पिछले कुछ सालों से मटर का रकबा और पैदावार कम हो रही है. इस की खास वजह है उन्नत तरीके से खेती न करना. इस तरह की खेती कर के 20-25 फीसदी मटर की उत्पादकता में इजाफा किया जा सकता है.
मिट्टी व आबोहवा
दोमट या बलुई दोमट मिट्टी और कार्बनिक जीवाश्म से भरपूर मिट्टी इस की खेती के लिए मुनासिब रहती है. पानी के निकलने का बढि़या इंतजाम होना चाहिए और इस का पीएच मान 6 से 7 के बीच होना चाहिए. इस की खेती के लिए ठंडी व शुष्क जलवायु सही होती है. फसल की अच्छी बढ़वार के लिए 15 से 25 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान की जरूरत होती है.
जमीन की तैयारी
पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें और बाद की 2 से 3 जुताइयां देशी हल या हैरो चला कर करें. उस के बाद पाटा चलाएं ताकि खेत में बिखरे ढेले टूट जाएं व मिट्टी अच्छी तरह से भुरभुरी हो जाए.
दीमक व दूसरी जमीनी कीटों की समस्या होने पर इन की रोकथाम के लिए बोआई से पहले आखिरी जुताई के समय मिथाइल पैराथियान 2 फीसदी चूर्ण या क्विनालफास 10.5 फीसदी चूर्ण 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से जमीन में मिलाना चाहिए.
सब्जी मटर की किस्में
अगेती किस्में : ये किस्में बोने के तकरीबन 60-65 दिन बाद पहली तुड़ाई के लायक हो जाती हैं जैसे असोजी अर्केल, जवाहर मटर-3 और 4, पंजाब अगेती, पूसा प्रगति, काशी उदय, काशी नंदिनी, काशी मुक्ति, आजाद पी-3 और वीएल-7.
मध्यम और पछेती किस्में : ये किस्में बोने के तकरीबन 80-90 दिन बाद पहली तुड़ाई के लायक हो जाती हैं जैसे बोनविले, वीएल 3, पंत उपहार, जवाहर मटर 1 और 2, काशी, शक्ति, पालम, प्रिया व लिंकन.
पछेती किस्में : ये किस्में बोने के तकरीबन 100-110 दिन बाद पहली तुड़ाई के लायक हो जाती हैं जैसे आजाद मटर, जवाहर मटर 2 वगैरह.
बीज की मात्रा व बोआई
बोआई के लिए मध्य अक्तूबर से मध्य नवंबर का समय सही होता है. बीज की दर अगेती किस्मों के लिए 100 से 120 किलोग्राम जबकि मध्यम व पछेती किस्मों के लिए 80 से 90 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की जरूरत होती है.
बीजों को बोने से पहले ट्राइकोडर्मा जैविक फफूंदीनाशक 6 ग्राम या फफूंदीनाशक कार्बंडाजिम 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें. इस के बाद राइजोबियम कल्चर 5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करने से उपज में इजाफा होता है.
बोआई की विधि
मटर की बोआई ज्यादातर हल के पीछे कूंड़ों में की जाती है. अगेती किस्मों के बीज की बोआई के लिए कतार से कतार के बीच की दूरी 30 सैंटीमीटर होनी चाहिए जबकि मध्यम और पछेती किस्मों के लिए 45 सैंटीमीटर और पौधे से पौधे के बीच की दूरी 8 से 10 सैंटीमीटर के बीच व गहराई 4-5 सैंटीमीटर रखनी चाहिए. बोआई से पहले खेत में पलेवा कर बोने से बीजों का उम्दा जमाव होता है.
खाद और उर्वरक
मिट्टी जांच के मुताबिक ही उर्वरक का इस्तेमाल फायदेमंद होगा. खेत की तैयारी के समय 200 से 250 क्विंटल प्रति हेक्टेयर गोबर की सड़ी हुई खाद अच्छी तरह से मिला लें, नाइट्रोजन 25 किलोग्राम की एकतिहाई मात्रा, फास्फोरस 40 किलोग्राम और पोटाश 50 किलोग्राम की पूरी मात्रा प्रति हेक्टेयर आखिरी जुताई के समय देनी चाहिए.
बची हुई नाइट्रोजन की मात्रा 2 भागों में बोआई के 25 से 30 दिन बाद और 40 से 45 दिन बाद निराईगुड़ाई करते समय दें.
सिंचाई
मटर की फसल के लिए सिंचाई की ज्यादा जरूरत नहीं पड़ती है, फिर भी 10 से 15 दिनों के बीच में 3 से 4 सिंचाइयों का करना जरूरी होता है. फली बनने और दाना बनने की दशा में नमी का होना बेहद जरूरी है.
खरपतवार नियंत्रण
फसल में 2 निराईगुड़ाई पहली बोआई के 30 दिन बाद करनी चाहिए. जरूरत पड़ने पर तीसरी निराईगुड़ाई भी की जा सकती है.
रासायनिक खरपतवारनाशी के लिए पेंडीमिथेलीन 30 ईसी की 3.3 लिटर मात्रा को बोने के 2 दिन बाद 600 से 800 लिटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टयर छिड़काव करें.
मटर के खास रोग
बीजसड़न, पौधगलन या आर्द्रपतन : यह रोग पीथियम राइजोक्टोनिया वगैरह प्रजाति में फफूंदों द्वारा होता है. बीज का अंकुरण न होना या अंकुरण होने के बाद भूमिगत बीजांकुर का विगलन यानी गलना या फिर बीजांकुर के जमीन से बाहर निकलने पर पौध गलन होना इस रोग के मुख्य लक्षण हैं.
संक्रमित बीज भूरे रंग से काले रंग के हो जाते हैं और मुलायम हो कर सड़ जाते हैं या फिर अंकुरित ही नहीं होते हैं.
रोकथाम : बीजों को कवकनाशी रसायन थीरम 2.5 ग्राम और कार्बंडाजिम 1 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से मिला कर शोधित करें.
बीज को ट्राइकोडर्मा द्वारा 10 ग्राम प्रति बीज की दर से उपचारित करें. खेत में फसल बदल कर बोएं. खेत में जैव वर्मी कंपोस्ट या गोबर की खाद का इस्तेमाल करें.
मृदुरोमिल आसिता : यह रोग पेरोनोस्पोरा पाइसाइ नामक कवक के चलते होता है. इस रोग में पत्तियों की ऊपरी सतह पर पीले रंग के धब्बे दिखाई देते हैं, जो बाद में भूरे रंग के हो जाते हैं और अंत में सूख जाते हैं. पत्तियों की निचली सतह पर धब्बे के ठीक नीचे रूई जैसी सफेद या मटमैली रंग की कवक दिखाई पड़ती है.
रोकथाम : खेत में रोग दिखाई देने पर रिडोमिल एम-जेड दवा 2 ग्राम प्रति लिटर पानी में घोल बना कर 2 छिड़काव 15 से 20 दिनों के अंतराल पर करने से तुरंत काबू पाया जा सकता है.
चूर्णिल आसिता : यह रोग एरीसाइफी पौलीगोनोई नामक फफूंद से होता है. रोग के शुरुआती लक्षण में पत्तियों पर सफेद चूर्णिल धब्बे दिखते हैं. रोग के ये लक्षण धीरेधीरे तने, फली और पौधे के दूसरे भागों पर फैल जाते हैं. ये चूर्ण जैसे धब्बे पत्तियों की दोनों सतहों पर बिखरे से होते हैं. शुरू में धब्बों का आकार छोटा होता है. सही मौसम मिलने पर ये चारों ओर फैल जाते हैं.
रोकथाम : बीज को किसी फफूंदनाशी दवा जैसे कैप्टान, सेरेसान या थाइरम 2.5 ग्राम दवा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर के ही बोआई करें.
रोग के लक्षण दिखाई देने पर 25 से 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के हिसाब से गंधक चूर्ण का भुरकाव करें. इस के अलावा सल्फैक्स (2.5 ग्राम प्रति लिटर पानी) या इलोसाल (5 ग्राम प्रति लिटर पानी) अथवा डायोविट (5 ग्राम प्रति लिटर पानी), मिल्डैक्स या कोसान (2 ग्राम प्रति लिटर पानी), मोरोसाइड (1 ग्राम प्रति लिटर पानी) का इस्तेमाल करें.
मटर की रोगरोधी किस्में जैसे अर्का अजीत, रचना, आजाद, पी 4 और पूसा पन्ना वगैरह प्रजातियों को लगाएं.
तना विगलन और अंगमारी : यह रोग एस्कोकाइटा पाइसाइ, एस्कोकाइटा पाइनोडेला और एस्कोकाइटा पाईनोडीज नामक फफूंद के लगने से होता है.
शुरू में तना विगलन के लक्षण गहरे भूरे रंग के दाग के रूप में दिखते हैं. बीज बोने के बाद उगे हुए नए पौधों के तनों पर भी यह लक्षण दिखाई देते हैं जो जमीन की सतह के पास से शुरू हो कर नीचे की ओर धीरेधीरे जड़ों और ऊपर की ओर बढ़ते हैं. इस दाग का रंग बाद में काला हो जाता है और अंत में पौधा सूख जाता है.
रोकथाम : बोआई से पहले बीज को थाइरम 2.5 ग्राम और कार्बंडाजिम 1 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर लें. खड़ी फसल पर मैंकोजेब 2.5 ग्राम प्रति लिटर पानी की दर से घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए.
मोजैक : इस रोग के चलते पौधे पीले, कमजोर और छोटे दिखाई पड़ते हैं. पुरानी पत्तियों पर सफेद अनियमित आकार के धब्बे बनते हैं. ऊपर की पत्तियां मुड़ी हुई होती हैं. पत्तों पर हलके भूरे छोटेछोटे बदरंग दाग बनते हैं. स्वस्थ पौधों की अपेक्षा रोगी पौधों में फूल देर से आते हैं. रोगी पौधों में फलियां छोटी और तादाद में कम होती हैं और फलियों के अंदर बनने वाले बीजों की तादाद कम होती है.
रोकथाम : पौध अवस्था से ही कीटनाशी औक्सीडेमेटोन मिथाइल या डाईमिथोएट का 1 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी की दर से घोल बना कर छिड़काव करें.
उपज : फलियों की तुड़ाई बोआई के तकरीबन 45 से 50 दिनों के बाद ही करें जब फलियों में दाने पूरी तरह से भरे हों. औसत उपज 25 से 40 क्विंटल और देरी से बोई जाने वाली किस्मों की औसत उपज 80 से 100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हरी फलियां हासिल कर सकते हैं. दाना भी 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टयर मिल जाता है.