भारत में बडे़ पैमाने पर चने की खेती होती है. चना दलहनी फसल है. यह फसल प्रोटीन, फाइबर और विभिन्न विटामिनों के साथसाथ मिनरलों का स्रोत होती है, जो इसे एक पौष्टिक आहार बनाती है.
चने की खेती भारतीय कृषि में एक प्रमुख स्थान रखती है. विशेष रूप से यह उत्तर और मध्य भारत के राज्यों में उगाई जाती है.
चना भारतीय भोजन का एक अभिन्न हिस्सा है, जो दाल, सब्जी और स्नैक्स जैसे विविध व्यंजनों में उपयोग किया जाता है. पारंपरिक चने की खेती में कई चुनौतियां होती हैं, जैसे कि कम उत्पादन, रोगों व कीटों से सुरक्षा में कमी और सीमित संसाधनों का उपयोग.
इन समस्याओं का समाधान करने के लिए उन्नत खेती की तकनीकें और विधियां अपनाई जा रही हैं. उन्नत खेती का मकसद न केवल उत्पादन को बढ़ाना है, बल्कि फसल की गुणवत्ता को सुधारना और खेती की लागत को कम करना भी है.
उन्नत खेती की तकनीकों में नई किस्मों का चयन, वैज्ञानिक तरीके से उर्वरक प्रबंधन, प्रभावशाली सिंचाई और रोग व कीट नियंत्रण के उपाय शामिल हैं. इन तकनीकों को अपनाने से किसानों को उच्च उत्पादन, बेहतर फसल गुणवत्ता और आर्थिक लाभ प्राप्त होता है.
चने की उन्नत खेती की विधियां, खेत की तैयारी और चयन
चने की खेती के लिए उपयुक्त भूमि का चयन करना बहुत ही जरूरी है. इस के लिए उपजाऊ मिट्टी का चयन करें, जिस में जीवांश और पोषक तत्त्वों की पर्याप्त मात्रा हो. मिट्टी का पीएच मान 6 से 8 के बीच होना चाहिए.
खेत की अच्छी तरह से जुताई करें और मिट्टी को भुरभुरा बनाएं. अगर मिट्टी में पोषक तत्त्वों की कमी है, तो उर्वरकों का प्रयोग करें.
बीज का चयन : उन्नत किस्मों के बीजों का चयन करें, जो उच्च उपज देने वाले हों और रोग प्रतिरोधी हों. बीजों की गुणवत्ता और शुद्धता की जांच करें. बीजों का चयन करते समय जलवायु और मिट्टी के अनुसार उपयुक्त बीजों की बोआई करें.
चने की प्रमुख किस्में और उन की विशेषताएं
पूसा 372 : यह किस्म उच्च उपज देने वाली और रोग प्रतिरोधी है. इस की उपज 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है और अवधि 120-130 दिन है. यह फुसैरियम विल्ट और राइजोक्टोनिया रोग के प्रति प्रतिरोधी है.
काबुली चना 11 : यह किस्म जलवायु परिवर्तन के मुताबिक अनुकूल और उच्च उपज देने वाली है. इस की उपज 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है और अवधि 100-110 दिन है. यह फुसैरियम विल्ट और राइजोक्टोनिया रोग के प्रति प्रतिरोधी है.
हिमालयन 95 : यह किस्म उच्च उपज देने वाली और रोग प्रतिरोधी है. इस की उपज 22-28 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है और अवधि 110-120 दिन है. यह फुसैरियम विल्ट और राइजोक्टोनिया रोग के प्रति प्रतिरोधी है.
पूसा 112 : यह किस्म जलवायु परिवर्तन के मुताबिक अनुकूल और उच्च उपज देने वाली है. इस की उपज 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है और अवधि 120-130 दिन है. यह फुसैरियम विल्ट और राइजोक्टोनिया रोग के प्रति प्रतिरोधी है.
विजय : यह किस्म उच्च उपज देने वाली और रोग प्रतिरोधी है. इस की उपज 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है और अवधि 100-110 दिन है. यह फुसैरियम विल्ट और राइजोक्टोनिया रोग के प्रति प्रतिरोधी है.
काशी चना 1 : यह किस्म उच्च उपज देने वाली और रोग प्रतिरोधी है. इस की उपज 22-28 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है और अवधि 110-120 दिन है. यह फुसैरियम विल्ट और राइजोक्टोनिया रोग के प्रति प्रतिरोधी है.
पंत चना 234 : यह किस्म जलवायु परिवर्तन के मुताबिक अनुकूल और उच्च उपज देने वाली है. इस की उपज 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है और अवधि 120-130 दिन है. यह फुसैरियम विल्ट और राइजोक्टोनिया रोग के प्रति प्रतिरोधी है.
राज चना 201 : यह किस्म उच्च उपज देने वाली और रोग प्रतिरोधी है. इस की उपज 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है और अवधि 100-110 दिन है. यह फुसैरियम विल्ट और राइजोक्टोनिया रोग के प्रति प्रतिरोधी है.
एचके 11 : यह किस्म उच्च उपज देने वाली और रोग प्रतिरोधी है. इस की उपज 22-28 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है और अवधि 110-120 दिन है. यह फुसैरियम विल्ट और राइजोक्टोनिया रोग के प्रति प्रतिरोधी है.
बीजों का उपचार
चने की खेती में बीजों का उपचार एक महत्त्वपूर्ण चरण है, जो बीजों की गुणवत्ता और फसल की उत्पादकता को बढ़ाने में मदद करता है. बीजों के उपचार के मुख्य उद्देश्य हैं, बीजों की गुणवत्ता में सुधार करना, बीजों की अंकुरण दर बढ़ाना, फसल की उत्पादकता बढ़ाना और कीट व रोगों से बचाव करना.
बीजों के उपचार के लिए विभिन्न तरीके अपनाए जा सकते हैं. थीरम उपचार एक प्रभावी तरीका है, जिस में थीरम नामक फफूंदनाशक का उपयोग किया जाता है. इस के अलावा कार्बंडाजिम, टाइकोडर्मा, बाविस्टिन और पीएसबी कल्चर जैसे अन्य फफूंदनाशक का उपयोग किया जा सकता है. राइजोबियम नामक जैविक उर्वरक का उपयोग कर के बीजों को नाइट्रोजन दी जा सकती है.
बीजों के उपचार की विधि बहुत ही आसान है. सब से पहले बीजों को साफ किया जाता है. इस के बाद बीजों को उपचारित करने वाले कैमिकल के साथ मिलाया जाता है. बीजों को 10-15 मिनट तक उपचारित किया जाता है. इस के बाद बीजों को सुखाया जाता है और फिर बोया जाता है.
बोआई
सर्दियों की फसल के लिए अक्तूबरनवंबर माह में बोआई करें. बीजों को 3-4 सैंटीमीटर की गहराई और 10-15 सैंटीमीटर की दूरी पर बोएं. बोआई से पहले बीजों को जरूर उपचारित करें. बोआई के बाद खेत को अच्छी तरह पानी दें.
सिंचाई प्रबंधन
चने को मध्यम सिंचाई की जरूरत होती है. पहली सिंचाई बोआई के 20-25 दिन बाद करें. उस के बाद 15-20 दिन के अंतराल पर सिंचाई करें. सिंचाई के समय मिट्टी की नमी की जांच करें. सिंचाई की अधिक मात्रा से बचें, क्योंकि इस से फसल को नुकसान पहुंच सकता है.
निराईगुड़ाई
नियमित रूप से निराईगुड़ाई करें, ताकि खरपतवार न हों और मिट्टी में हवा और पानी का संचार होता रहे. निराईगुड़ाई से फसल की बढ़वार में मदद मिलती है. निराईगुड़ाई के समय फसल को नुकसान न पहुंचे. निराईगुड़ाई के लिए उचित समय और तरीके का चयन करें.
उर्वरक प्रबंधन
चने के लिए नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश की जरूरत होती है. बोआई से पहले 20 किलोग्राम नाइट्रोजन और 40 किलोग्राम फास्फोरस प्रति एकड़ की दर से डालें. उर्वरकों का उपयोग फसल की बढ़ोतरी में मदद करता है. उर्वरकों की अधिक मात्रा से बचें, क्योंकि इस से फसल को नुकसान पहुंच सकता है.
कीट व रोग प्रबंधन
चने में लगने वाले कीटों व रोगों से बचाव के लिए नियमित रूप से निरीक्षण करें. जरूरत के मुताबिक ही कीटनाशकों और फफूंदनाशकों का छिड़काव करें. जैविक कीटनाशकों का उपयोग करें. फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों व रोगों की पहचान करें और उन के नियंत्रण के लिए उचित तरीके अपनाएं.
चने में लगने वाले कीट
तेला : यह कीट चने की फसल को सब से ज्यादा नुकसान पहुंचाता है. इस के नियंत्रण के लिए इमिडाक्लोप्रिड 200 एसएल की 20 मिलीलिटर प्रति एकड़ या क्लोरपायरीफास 20 ईसी की 200 मिलीलिटर प्रति एकड़ की दर से छिड़कें.
हरा तेला : यह कीट चने की पत्तियों और फलियों को नुकसान पहुंचाता है. इस के नियंत्रण के लिए स्पिनोसैड 45 एससी की 20 मिलीलिटर प्रति एकड़ या बेसिलस थ्यूरिजिएंसिस 5 डब्ल्यूपी की 100 ग्राम प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करें.
माहू : यह कीट चने की पत्तियों और तनों पर हमला करता है. इस के नियंत्रण के लिए डिमेथोएट 30 ईसी की 200 मिलीलिटर प्रति एकड़, मैलाथियान 50 डब्ल्यूपी की 200 ग्राम प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करें.
चने में लगने वाले रोग
फुसैरियम विल्ट : यह रोग चने की फसल को सब से ज्यादा नुकसान पहुंचाता है. इस रोग के नियंत्रण के लिए कार्बंडाजिम 50 डब्ल्यूपी की 200 ग्राम प्रति एकड़, मैंकोजेब 75 डब्ल्यूपी की 400 ग्राम प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करें.
राइजोक्टोनिया : यह रोग चने की फसल की जड़ों को नुकसान पहुंचाता है. इस के नियंत्रण के लिए क्लोरोथैलोनिल 75 डब्ल्यूपी की 400 ग्राम प्रति एकड़, प्रोपिकोनाजोल 25 ईसी की 200 मिलीलिटर प्रति एकड़ का छिड़काव करें.
पाउडरी मिल्ड्यू : यह रोग चने की पत्तियों पर हमला करता है. इस के नियंत्रण के लिए ट्राइडेमोर्फ 25 डब्ल्यूपी की 200 ग्राम प्रति एकड़, डिनोकैप 25 की 200 ग्राम प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करें.
सुरक्षा उपाय
* कीटनाशकों और फफूंदनाशकोें का उपयोग करते समय सुरक्षा उपकरण पहनें.
* कीटनाशकों और फफूंदनाशकोें का उपयोग करने से पहले निर्देशों को पढ़ें.
* कीटनाशकों और फफूंदनाशकोें का उपयोग करने के बाद हाथ धो लें.
* कीटनाशकों और फफूंदनाशकोें का उपयोग करने से पहले फसल की स्थिति की जांच करें.
फसल कटाई
चने की फसल कटाई का समय आमतौर पर 100 से 120 दिनों के बीच होता है. जब फसल पूरी तरह पक जाती है और दाने सूख जाते हैं.
फसल कटाई के तरीके
मैनुअल कटाई : छोटे खेतों में फसल को हाथ से काटा जाता है.
मेकैनाइज्ड कटाई : बडे़ खेतों में फसल को मशीन से काटा जाता है.
कंबाइन हार्वेस्टर : यह मशीन फसल को काटती है, दाने को अलग करती है और साफ करती है.
फसल कटाई के बाद की प्रक्रिया
* दाने की साफसफाई.
* दाने की गुड़ाई.
* दाने का भंडारण.
* दाने की पैकेजिंग और बिक्री.
उन्नत खेती के लाभ
उन्नत खेती की तकनीकों और विधियों को अपनाने से निम्नलिखित लाभ प्राप्त होते हैं :
उत्पादन में वृद्धि : उन्नत खेती की तकनीकें जैसे वैज्ञानिक उर्वरक प्रबंधन, नई किस्मों का चयन और आधुनिक सिंचाई विधियां उच्च उत्पादन सुनिश्चित करती हैं. इस से किसानों की आय बढ़ती है और खाद्य सुरक्षा में सुधार होता है.
खेती की लागत में कमी : उन्नत विधियां जैसे ड्रिप इरिगेशन और सूक्ष्म उर्वरक प्रबंधन संसाधनों के कुशल उपयोग की अनुमति देती हैं, जिस से लागत कम होती है. इस से किसानों को अधिक लाभ प्राप्त होता है.
फसल की गुणवत्ता में सुधार : उन्नत तकनीकों का उपयोग फसल की गुणवत्ता को बेहतर बनाता है. नई किस्में और प्रभावी उर्वरक प्रबंधन से चने की फसल का स्वाद, पोषण और उपज गुणवत्ता में सुधार होता है.
पर्यावरणीय संरक्षण : उन्नत खेती तकनीकें पर्यावरणीय प्रभावों को कम करने में सहायक होती हैं. उर्वरक का उचित प्रबंधन, पानी की निकासी कम, कीटनाशक का उपयोग और सतत कृषि विधियां पर्यावरण की रक्षा करती हैं और मिट्टी की उर्वरता को बनाए रखती हैं.
रोग व कीट प्रबंधन : उन्नत खेती में रोगों और कीटों का प्रबंधन अधिक प्रभावी ढंग से किया जाता है. नई तकनीकें व उन्नत कीटनाशक और फफूंदीनाशक का उपयोग फसल को रोगों व कीटों से बचाता है.