के तरीके अपनाने चाहिए.
खास कीड़े फली छेदक कीट : कृषि विशेषज्ञ
डा. प्रेम शंकर के मुताबिक जहां पर भी दलहनी फसलों की खेती की जाती है, वहां इस कीट का हमला ज्यादा होता है. यह कीट मध्यम आकार व सलेटीभूरे रंग का होता है. इस कीट की लार्वा अवस्था ही ज्यादा खतरनाक होती है. कीट की वयस्क मादा मिट्टी के ऊपर वाले पौधों के किसी भी भाग में अंडे देती है. अंडे से निकल कर लार्वा फली के ऊपर जालीनुमा आवरण बनाता है, जिस के नीचे से फलियों में घुस कर अंदर ही अंदर दानों को खाता रहता है. इस कीड़े की रोकथाम से पहले इस का सर्वेक्षण करना जरूरी हो जाता है. इस के लिए 5-6 और रोकथाम के लिए 15-20 फेरोमेन ट्रैप प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करने चाहिए.
फली मक्खी : इस मक्खी की मादा फली में छेद कर के अंडे देती है. 1 हफ्ते के भीतर अंडे फूटने पर इस का शिशु कीट बाहर आ जाता है, जो खुद को रेशमी धागों से चिपका लेता है और उसे ही खुरचखुरच कर खाता है. यही मैगट यानी शिशु पत्तियों और फलियों में सुरंग बना कर उन्हें खाना शुरू कर देता है और फिर उस सुरंग में मल भर देता है. बाद में यही कीट फली के अंदर घुस कर बीजों को खाना शुरू कर देता है. जब यह कीट पूरी विकसित अवस्था में पहुंच जाता है, तो बीज से बाहर निकल कर फली में एक छेद के पास ही प्यूपा में बदल जाता है, जो तने में छेद कर के उसे भी नुकसान पहुंचाता है.
पत्ती लपेटक कीट : इस कीट को युकोस्मा क्रिटिका के नाम से जाना जाता है. इस की मादा पत्तियों की निचली सतह में अंडे देती है और 1 हफ्ते बाद जब अंडे फूट जाते हैं, तो उन से निकली सूंडि़यां पौधों की ऊपरी पत्तियों को लपेट कर सफेद जाला बुनती हैं और फिर उसी में छिप कर पत्तियों को खाती हैं. पत्तियों को खाने के बाद ये सूंडि़यां फूलों और फलियों को नुकसान पहुंचाती हैं.
पलग मौथ : इस की मादा अरहर की फसल के कोमल भागों जैसे छोटी पत्तियों, छोटी फलियों व कलियों पर 1-1 कर के अंडे देती है. इन अंडों से 5-7 दिनों में शिशु निकलते हैं, जिन का रंग हराभूरा होता है. शिशु शुरू में पत्तियों को खाता है और बाद में फली को छेद कर बीजों को खा जाता है. पूरी तरह विकसित कीट फली से बाहर निकल कर प्यूपा में बदल जाता है. यह प्यूपा फली की सतह पर पाया जाता है.
बीटल : यह कीट अरहर की कलियों, फूलों व फलियों को खा कर नष्ट कर देता है, जिस से फसल उत्पादन तेजी से गिर जाता है.
डा. प्रेम शंकर का कहना है कि इन कीटों का हमला जैसे ही दिखाई पड़े, किसानों को शुरुआती अवस्था में ही सचेत हो जाना चाहिए और समय रहते इन कीटों की रोकथाम के उपाय करने चाहिए. इन कीटों की रोकथाम जैविक और रासायनिक दोनों विधियों से की जा सकती है. दोनों विधियों में 2 या 3 छिड़काव करने से इन कीड़ों के प्रकोप से अरहर की फसल को बचाया जा सकता है. पहला छिड़काव फसल में 50 फीसदी फूल निकलने पर और दूसरा छिड़काव 15 दिनों के बाद करना चाहिए. जरूरत होने पर तीसरा छिड़काव 15 दिनों के बाद करना लाभदायक होता है.
जैविक विधि: डा. प्रेम शंकर के मुताबिक अरहर में लगने वाले कीटों की अगर जैविक विधि से रोकथाम की जाए तो इस से फसल को कीटों के असर से पूरी तरह से बचाया जा सकता है और इस का सेहत पर भी कोई खराब असर नहीं पड़ता है. जैविक कीटनाशी के रूप में एनपीवी 250-300 एलई की 1 लीटर मात्रा 1000 लीटर पानी में घोल कर 1 हेक्टेयर फसल में शाम के समय छिड़काव करना चाहिए. यह एक प्रकार का वायरस न्यूक्लियर होता है, जो फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को बीमार कर के नष्ट कर देता है.
इस के अलावा इन कीटों को नष्ट करने के लिए बैक्टीरियल जीवाणुओं का छिड़काव भी किया जा सकता है. इस के लिए बेसिलस थियुरेजेंसिस की 1 लीटर मात्रा 800-1000 लीटर पानी में मिला कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए. ये बैक्टीरियल जीवाणु फसल में लगे कीटों पर हमला कर के उन्हें नष्ट कर देते हैं.
नीमतेल (नीमारीन) : अरहर की फसल में लगने वाले कीड़ों की रोकथाम के लिए नीम का तेल भी बेहद कारगर रहता है. इस के लिए नीम के तेल की 5 मिलीलीटर मात्रा प्रति लीटर पानी में घोल कर 10-10 दिनों के अंतर पर फलियां बनते ही छिड़काव करना चाहिए.
रासायनिक विधि : डा. प्रेम शंकर के मुताबिक फली मक्खी की रोकथाम के लिए कार्बोसल्फान की 1 मिलीलीटर मात्रा प्रति लीटर पानी में मिला कर 1 हेक्टेयर खेत के लिए 800 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए.
इस के अलावा इंडोक्साकार्ब कीटनाशी की आधा मिलीलीटर मात्रा प्रति लीटर पानी के हिसाब से घोल बना कर छिड़काव करें. 1 हेक्टेयर फसल के लिए इंडोक्साकार्ब कीटनाशी दवा की 325 मिलीलीटर मात्रा की जरूरत पड़ती है, जिसे 700-800 लीटर पानी में घोल कर 15 दिनों के अंतराल पर 2 बार छिड़काव करना जरूरी होता है.
फली मक्खी का प्रकोप दिखाई पड़ने पर पहला छिड़काव एसीटामिप्रिड 20 फीसदी की एसपी का करें. इसे धानप्रीत कीटनाशी के नाम से जाना जाता है.
इस की 250 ग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से 800-1000 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें. दूसरा छिड़काव 15 दिनों के अंतराल पर करना जरूरी होता है.
किसानों को अरहर की फसल से भरपूर पैदावार लेने के लिए कीड़ों के प्रकोप से बचाव के लिए सजग रहना चाहिए. जैसे ही अरहर की फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीड़ों का प्रकोप दिखाई पड़े, तो जितनी जल्दी हो सके उन की रोकथाम के उपायों का इस्तेमाल करना चाहिए.