इन खतरनाक रसायनों (Toxic Chemicals) के इस्तेमाल से धीरेधीरे जमीन की उर्वराशक्ति खत्म हो जाती है, जिस की वजह से पैदावार कम हो जाती है.
यही नहीं जहरीले रसायनों (Toxic Chemicals) के इस्तेमाल से कीटों की प्रतिरोधक कूवत बढ़ गई है और उन पर इन का अब कोई असर नहीं होता यानी कीट आसानी से इन रसायनों को हजम कर जाते हैं. रसायनों के इस तरह अंधाधुंध इस्तेमाल से जमीन के बंजर होने का खतरा बढ़ जाता है, साथ ही इस से इनसानों के स्वास्थ्य को भी नुकसान होता है.
इन रसायनों का असर फसलों पर भी पड़ रहा है. किसानों के स्वास्थ्य पर भी इन कीटनाशकों का असर देखने को मिल रहा है. हाल में ऐसी ही एक खबर महाराष्ट्र के यवतमाल जिले से सामने आई, जहां 18 किसानों और खेत में काम कर रहे मजदूरों की इन कीटनाशकों की चपेट में आ कर मौत हो गई. महीने भर में तकरीबन 500 मजदूर और किसान अस्पताल में भर्ती हो गए.
इस इलाके में कपास की खेती काफी मात्रा में होती है. इस बार कपास को गुलाबी कीड़ों ने काफी नुकसान पहुंचाया, जिन से फसल को बचाने के लिए किसानों ने मजबूरन प्रोफेनोफास जैसे जहरीले कीटनाशक का इस्तेमाल किया. इस छिड़काव के लिए उन्होंने चीन में बने पंपों का इस्तेमाल किया, जिन की कीमत कम थी और गति ज्यादा थी यानी दवा का छिड़काव ज्यादा हो रहा था. किसान व मजदूर इस छिड़काव के दौरान नंगे बदन, नंगे पांव बिना हाथों पर दस्ताने लगाए खेतों में काम कर रहे थे, जिस वजह से उन पर दवा का गंभीर असर हुआ. इस से कई किसानों की आंखें खराब हो गईं तो कई त्वचा रोग से पीडि़त हो गए.
नुकसान से बचने के लिए कीटनाशकों का इस्तेमाल बढ़ा है, मगर ये जहरीले कीटनाशक देश के पर्यावरण को खराब कर रहे हैं. इन का तकरीबन एकतिहाई हिस्सा विभिन्न स्वास्थ्य कार्यक्रमों के तहत छिड़का जा रहा है.
60 के दशक में करीब साढ़े 6 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि में कीटनाशकों का छिड़काव होता था, लेकिन 1988-89 के दौरान यह बढ़ कर 80 लाख हेक्टेयर हो गया और मौजूदा वक्त में इस का क्षेत्र तकरीबन डेढ़ करोड़ हेक्टेयर होने की आशंका है. ये कीटनाशक हवा, पानी, मिट्टी, जन स्वास्थ्य और जैविक विविधता को बुरी तरह प्रभावित कर रहे हैं. दवाओं और रसायनों की मात्रा खतरनाक स्तर तक पहुंच गई है. दवाएं महज 10 से 15 फीसदी ही असरकारक होती हैं.
70 के दशक के आसपास कर्नाटक के मलनाड इलाके में एक अजीबोगरीब रोग फैला. लकवे से मिलतेजुलते इस रोग के शिकार अधिकतर मजदूर थे. इस रोग के कारण शुरू में तो उन की पिंडलियों और घुटने के जोड़ों में दर्द की शिकायत हुई, लेकिन धीरेधीरे रोगी खड़ा भी नहीं हो पाया.
साल 1975 में हैदराबाद के नेशनल इंस्टिट्यूट आफ न्यूट्रीशन ने चेताया कि ‘ऐंडमिक एमिलिइन आर्थ्रराइटिस आफ मलनाड’ नामक इस बीमारी का कारण ऐसे धान के खेतों में पैदा हुई मछली व केकड़े खाना है, जहां जहरीले कीटनाशकों का इस्तेमाल हुआ हो. इस के बावजूद वहां धान के खेतों में पैराशिया और एल्ड्रिन नामक कीटनाशकों का बेतहाशा इस्तेमाल जारी है, जबकि बीमारी 1 हजार से ज्यादा गांवों को अपनी गिरफ्त में ले चुकी है.
इन दिनों बेहतर किस्म के ‘रूपाली’ और ‘रश्मि’ किस्म के टमाटर सब से ज्यादा इस्तेमाल किए जा रहे हैं. इन प्रजातियों को सब से ज्यादा नुकसान हेल्योशिस अर्मिजरा नामक कीड़े से होता है.
टमाटर में सुराख करने वाले इस कीड़े की वजह से आधी फसल बरबाद हो जाती है. इन कीड़ों को मारने के लिए बाजार में रोग हाल्ट, सुपर किलर, रेपलीन और चैलेंजर नामक दवाएं मिलती हैं.
इन दवाओं पर बाकायदा निर्देश है कि इन का इस्तेमाल फसल पर 3 या 4 बार किया जाए, लेकिन किसान 20-25 बार इन का छिड़काव करते हैं, जिस की वजह से इन्हें खाने से अधिकांश लोग इन की चपेट में आ जाते हैं और गंभीर बीमारियां उन्हें घेर लेती हैं. इस की पुष्टि भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद द्वारा की जा चुकी है.
इन दिनों बाजार में मिल रही चमचमाती सब्जियों में भिंडी व बैगन प्रमुख हैं. ये देखने में जितने खूबसूरत व ताजे लगते हैं, खाने में उतने ही जहरीले हैं. बैगन को चमकदार बनाने के लिए उसे फोलिडज नाम के खतरनाक रसायन में डुबोया जाता है.
इसी तरह भिंडी को छेद करने वाले कीड़ों से बचाने के लिए एक जहरीली दवा का छिड़काव किया जाता है. ऐसी कीटनाशकयुक्त सब्जियों का लगातार इस्तेमाल करने से सांस की नली के बंद होने की आशंका रहती है.
अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के फार्माकोलौजी विभाग के एक अध्ययन से पता चला है कि काक्रोच मारने वाली दवाओं का कुप्रभाव सब से ज्यादा 14 साल से कम उम्र के बच्चों पर होता है. ग्रीन पीस इंडिया की एक रिपोर्ट बताती है कि कीटनाशक बच्चों के दिमाग को घुन की तरह खोखला कर रहे हैं. संस्था ने कीटनाशकों के असर का बच्चों के मानसिक विकास पर अध्ययन करने के लिए देश के 6 अलगअलग राज्यों के जिलों में शोध किया. इस में पाया गया कि इन कीटनाशकों के अंधाधुंध असुरक्षित इस्तेमाल के कारण भोजन और पानी में रासायनिक जहर की मात्रा बढ़ रही है, जिस की वजह से इन का सेवन करने वाले बच्चों का मानसिक विकास काफी धीमा है.
इन जहरीले रसायनों के इस्तेमाल से जमीन की उर्वराशक्ति भी नष्ट हो रही है. विषैले और जनजीवन के लिए खतरा बन चुके कीटनाशकों पर विकसित देशों ने अपने यहां पाबंदी लगा दी है, लेकिन अपने व्यावसायिक हित साधने के लिए इन्हें भारत में भेजना जारी रखा है.
साल 1993 में केंद्र सरकार ने 12 कीटनाशकों पर पूरी तरह रोक लगा दी थी और 13 कीटनाशकों के इस्तेमाल पर कुछ पाबंदियों की औपचारिकता निभाई थी. इन में सल्फास के नाम से कुख्यात एल्युमीनियम फास्फाइड भी है. आज सल्फास खा कर मरने वालों की तादाद काफी ज्यादा हो गई है. आएदिन ऐसी खबरें अखबारों की सुर्खियां बनती हैं. डीडीटी और बीएचसी जैसे बहुप्रचलित कीटनाशक भी प्रतिबंधित हैं.
सरकार ने भले ही इन दवाओं की बिक्री पर प्रतिबंध सिर्फ कागजों में लगाया हो, लेकिन इन का उत्पादन आज भी बेखौफ जारी है. सरकारी महकमों के लिए खरीद के नाम पर इन के कारखानों के लाइसेंस धड़ल्ले से जारी किए जा रहे हैं.
अफसोस की बात यह है कि देश में हरित क्रांति का झंडा लहराने वालों ने हमारे खेतों और खाद्यान्नों को विषैले रसायनों का गुलाम बना दिया है. इस से पैदावार जरूर बढ़ी है, लेकिन इन से जल्दी ही जमीन बंजर हो जाएगी. साथ ही इस से खेती की लागत बढ़ रही है और स्वास्थ्य पर खर्चे में बढ़ोतरी हो रही है. हमारा देश युगों से खेती करता आ रहा है.
हमारे पास कम लागत में अच्छी फसल उगाने के पारंपरिक तरीके हैं, लेकिन यह ज्ञान जरूरत तो पूरी कर सकता है, लेकिन ज्यादा पाने की इच्छा पूरी नहीं हो सकती.
हमारे पारंपरिक बीज, गोबर की खाद, नीम, गौमूत्र जैसे प्राकृतिक तत्त्वों से भले ही कम फसल पैदा होगी, लेकिन यह तय है कि इन जानलेवा रसायनों से मुक्ति मिल जाएगी और जहर नहीं उपजेगा.