हरित क्रांति की शुरुआत के बाद से देश की बेतहाशा बढ़ रही आबादी की जरूरतों को पूरा करने के लिए खेतीबारी में उर्वरकों के इस्तेमाल को भारी बढ़ावा मिला है और हम ने अपने लक्ष्यों को पूरा किया है, खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भरता हासिल की है. लेकिन सघन खेती प्रणाली के खतरे बड़े चुनौती भरे हैं, क्योंकि इन से पारिस्थितिकीय संतुलन पर भारी असर पड़ता है.

इसी बात को ध्यान में रखते हुए और्गेनिक या जैविक खेती पर आधारित प्रणाली की बात सोची गई, जिस में रासायनिक उर्वरकों के बजाय कार्बनिक पदार्थों के सड़नेगलने से हासिल खाद का इस्तेमाल किया जाता है.

जैविक पदार्थों से बनी खाद के इस्तेमाल पर आधारित यह प्रणाली हमारे समाज में काफी समय से ही प्रचलित रही है. जैविक खेती में परंपरा और विज्ञान का समन्वय कर के फायदा उठाया जाता है. नतीजे के रूप में कहा जा सकता है कि जैविक खेती कृषि उत्पादन में स्थिरता बढ़ाने का एक सही उपाय है.

देश के 30 करोड़ किसान कर्जों के जाल में फंस कर बदहाली के शिकार हैं. तकरीबन 8 करोड़ किसान खेती छोड़ कर शहरों में मजदूरी कर रहे हैं. किसानों की इस हालत की वजहों में एक प्रमुख वजह है खेती में बढ़ती लागत और घटता मुनाफा. किसान अपने खेत में जो मेहनत अथवा पूंजी लगाता है, उतना उत्पादन उसे नहीं मिलता और जो मिलता है, उस का उसे उचित मूल्य नहीं मिलता.

FARMINGजहां कुछ जगहों पर ऐसे हालात हैं, वहीं कुछ जागरूक किसान विकल्प तलाशने में लगे हैं और यह महसूस कर रहे हैं कि खेती में आत्मनिर्भरता ही एक ऐसा रास्ता है, जो उन्हें ऐसी समस्याओं से बाहर ला कर भरपेट भोजन मुहैया करा सकता है.

यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि 60 के दशक की हरित क्रांति ने यद्यपि देश को खाद्यान्न की दिशा में आत्मनिर्भर बनाया, लेकिन इस के दूसरे पहलू पर यदि गौर करें तो खेती में अंधाधुंध उर्वरकों के इस्तेमाल की हकीकत से पानी के लैवल में गिरावट के साथ मिट्टी की उर्वरता भी प्रभावित हुई है और एक समय बाद खाद्यान्न उत्पादन न केवल स्थिर हो गया, बल्कि प्रदूषण में भी बढ़ोतरी हुई है और स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा पैदा हुआ है, जिस से सोना उगलने वाली धरती मरुस्थल का रूप धारण करती नजर आ रही है.

मिट्टी में सैकड़ों किस्म के जीवजंतु व जीवाणु होते हैं, जो खेती के लिए हानिकारक कीटों को खा जाते हैं. नतीजतन, उत्पादन प्रभावित होता है, इसलिए खेती में रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल में सावधानी बरतते हुए जैविक खेती पर ध्यान देना चाहिए. जैविक खेती में हम कंपोस्ट खाद के अलावा नाडेयप, कंपोस्ट खाद, केंचुआ खाद, नीम खली, लेमनग्रास व फसल अवशेषों को शामिल करते हैं.

जैविक खाद के इस्तेमाल से न केवल मिट्टी की उर्वरता बढ़ती है, बल्कि उस में नमी की वजह से काफी हद तक सूखे की समस्या से भी नजात मिलती है. जैविक खाद के इस्तेमाल से भूजल धारण क्षमता बढ़ती है. इस के साथ ही जैविक कीटनाशक से मित्र कीट भी संरक्षित होते हैं. इस प्रकार घटते भूजल स्तर के लिए जैविक खेती एक फायदेमंद साबित होगी.

एक अनुमान के अनुसार, किसान अपनी उत्पादित फसल का 25-40 प्रतिशत ही उपयोग कर पाते हैं. भारत में हर साल 600 मिलियन टन कृषि अवशेष पैदा होता है. इस में ज्यादातर अवशेषों को किसान अगली फसल के लिए खेत को तैयार करने के लिए खेत में ही जला देते हैं, जबकि इस का उपयोग जैविक खाद को तैयार करने के लिए आसानी से किया जा सकता है.

पुराने समय में किसान परंपरागत रूप से खेती में स्थानीय तकनीकों व संसाधनों का इस्तेमाल करते थे, जिस में स्थानीय बीज, वर्षा आधारित खेती व जैविक खाद है, जिस से सड़ेगले पत्ते व घासों का उपयोग कर बनाने में भारतीय किसान माहिर थे.

पारंपरिक खाद के प्रयोग से फसल अधिक गुणवत्ता वाली होती थी. साथ ही, आसपास का वातावरण भी साफ रहता था. 1-2 दशक पहले तक आम काश्तकार खेती से इतना उत्पादन कर लेता था कि परिवार का गुजरबसर हो जाता था और अपनी आर्थिक जरूरतें भी पूरी हो जाती थीं, लेकिन आधुनिकता व बाजारवाद की आंधी ने किसानों का रुख जैविक खाद से रासायनिक खादों की तरफ मोड़ दिया. रासायनिक खाद, बीज व कीटनाशकों के इस्तेमाल से उत्पादन में बढ़ोतरी हुई, लेकिन एक सीमा के बाद उस पर बढ़ती लागत से किसानों पर आर्थिक दबाव पड़ने लगा.

आज यह बात पूरी तरह साबित हो चुकी है कि स्वयं पर निर्भर जैविक खेती से सालभर की खाद्य सुरक्षा तय की जा सकती है और अनेक प्राकृतिक प्रकोपों के बावजूद भुखमरी की हालत से बहुत हद तक बचा जा सकता है.

इन तथ्यों पर अमल कर के बहुत से किसानों ने आज अपने जीवन में क्रांतिकारी बदलाव किए हैं, जो पहले धान व गेहूं उगा कर जीवनयापन की दूसरी सभी जरूरतों के लिए बाजार पर निर्भर रहते थे, पर आज दलहन, तिलहन, मसाले, चारा, जलौनी, सागसब्जी, फल आदि अनेक जरूरी चीजें उगा कर भोजन के साथसाथ अच्छा पैसा भी कमा रहे हैं.

जैविक खेती से स्वस्थ आहार

जैविक खेती प्रणाली में दूसरे फायदों के अलावा स्वास्थ्य की दृष्टि से उपयुक्त आहार के उत्पादन की गारंटी दी जाती है. पारंपरिक कृषि प्रणाली में खाद और पर्यावरण संबंधी मुद्दों को ले कर बढ़ती चिंता ने पर्यावरण की दृष्टि से अनुकूल तौरतरीकों वाली कृषि प्रणाली के विकास को बढ़ावा दिया है, जिसे आमतौर पर और्गेनिक फार्मिंग यानी जैविक खेती कहा

जाता है. इस में जैव खेती, प्राकृतिक खेती, पुनरोत्पादक खेती, क्रमिक खेती, परमाकल्चर, कम आधान वाली सतत खेती शामिल हैं.

जैविक खेती के घटक

फसल और मृदा प्रबंधन : इस प्रणाली का उद्देश्य मिट्टी के उपजाऊपन को दीर्घकालीन आधार पर बनाए रखने के लिए उस में जैविक पदार्थों के स्तर में वृद्धि करना है.

इस घटक के तहत फसल की विभिन्न किस्मों में से चयन, समय पर बोआई करने, फसलों की अदलाबदली कर के बोआई करने, हरी खाद के उपयोग और लैग्यूम जैसी फसलों को साथ बोने पर जोर दिया जाता है.

पौष्टिक तत्त्वों का प्रबंधन : इस में जैविक पदार्थों जैसे पशुओं के गोबर की खाद के उपयोग, कंपोस्ट, वर्मी कंपोस्ट, फसल अपशिष्ट के उपयोग, हरी खाद और जमीन की उत्पादकता बढ़ाने के लिए कवर क्रौप को उगाया जाता है.

पोषक तत्त्वों के पुनर्चक्रण के महत्त्व को ध्यान में रखते हुए फसलों की अदलाबदली कर के बोआई और जैव उर्वरकों को भी शामिल किया जाता है.

पादप संरक्षण : कीड़ेमकोड़ों, बीमारी फैलाने वाले पैथोजीनों और दूसरी महामारियों को नियंत्रित करने के लिए मुख्य रूप से फसलों की अदलाबदली कर के बोआई, प्राकृतिक कीट नियंत्रकों, स्थानीय किस्मों, विविधता और जमीन की जोत का सहारा लिया जाता है. इस के बाद वानस्पतिक, तापीय और रासायनिक विकल्पों का इस्तेमाल सीमित स्थितियों में अंतिम उपाय के तौर पर किया जाता है.

पशुधन प्रबंधन : मवेशियों को पालने के लिए उन के उद्विकास संबंधी अनुकूलन, व्यवहार संबंधी आवश्यकताओं और उन के कल्याण संबंधी मुद्दों जैसे पोषाहार, आश्रय, प्रजनन आदि पर पूरा ध्यान दिया जाता है.

मृदा और जल संरक्षण : बारिश के फालतू पानी से जमीन का कटाव होता है. इसे कंटूर खेती, कंटूर बांधों के निर्माण, सीढ़ीदार खेती, पानी के बहाव के मार्ग में घास उगाने जैसे उपायों से रोका जा सकता है.

शुष्क इलाकों में क्यारियों के बीच बारिश के पानी को जमा कर के, ब्राड बैड और फरो प्रणाली, भूखंडों के बीच वर्षा जलसंचय और स्कूपिंग जैसे उपाय अपना कर पानी का संरक्षण किया जा सकता है.

खेती में फसलों के चयन का बड़ा ही महत्त्व है, क्योंकि बहुत सी फसलें कई तरह से उपयोग में लाई जा सकती हैं. जैसे मोथबीन की फसलों में सूखे का प्रतिरोध करने की क्षमता होती है, वहीं इन्हें चारे के तौर पर भी इस्तेमाल किया जा सकता है.

शुष्क और अर्धशुष्क क्षेत्रों में मोथबीन की फसलें उगा कर ज्यादा से ज्यादा फायदा लिया जा सकता है. इन की खेती से मिट्टी के कटाव को रोकने और जमीन में पोषक तत्त्वों के पुनर्चक्रण में भी मदद मिलती है.

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