हरियाणा सरकार द्वारा किसानों पर पराली जलाने के लिए की जा रही कड़ी कार्रवाई ने देशभर के किसानों में गहरी नाराजगी और चिंता पैदा कर दी है. हाल ही में 13 किसानों की गिरफ्तारी, ‘रैड एंट्री’ जैसे कदम और किसानों की फसल मंडियों में न बेचने देने के आदेशों ने किसानों में आक्रोश भर दिया है.
किसानों की गिरफ्तारी और उन के माल को मंडी में न बेचने देना एक ऐसा कदम है, जो केवल उन की समस्याओं को बढ़ाएगा. हरियाणा सरकार ने पराली जलाने के 653 मामलों में अब तक 368 किसानों की ‘रैड एंट्री’ कर दी है, जिस से ये किसान अगले 2 साल तक अपनी फसल मंडियों में नहीं बेच पाएंगे. इस से न केवल उन की माली हालत कमजोर होगी, बल्कि उन का गुस्सा भी बढ़ेगा. इस तरह की दमनकारी नीतियां केवल किसानों और सरकार के बीच की खाई को बढ़ाने का काम करती हैं.
किसान पहले ही पूर्व की हरियाणा सरकार से नाराज चल रहे थे. राज्य में किसानों की इन गिरफ्तारियों और फसल मंडियों में न बिकने देने जैसे तुगलकी मध्यकालीन फरमान ने इस मुद्दे को और गरमा दिया है. लगता है कि सरकार की नीतिनिर्माताओं ने अपना दिमाग खूंटी पर टांग दिया है, वरना इतनी आसान सी बात ही समझ में नहीं आती कि इस समस्या का समाधान केवल दंडात्मक उपायों से कभी भी नहीं हो सकता. किसानों के सामने कई जमीनी व्यावहारिक समस्याएं हैं, जिन्हें समझे बिना ऐसे कबीलाई न्याय और कठोर नीतियां लागू करना उन के साथ घोर अन्याय है और व्यापक देशहित के भी खिलाफ है.
इस बात से किसी को भी इनकार नहीं है कि पराली जलाना एक गंभीर पर्यावरणीय मुद्दा है, लेकिन इसे केवल किसानों की गलती मानना उचित नहीं है, यह सिक्के का केवल एक पहलू है. इस संवेदनशील मामले में किसानों की मजबूरी को समझना अत्यंत आवश्यक है.
पराली का निबटान एक महंगी और समयसाध्य प्रक्रिया है, जिस में किसान को काफी माली नुकसान उठाना पड़ता है. ट्रैक्टरों और पानी के इस्तेमाल से पराली को मिट्टी में मिलाने का खर्च प्रति एकड़ 5,000 रुपए से अधिक होता है, जो छोटे और मझोले किसानों के लिए एक भारी बोझ है. इस के अलावा फसल के सीजन के बीच में समय की कमी भी उन्हें पराली जलाने के लिए मजबूर कर देती है.
किसानों के सम्मुख चुनौतियां
किसान फसल कटाई के तुरंत बाद अगली फसल के लिए खेत तैयार करने की जल्दी में होते हैं. यदि पराली को सड़ने के लिए खेत में छोड़ा जाता है, तो इस में काफी समय लगता है, और इस देरी से उन्हें दूसरी फसल का नुकसान होता है. “समय से चूका किसान, डाल से चूका बंदर की तरह होता है, जो धरती पर मुंह के बल गिरा नजर आता है.” इस स्थिति में किसानों के पास न तो इतना समय होता है और न ही इतनी आर्थिक क्षमता कि वे पराली के प्रबंधन के लिए जरूरी संसाधनों में निवेश कर सकें.
दुनिया के प्रसिद्ध पर्यावरणविदों और शोधकर्ताओं ने भी इस समस्या की जड़ को समझा है. नार्वे के जलवायु विशेषज्ञ एरिक सोल्हेम का कहना है, “सस्टेनेबल खेती का विकास तभी संभव है, जब किसानों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए पर्यावरणीय नीतियां बनाई जाएं. किसान पर्यावरण का दुश्मन नहीं है, वह इस का साथी है.” यह विचार स्पष्ट करता है कि किसानों को दोषी ठहराने के बजाय उन्हें टिकाऊ समाधान प्रदान करना आवश्यक है.
विकल्पों की खोज
यह सही है कि पराली जलाने से पर्यावरण को नुकसान होता है और वायु प्रदूषण बढ़ता है, लेकिन समाधान का रास्ता किसानों को दंडित करने में नहीं है. समस्या के समाधान के लिए सरकार को किसानों के साथ मिल कर विचारविमर्श करना चाहिए. सरकार का यह दायित्व है कि वह किसानों के लिए ऐसे विकल्प तैयार करे, जो व्यवहारिक हो और किसानों के हित में हो. किसानों को तकनीकी सहायता, संसाधन और आर्थिक सहायता प्रदान की जानी चाहिए, ताकि वे पराली जलाने के विकल्पों को अपना सकें.
पंजाब और हरियाणा में पहले से ही कई पायलट प्रोजैक्ट्स चल रहे हैं, जहां पराली से जैविक खाद बनाई जा रही है या उसे ऊर्जा के उत्पादन के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है. लेकिन यह समाधान तब तक सफल नहीं होंगे, जब तक किसानों को इस का उपयोग करने के लिए पर्याप्त आर्थिक सहायता और तकनीकी मार्गदर्शन नहीं मिलेगा.
हमारा मानना है कि सरकार को दंडात्मक कार्रवाई से पहले किसानों की समस्याओं को समझ कर उन के लिए व्यवहारिक समाधान निकालने चाहिए. पराली जलाने पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाना और किसानों को सजा देना उन्हें और अधिक संकट में डाल देगा. देशभर के किसानों में यह संदेश जा रहा है कि सरकार के खिलाफ आंदोलन करने के कारण सरकार किसानों से बदला ले रही है.
वहीं किसानों का यह मानना है कि पराली के पर्यावरणीय मुद्दे पर किसानों को जेल में डालने जैसी कठोर दमनात्मक कार्यवाही करने के पहले महानगरों में दौड़ रहे जहर उगलते करोड़ों वाहन मालिकों और वायुमंडल में विशाक्त धुआं उगलते कारखानों के मालिकों के खिलाफ कार्यवाही कर उन्हें जेल में डालने की हिम्मत दिखाए. देश में कितने ही कारखाने पर्यावरण के नियमों, ग्रीन ट्रिब्यूनल को छकाते हुए धज्जियां उड़ाते हुए नदियों में गंदगी उड़ेल रहे हैं और वायुमंडल में लगातार 24 घंटे जहरीला धुआं भर रहे हैं. आज तक सरकार ने किसी एक भी उद्योगपति को पर्यावरण के मुद्दे पर जेल में नहीं डाला है. चूंकि किसान अकेला है, गरीब है, बेसहारा है, इन में एकजुटता की कमी है और चौधरी चरण सिंह जैसा उस का कोई सक्षम राजनीतिक आका नहीं है, इसीलिए सरकार जब चाहे किसान की गरदन दबोच लेती है और उस पर लट्ठ बजा देती है.
यही सरकारें जीत के आते ही हफ्तेभर के भीतर ही अपने खिलाफ सारे मामलों को राजनीतिक मामले कह कर वापस ले लेती हैं और किसान आंदोलनों में जेल गए किसान साथी आज भी जेलों में सड़ रहे हैं, उन की सुध लेने वाला भी कोई नहीं है. पर इन सारे घटनाक्रमों से किसानों में धीरेधीरे सरकार के ख़िलाफ नफरत और गुस्सा बढ़ता जा रहा है. आगे चल कर यह स्थिति विस्फोटक हो सकती है.
सरकार इस तरह से किसानों को जेल में डालने के पहले ध्यान रखें कि सरकार की जेलों में न तो इतनी जगह है और न ही सरकार के खजाने में इतना पैसा, और न ही सरकार के गोदाम में इतना अनाज है कि वह देश के 16 करोड़ किसान परिवारों, एक परिवार में यदि 5 सदस्य भी हैं तो लगभग 80 करोड़ लोगों को जेल में डाल कर उन्हें बिठा कर खाना खिला सके.
मिलजुल कर होगा समाधान
पराली जलाने की समस्या के समाधान के लिए एक सामूहिक दृष्टिकोण की आवश्यकता है. पर्यावरण की सुरक्षा और किसानों की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए एक संतुलित नीति बनाई जानी चाहिए. सरकार को किसानों के साथ मिल कर एक समाधान ढूंढना चाहिए, जिस में किसानों की आवश्यकताओं को प्राथमिकता दी जाए. अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञ भी मानते हैं कि किसी भी पर्यावरणीय नीति की सफलता तभी संभव है, जब उसे सामाजिक और आर्थिक रूप से उचित ढंग से लागू किया जाए.
किसान संगठनों का मानना है कि किसानों के खिलाफ कठोर नीतियां अपनाने के बजाय सरकार को उन के साथ संवाद कर समाधान निकालना चाहिए. किसानों की आर्थिक स्थिति और पर्यावरण की रक्षा दोनों को ध्यान में रखते हुए एक सुदृढ़ और व्यवहारिक नीति बनाई जानी चाहिए. पराली जलाने के विकल्प किसानों को तभी अपनाने चाहिए, जब उन्हें इस के लिए आवश्यक संसाधन और सहायता मिल सके.
सरकार को अपने कठोर रवैए पर पुनर्विचार कर किसान संगठनों और विशेषज्ञों के साथ मिल कर इस समस्या का समाधान खोजना चाहिए. अगर सरकार पहल करे, तो अखिल भारतीय किसान महासंघ इस मुद्दे पर किसानों और किसान संगठनों से बात कर बीच का रास्ता निकालने की कोशिश कर सकती है. किसानों की समस्याओं को नजरअंदाज करना एक दीर्घकालिक समाधान नहीं है, बल्कि उन के साथ मिल कर काम करने से ही हम एक टिकाऊ और सफल कृषि प्रणाली की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं.