स्टीविया को मीठी तुलसी, चीनी व मधुपत्र आदि नामों से भी जाना जाता है. स्टीविया लेमिएसी कुल का बहुवर्षीय, झाड़ीनुमा, शाकीय पौधा है.
भारत में अभी यह नया पौधा है. मौजूदा समय में इस की खेती खासकर कर्नाटक और महाराष्ट्र में ही होती है. औषधीय गुणों की वजह से इस के क्षेत्रफल और पैदावार में बढ़ोतरी की जरूरत है. स्टीविया एक छोटा पौधा है, जिस की लंबाई 60-70 सेंटीमीटर तक होती है. इस के फल छोटे, सफेद और कई आकार में लगते हैं.
स्टीविया का पौधा चीनी से तकरीबन 25-30 गुना ज्यादा मीठा होता है. इस की पत्तियों में मिठास के कई तत्त्व पाए जाते हैं, जिन में स्टीवियोसाइड, रीबाऊदिस, रीबाऊदिस साइड सी और डाल्कोसाइड खास हैं. इन के अलावा इस की पत्तियों में 6 अन्य तत्त्व भी पाए जाते हैं, जिन में इंसुलिन को संतुलित करने के खास गुण मौजूद होते हैं. स्टीविया की पत्तियों से निकाले जाने वाले स्टीवियोसाइड में चीनी से 250 गुना ज्यादा और सुक्रोज से 300 गुना ज्यादा मिठास पाई जाती है.
स्टीविया कैलोरी रहित होने के कारण मधुमेह रोगियों के लिए एक महत्त्वपूर्ण मीठा पदार्थ है. स्टीविया का सब से ज्यादा उपयोगी घटक स्टीवियोसाइड है.
स्टीविया की पत्तियों में स्टीवियोसाइड की मात्रा 3 से 20 फीसदी तक हो सकती है. स्टीविया की 9 फीसदी या इस से ज्यादा मात्रा वाली स्टीवियोसाइड प्रजातियों को अच्छा माना जाता है.
भारत में ज्यादातर लोग बिना मीठे के भोजन नहीं करते, इसलिए यहां स्टीविया के लिए बड़ा बाजार बन सकता है. चायकौफी में इस्तेमाल करने के साथसाथ इसे कई तरह की मिठाइयों और चाकलेट्स में भी इस्तेमाल किया जा सकता है. स्टीविया मधुमेह के रोगियों के लिए काफी लाभदायक है.
खेती की तकनीक
जलवायु : स्टीविया का पौधा 11 से 41 डिगरी सेल्सियस तापमान पर ज्यादा बढ़ता है. 131-140 सेंटीमीटर सालाना बारिश वाले इलाकों में यह आसानी से उगाया जा सकता है.
जमीन : स्टीविया का पौधा ज्यादा पानी वाली मिट्टी में नहीं उगता है. इस के लिए सही जल निकास वाली रेतीली जमीन जिस का पीएच मान 6.5-7.5 हो, काफी अच्छी रहती है.
जमीन की तैयारी : स्टीविया बहुवर्षीय पौधा होने से 1 बार लगाने के बाद 4-5 सालों तक खेत में रहता है, इसलिए मिट्टी को अच्छी तरह तैयार करना चाहिए. खेत को 1 बार मिट्टी पलट हल से गहरा जोतने के बाद 4-6 जुताई हैरो और कल्टीवेटर या देशी हल से करनी चाहिए. आखिरी जुताई से पहले 20 टन गोबर की खाद, 6 से 8 टन कंपोस्ट खाद या 2-2.5 टन वर्मी कंपोस्ट डाल कर जुताई करनी चाहिए और हर जुताई के बाद पाटा लगा देना चाहिए ताकि खेत में ढेले न बनें और मिट्टी अच्छी तरह भुरभुरी हो जाए.
बोआई का तरीका और समय : इस की पौध बीज और कलम दोनों तरह से तैयार की जाती है. बीजों का अंकुरण कम होने से इसे ज्यादातर कलम से ही लगाया जाता है. इस की रोपाई मेंड़ों पर की जाती है. रोपाई के लिए तकरीबन 6 से 8 इंच ऊंची मेंडें़ बनाई जाती हैं. इन मेंड़ों पर पौधे से पौधे के बीच की दूरी 20 सेंटीमीटर रख कर कलमों की रोपाई की जाती है. रोपाई के तुरंत बाद हलकी सिंचाई करनी चाहिए.
इस की रोपाई का सब से अच्छा समय सितंबरनवंबर और फरवरीअप्रैल है. 15 सेंटीमीटर लंबी तने की कटिंग्स को 100 पीपीएम पैक्लान बूटेजाल से उपचारित कर के फरवरी में रोपाई करने से जड़ें ज्यादा और जल्दी निकलती हैं.
खाद और उर्वरक : स्टीविया की फसल को 60 किलोग्राम नाइट्रोजन, 30 किलोग्राम फास्फोरस और 40 किलोग्राम पोटाश की प्रति हेक्टेयर जरूरत पड़ती है. फसल के इन जरूरी तत्त्वों की पूर्ति केवल कार्बनिक खादों से ही करनी चाहिए. स्टीविया में किसी भी तरह के रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए. बोरोन और मोलिब्डेनम का खड़ी फसल पर छिड़काव करने से पत्तियों में स्टीवियोसाइड की संख्या में बढ़ोतरी होती है.
सिंचाई : स्टीविया को सालभर पानी की जरूरत होती है. गरमी में 6 से 8 दिनों और सर्दियों में 12 से 15 दिनों के अंतर पर सिंचाई करते रहना चाहिए. यदि मुमकिन हो तो स्टीविया की सिंचाई के लिए टपक सिंचाई विधि का ही इस्तेमाल करना चाहिए.
प्रजातियां : स्टीविया का मूल्य उस में पाए जाने वाले स्टीवियोसाइड की मात्रा पर निर्भर करता है. इसलिए स्टीविया की खेती के लिए ऐसी किस्में जिन में स्टीवियोसाइड की ज्यादा मात्रा पाई जाती है, को ही चुना जाना चाहिए. मौजूदा समय में स्टीविया की 3 किस्में ज्यादा प्रचलित हैं.
बीआरआई 28 : स्टीविया की यह किस्म खेती के लिए काफी सही मानी जाती है, क्योंकि इस में 21 फीसदी तक ग्लूकोसाइड्स पाए जाते हैं. यह प्रजाति जितनी अच्छी भारत के दक्षिणी इलाकों के लिए है, उतनी ही उत्तरी इलाकों के लिए भी है. यह किस्म बायोवेद संस्थान, इलाहाबाद ने विकसित की है.
बीआरआई 123 : स्टीविया की यह किस्म भारत के दक्षिणी पठारी इलाकों के लिए अच्छी है. इस में 9.12 फीसदी तक ग्लूकोसाइड्स पाए जाते हैं. यह किस्म साल में 5 कटाई देती है.
बीआरआई 512 : इस प्रजाति की साल में 4 बार कटाई होती है. यह किस्म उत्तर भारत के लिए ज्यादा सही है. इस में 9 से 12 फीसदी तक ग्लूकोसाइड्स पाए जाते हैं.
खरपतवारों की रोकथाम : स्टीविया की फसल से हमेशा खरपतवारों को दूर रखना चाहिए. इस के लिए फसल की खुरपी आदि से निराईगुड़ाई करते रहना चाहिए. स्टीविया के पौधों के बीच से खरपतवार हाथ से ही हटा देना चाहिए.
स्टीविया की फसल में किसी भी तरह के रासायनिक खरपतवारनाशी का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए.
फसल सुरक्षा : ज्यादातर स्टीविया की फसल पर किसी तरह के रोग और कीट नहीं लगते, लेकिन कभीकभी जमीन में बोरोन की कमी की वजह से पत्ती धब्बा जैसी बीमारी हो जाती है. इस की रोकथाम के लिए 6 फीसदी बोरेक्स का छिड़काव करना चाहिए.
स्टीविया को जमीन में पाए जाने वाले कीड़ों व दीमक वगैरह से बचाने के लिए 15-20 किलोग्राम बायोनीमा जैविक खाद का इस्तेमाल मिट्टी में करना चाहिए और गौमूत्र का भी समयसमय पर छिड़काव कर सकते हैं.
फूल तोड़ना : स्टीविया की पत्तियों में सब से ज्यादा स्टीवियोसाइड्स मौजूद होते हैं. इसलिए पत्तियों की ज्यादा बढ़त के लिए पौधों से फूलों को हटा देना चाहिए, क्योंकि फूल आने के बाद पौधे की वानस्पतिक बढ़त रुक जाती है. पौध रोपने के 30, 45, 60, 75 व 85 दिनों बाद और कटाई के समय फूल तोड़ देने चाहिए. पेड़ी फसल में पहली कटाई के 40 दिनों बाद फूल आने लगते हैं, लिहाजा 40 दिनों बाद कटाई के समय फूलों को तोड़ देना चाहिए.
कटाई : रोपाई के तकरीबन 110-120 दिनों बाद फसल कटाई लायक हो जाती है. फसल की कटाई फूल तोड़ने के बाद और दोबारा फूल आने से पहले कर लेनी चाहिए. फिर 3 से 4 कटाई 90-90 दिनों के बीच कर लेनी चाहिए.
उपज : बहुवर्षीय फसल होने से स्टीविया की उपज में हर कटाई के बाद लगातार बढ़त होती है. स्टीविया की सालभर में 4 कटाई में 10-12 टन प्रति हेक्टेयर सूखी पत्तियां हासिल हो जाती हैं.