हमारे प्रमुख कृषि  उद्योगों में पान की खेती का खासा महत्त्व है. कुछ इलाकों में इस का उतना ही महत्त्व है, जितना कि दूसरी खाद्य या नकदी फसलों का है. भारत में पान की खेती अलगअलग क्षेत्रों में कई तरीके से की जाती है, जैसे दक्षिण और पूर्वोत्तर क्षेत्रों में जहां बारिश ज्यादा होती है और नमी ज्यादा रहती है, वहां पान की खेती कुदरती रूप से की जाती है.

उत्तर भारत में जहां भीषण गरमी और कड़ाके की सर्दी पड़ती है, वहां पान की खेती संरक्षित खेती के तौर पर की जाती है. पान की खेती के लिए अच्छी जलवायु बेहद महत्त्वपूर्ण है. पान की खेती मुंबई का बसीन क्षेत्र, असम, मेघालय, त्रिपुरा के पहाड़ी क्षेत्र, केरल के तटवर्ती इलाकों के साथसाथ उत्तर भारत के गरम व शुष्क इलाकों, कम बारिश वाले कडप्पा, चित्तुर, अनंतपुर, पुणे, सतारा, अहमदनगर उत्तर प्रदेश के बांदा, ललितपुर, महोबा व छतरपुर (मध्य प्रदेश) आदि इलाकों में सफलतापूर्वक की जाती है.

किसानों और व्यापारियों के मुताबिक भारत में पान की 100 से ज्यादा किस्में पाई जाती हैं. इस की किस्मों में बढ़ोतरी इसलिए हुई है, क्योंकि एक ही किस्म को भिन्नभिन्न इलाकों में अलगअलग नामों से जाना जाता है.

उत्तर प्रदेश का पान की पैदावार में खास स्थान है, जिस में महोबा का पान की खेती में पहला स्थान है. महोबा में पान की खेती की शुरुआत 9वीं शताब्दी में चंदेल शासकों ने की थी. पहले यहां तकरीबन 500-600 एकड़ क्षेत्रफल में पान की खेती होती थी, लेकिन गुटखा खाने के बढ़ते प्रचलन, सिंचाई की समस्या, कच्चे माल की कमी और घटती मांग के कारण मौजूदा समय में इस का क्षेत्रफल सिमट गया है. महोबा पान की अच्छी मंडी है. चित्रकूट धाम मंडल में महोबा व बांदा और झांसी मंडल में ललितपुर पान की खेती के लिए जाने जाते हैं.

पान की खेती पर शोध और किसानों को प्रशिक्षण देने के लिए महोबा में 1980-81 में पान प्रयोग और प्रशिक्षण केंद्र की स्थापना की गई.

पान बरेजे (पान की बाड़ी) की तैयारी और पान की खेती

जलवायु : पान एक ऊष्ण कटिबंधीय पौधा है. इस की बढ़वार नम, ठंडे व छायादार वातावरण में अच्छी होती है.

बरेजे के लिए सही जमीन : भारत में पान की बेल हर तरह की जमीन में उगाई जाती है, लेकिन अच्छी पैदावार के लिए लाल मिट्टी मिली पडुवा मिट्टी बढि़या रहती है. ध्यान देने वाली बात यह है कि जिस इलाके में पान की खेती करनी हो, वहां कम से कम 15 सेंटीमीटर मोटी परत वाली तालाब की काली मिट्टी डालनी चाहिए. जिस जमीन पर बरेजा बनाया जाए उस का ढाल सही होना चाहिए ताकि बरसात का पानी आसानी से निकल सके. यदि पानी का भराव या रुकाव होगा तो बरेजे में रोग लगने का खतरा रहता है.

जमीन की तैयारी : बरेजा बनाने से पहले खेत की पहली जुताई मईजून में किसी भी मिट्टी पलटने वाले हल से करनी चाहिए, ताकि तेज धूप में मिट्टी में मौजूद हानिकारक कीड़ेमकोड़े व खरपतवार खत्म हो जाएं. इस के बाद अगस्त में देशी हल से जुताई कर के खेत खुला छोड़ दें. बरेजा बनाने से 25 दिनों पहले फावड़े से गुड़ाई कर के देशी हल से आखिरी जुताई द्वारा मिट्टी भुरभुरी करनी चाहिए.

जमीन की सफाई : बरेजा बनने के बाद उस के भीतर से कूड़ाकरकट अच्छी तरह साफ करना चाहिए. कुदाल से गहरी गुड़ाई कर के वहां थोड़ी कलई यानी चूना डस्ट बुरक दें और अच्छी तराई करें. कुदाल से दोबारा मिट्टी ऊपर उठाएं और मिट्टी में से कूड़ाकरकट निकालें. तैयारी के बाद 0.25 फीसदी बोर्डों मिश्रण डालें. इस के साथ ही 30-40 किलोग्राम सड़ी गोबर की खाद में 1 किलोग्राम ट्राइकोडर्मा विरडी पाउडर ठीक से मिला कर छायादार स्थान पर रखें, इस में नमी बनाएं रखें, 1 हफ्ते बाद जैविक खाद तैयार हो जाएगी. इस को आखिरी जुताई के बाद पान बेल की बोआई से पहले खेत में मिला दें. ऐसा करने से जमीन में पैदा होने वाले रोगों से बचाव हो जाता है और जमीन अच्छी तरह से साफ हो जाती है.

पान की मुख्य किस्में : वैज्ञानिकों के मुताबिक पान की खास किस्में हैं, बनारसी, सौंफिया, बंगला, देशावरी, कपूरी, मीठा व सांची आदि. पान में नरमादा पौधे अलगअलग होते हैं, लेकिन देश में नर पौधों को ही उगाया जाता है. मादा पौधे कुछ समय पहले पश्चिम बंगाल के वोनगांव इलाके से प्राप्त हुए हैं. फूलों के न होने से इस में प्रजनन से नई किस्में विकसित करने में काफी रुकावट है. देश में मुख्य रूप से पान की देशी, देशावरी, कलकतिया, कपूरी, बांग्ला, सौंफिया, रामटेक, मघई व बनारसी आदि प्रजातियों का इस्तेमाल किया जाता है.

बोआई के लिए बेल का चुनाव : पान के बरेजे में बेल का भी काफी महत्त्व है. इस के लिए गांठ की कतरन बनाई जाती है. पान की सालभर पुरानी बेल की कतरन ही चुननी चाहिए. किनारे से 2-3 पान छोड़ कर नीचे जमीन से 90 सेंटीमीटर ऊपर यानी बीचोंबीच से ही कतरन बनानी चाहिए. इन कटिंग्स की अंकुरण कूवत भी ज्यादा होती है. बेल करे ब्लेड या पनकटे से ही काटें. बेल की कतरन को 200 के बंडल बना कर इकट्ठा करें. पान की बेल रोगी पान बरेजे से कभी न लें. इस से आगामी फसल में रोग का खतरा रहता है.

बेल की सफाई : बोने से 1 दिन पहले बेल को 0.25 फीसदी बोर्डों मिश्रण या ब्लाइटाक्स या 500 पीपीएम के घोल में 15-20 मिनट तक डुबोएं.

पान की बेल की रोपाई : पान की रोपाई सुबह 11 बजे तक और शाम को 3 बजे के बाद करनी चाहिए. 1 गांठ और 1 पत्ती वाली बेल एक जगह पर 10 से 15 सेंटीमीटर की दूरी पर 4-5 सेंटीमीटर गहराई में लगा कर अच्छी तरह दबा दें. कूड़ों की आपसी दूरी 50 से 55 सेंटीमीटर रखते हैं, जिस से निराईगुड़ाई व सिंचाई आदि काम आसानी से हो सकें. पान की बेलों की 2 लाइनों की बोआई उलटी दिशा में करते हैं ताकि सिंचाई आसानी से की जा सके.

सिंचाई : पान की खेती में सिंचाई का खास महत्त्व है. बोआई के एकदम बाद ओहर यानी मल्चिंग डाल कर हजारा, लुटिया या स्प्रिंकलर से हलकी सिंचाई करनी चाहिए. मौसम के मुताबिक 3-4 दिनों में ढाई घंटे के अंतर पर सिंचाई करनी चाहिए. बरसात में सिंचाई की कोई खास जरूरत नहीं होती है, फिर भी जरूरी हो तो हलकी सिंचाई करें. सर्दी के मौसम में 7-8 दिनों बाद सिंचाई करनी चाहिए.

पान की बेल बांधना : पान की बेलों को सहारा देने के लिए बांस की पतली फट्टी का इस्तेमाल करते हैं. पौधे 15 सेंटीमीटर के हो जाएं तो उन्हें रस्सी से बांधें. इस से पान की पैदावार में बढ़ोतरी होती है.

निराईगुड़ाई : जब भी खरपतवार दिखाई दे, निराईगुड़ाई करते रहें.

खाद और उर्वरक : जैविक खाद के तौर पर पान की खेती के लिए नीम, सरसों व तिल आदि की खली का इस्तेमाल करते हैं. इस के अलावा जौ, उड़द, दूध, दही व मट्ठे का भी इस्तेमाल करते हैं. तिल की खली 50-60 क्विंटल और नीम की खली 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें. नाइट्रोजन 150 किलोग्राम, फास्फोरस 100 किलोग्राम और पोटाश 100 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें.

पान (Betel Leaf)

कीड़े व उन की रोकथाम

सफेद मक्खी : यह बरसात में पत्तियों की निचली सतह पर पाई जाती है और इन्हीं सतहों पर अपने अंडों का कवच बना लेती है, जिस से पत्तियां काफी प्रभावित होती हैं. यह मक्खी पत्तियों का रस चूसती है, जिस से बेल की बढ़ोतरी रुक जाती है.

इस की रोकथाम के लिए 0.5 फीसदी डायमेथोएट और 5 फीसदी नीम औयल तेल का छिड़काव इस के प्रभाव के तुरंत बाद करना अच्छा रहता है. 0.5 मिलीलीटर डायमेथोएट या 5 मिलीलीटर नीम के तेल का प्रति लीटर की दर से स्वस्थ फसल में 2 महीने में एक बार छिड़काव करना चाहिए.

सूक्ष्म लाल मकड़ी : इस का प्रभाव पत्तियों की निचली सतह पर होता है, जिस की वजह से पत्तियों का रंग नीचे से लाल धब्बे की तरह दिखाई देता है. कीटों के ज्यादा प्रभाव से पान का रंग लाल हो जाता है. इस की रोकथाम के लिए 30-40 ग्राम सल्फेक्स दवा 10 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए.

शल्क कीट : इस का प्रभाव पान की पत्तियों व डंठलों पर होता है. मादा कीट का पिछला सिरा थोड़ा सा चौड़ा होता है. इन की मात्रा ज्यादा होने पर पत्ते सिकुड़ जाते हैं.

इन कीटों की रोकथाम के लिए 0.5 फीसदी डायमेथोएट का छिड़काव 15 दिनों पर करना चाहिए.

पान के खास रोग

पदगलन यानी फुट राट : यह रोग बीज और जमीन में फफूंद लगने से होता है. यह जमीन की सतह पर बेलों के तनों को प्रभावित करता है, जिस से बेल सड़नी शुरू हो जाती है और मुरझा कर खत्म हो जाती है. पत्तियां भी हलके पीले रंग की हो कर गिरने लगती हैं. यह रोग सर्दियों में ज्यादा असर करता है. इस की रोकथाम के लिए पानी का निकास बहुत अच्छा होना चाहिए. जमीन पर गिरी पान की बेलों को जमीन से हटा देना चाहिए. इस रोग से बचने के लिए 1 किलोग्राम ट्राइकोडर्मा पाउडर 30-40 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद में मिला कर 1 हफ्ते बाद जमीन की तैयारी करते वक्त खेत में मिलाना चाहिए.

पान की सूखी जड़ सड़न रोग : इस की वजह राइजोप्टोनिया नामक फफूंद है. यह जमीन से पैदा होने वाला रोग है. यदि जमीन को स्वस्थ और साफसुथरा रखा जाए तो इस रोग का खतरा बहुत कम होता है. इस रोग से बचाव के लिए खड़ी फसल में कार्बेंडाजिम 0.3 फीसदी या मैंकोजेब 0.2 फीसदी का महीने में 1 बार छिड़काव करें.

पत्ती का धब्बेदार और तने का एंथ्रेक्नोज रोग : यह रोग कोलेरोट्राइकेन केपसीसी नामक फफूंद से होता है. पत्तियों पर इस से धंसे हुए अनियमित टेढ़ेमेढे़ गहरे भूरे रंग के धब्बे बनते हैं. पत्तियों के किनारे से ही इस रोग की शुरुआत होती है और आखिर में पत्ती का ज्यादातर हिस्सा काला पड़ने लगता है. यह रोग बरसात में ज्यादा होता है. इस की रोकथाम के लिए मैंकोजेब 0.3 फीसदी का छिड़काव बरसात में 10-15 दिनों पर करना चाहिए.

तना कैंसर : लंबाई में यह भूरे रंग के धब्बे के रूप में तने पर दिखाई देता है. इस के प्रभाव से तना फट जाता है. इस की रोकथाम के लिए 150 ग्राम प्लांटो बाइसिन व 150 ग्राम कापर सल्फेट का घोल 600 लीटर पानी में मिला कर छिड़काव करना चाहिए.

जड़ों में गांठें बनना : यह रोग मलोयडोगायनी नामक सूत्रकृमि द्वारा फैलता है. उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार में इस का प्रभाव ज्यादा देखा गया है. इस रोग से बेलें कम बढ़ती हैं और धीरेधीरे पत्तियां पीली पड़ने लगती हैं. बेलों के सिरे मुरझा जाते हैं. ऐसी बेलों पर छोटीछोटी गांठें बनती हैं, जिस वजह से पौधों को पोषक तत्त्व कम मिलते हैं और पौधे छोटे ही रह जाते हैं. इस की रोकथाम के लिए नीम की खली की 15-20 किलोग्राम मात्रा प्रति 100 मीटर की दर से 1 साल तक इस्तेमाल करें.

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