परंपरागत खेती में किसान जहां गन्ना-पेड़ी-गेहूं, गन्ना-पेड़ी-गेहूं फसलचक्र अपना रहे हैं, उस में फौरन बदलाव की जरूरत है. इस फसलचक्र को अपनाने से किसान भाइयों को काफी नुकसान हो रहा है. गेहूं काट कर देरी से गन्ने की बोआई होती है, तो गन्ने की उपज बहुत कम (औसतन 375-400 क्विंटल प्रति हेक्टेयर) हासिल होती है. साथ ही देरी से (जनवरी के अंत में) बोआई करने पर गेहूं की पैदावार औसतन 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हासिल होती है, जो काफी कम है.
वहीं दूसरी ओर ज्यादा पैदावार लेने के प्रयास में किसान भाई ज्यादा मात्रा में खादबीज का इस्तेमाल कर के उत्पादन लागत बढ़ा रहे हैं. इस से किसानों को दोहरी हानि का सामना करना पड़ रहा है. ऐसे हालात में यह जरूरी है कि हम नए अंदाज में खेती करना शुरू करें, जिस के लिए जरूरी है कि हम सब से पहले अपने फसलचक्र में बदलाव करें.
जिस खेत में गन्ना बोना है, उस में रबी की फसल काटने के बाद किसान ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई कर के खेत का सौरीकरण करें. फिर उस में हरी खाद लेने के लिए ढैंचे की बोआई करें. अगस्त में ढैंचे को खेत में पलट कर रोटावेटर से अच्छी तरह मिला लें. इस के बाद सितंबर के पहले व दूसरे हफ्ते में गन्ने की बोआई करें (बरसात को देखते हुए गन्ने की बोआई करें). इस समय बोए गए गन्ने का जमाव अच्छा होता है और बढ़वार तेज गति से होती है. अच्छी तरह देखभाल किए गए गन्ने की अगले साल पेराई सत्र में औसतन 1,000-1,200 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से उपज आसानी से हासिल की जा सकती है. यहां किसानों के मन में यह सवाल आना लाजिम है कि उन की खरीफ व रबी की 2 फसलों (धान व गेहूं) का नुकसान हो रहा है, लेकिन सचाई कुछ और है.
अब किसानों के मन में सवाल आता है कि उन्हें अपने घरेलू इस्तेमाल के लिए भी धान व गेहूं चाहिए. इस के लिए सुझाव है कि वे अपने खेत को इस तरह बांटें कि जरूरत के मुताबिक उन्हें धान, गेहूं व दूसरी फसलें भी मिल जाएं, उत्पादन लागत भी घटे और प्रति इकाई क्षेत्रफल से ज्यादा पैदावार भी मिले. तभी हम खेती को लाभकारी बना सकते हैं, वरना आप समझ गए होंगे कि ज्यादा उत्पादन लागत लगा कर भी हमें शुद्ध लाभ के रूप में मात्र 95,000 रुपए की आमदनी होती है, जबकि कम लागत से 1,80,000 रुपए की आमदनी हो सकती है.