गेहूं में कीटों, सूत्रकृमियों एवं रोग के कारण 5-10 फीसदी उपज की हानि होती है और दानों व बीजों की गुणवत्ता भी खराब होती है. इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए यहां रोगों की पहचान के लक्षण, उन का प्रबंधन एवं अंत में गेहूं में लगने वाले कीटों एवं रोगों के समेकित रोग प्रबंधन की जानकारी दी जा रही है.

रासायनिक दवाओं के अत्यधिक प्रयोग से उन का प्रभाव फसलों में पाए जाने वाले रोगाणुओं पर कम होने लगा है, पर्यावरण दूषित हो रहा है, मित्र कीटों को अपनी स्थापना बनाए रखने में परेशानी हो रही है. खाद्य पदार्थों में रोगाणुनाशियों के अवशेष रह जाने से मानव सेहत के लिए गंभीर संकट पैदा हो गया है. लिहाजा, सुनियोजित एवं विवेकपूर्ण फसल प्रबंधन योजनाएं ही फसलों पर आने वाले रोगों से सुरक्षित कर अधिक उपज प्राप्त करने में मुख्य भूमिका निभाती है.

वास्तव में यही समेकित रोग प्रबंधन है. आज के दिन हम बढ़ती जनसंख्या के लिए खाद्यान्न की मांग को पूरा नहीं कर पा रहे हैं. आज गेहूं की उपज बढ़ाने में भी बाधाएं आ रही हैं, इसलिए पौध रोग सुरक्षा का विशेष महत्त्व है. अत: इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए यदि गेहूं में लगने वाले कीटों को एक सीमा तक नियंत्रित कर दिया जाए, तो गेहूं की उत्पादकता को बढ़ाते हुए गेहूं के उत्पादन में काफी सुधार लाया जा सकता है.

गेहूं के प्रमुख कीटों का नियंत्रण

दीमक

दीमक असिंचित एवं हलकी भूमि का एक प्र्रमुख हानिकार कीट है. इस का प्रकोप फसल की सभी अवस्थाओं में पाया जाता है. दीमक जमीन में सुरंग बना कर रहती है और पौधों को जड़ों से खाती है.

यह हलके भूरे रंग की होती है और पौधों की जड़ों को काट कर नुकसान कर देती है. इस के प्रकोपित पौधे सूख जाते हैं और आसानी से निकल जाते हैं. इस का प्रकोप टुकड़ों में होता है, जिसे आसानी से पहचाना जाता है.

नियंत्रण

* 1 किलोग्राम बिवेरिया और 1 किलोग्राम मेटारिजियम को लगभग 25 किलोग्राम गोबर की सड़ी हुई खाद मे अच्छी तरह मिला कर छाया में 10 दिन के लिए छोड़ कर बिखेर दें.

* प्रकोप अधिक होने पर क्लेरोपाइरीफास 20 ईसी की 3-4 लिटर मात्रा को 50 किलोग्राम बीज को बालू रेत में मिला कर प्रति हेक्टेयर प्रयोग करें.

* बीज को बोआई से पूर्व इमिडाक्लोप्रिड 70 डब्ल्यूएस 0.1 फीसदी क्लेरोपाइरीफास 20 ईसी, 0.9 ग्राम प्रति किलोग्राम, थायोमेंक्जाम 70 डब्लूएस 0.7 ग्राम प्रति किलोग्राम, फिप्रोनिल 5 एफएस 3 ग्राम प्रति किलोग्राम से उपचारित कर लेना चाहिए.

माहू

गेहूं में 2 प्रकार के माहू लगते हैं. पहला, जड़ का माहू रोग कारक रोपालोसाइफम रूफीअवडांमिनौलिस नामक कीट है. दूसरा, पत्ती का माहू. यह सीटोबिनयन अनेनी, रोपालोसारफम पाड़ी और इस की विभिन्न जातियों से होता है. यह फसल की पत्तियों का रस चूस कर नुकसान करती है और इन के मल से पत्तियों पर काली रंग की फफूंदी पैदा हो जाती है, जिस से फसल का रंग खराब हो जाता है.

नियंत्रण

* माहू का प्रकोप होने पर पीले चिपचिपे ट्रैप का प्रयोग करें, जिस से माहू ट्रैप पर चिपक कर मर जाएं.

* परभक्षी काक्सीनेलिड्स अथवा सिरफिड अथवा क्राइसोपरला कार्निया का संरक्षण कर 50,000-1,00,000 अंडे या सूंड़ी प्रति हेक्टयर की दर से छोड़ें.

* इंडोपथोरा व वर्टिसिलयम लेकानाई इंटोमोपथोजनिक फंजाई (रोगकारक कवक) का माहू का प्रकोप होने पर छिड़काव करें.

* आवश्यकता होने पर इमिडाक्लोप्रिड़ 17 एसएल या डाइमेथोएट 30 ईसी या मेटास्सिटौक्स 25 ईसी 1.25-2.0 मिली. प्रति लिटर की दर से छिड़काव करना चाहिए.

पीला तना छेदक

गेहूं में पीला तना छेदक उन खेतों में देखा गया है, जहां पर धान के बाद गेहूं टिलेज विधि से बोया जाता है. इस की सूंड़ी तने के निचले भाग में या पत्तियों के नीचे अंडे देती है. अंडे से सूंड़ी निकल कर तने में छेद कर के अंदर प्रवेश कर जाती है और अंदर से तने को खाती रहती है. तने के अंदर सुरंग बना कर मृत केंद्र डेडहार्ट का निर्माण करती है. फलस्वरूप, पौधा पीला पड़ जाता है और अंत में सूख जाता है.

नियंत्रण

* कीटनाशी रसायन इमिडाक्लोप्रिड 17 एसएल 1 मिलीलिटर प्रति लिटर या साइपरमेथ्रिन 25 फीसदी की 350 मिलीलिटर मात्रा प्रति हेक्टयर की दर से छिड़काव करें.

गेहूं का बाली

काकिल निमेटोड

यह रोग एंग्वीना ट्रीटसी नामक सूत्रकृमि के द्वारा होता है, जो कि बीज के साथ रह कर जीवित रहता है. रोग से संक्रमित पौधों की पत्तियां ऐंठी हुई और कुंचित हो जाती हैं. बालियों का आकार भी टेढ़ामेढ़ा होता है. रोगग्रस्त पौधों की बढ़वार स्वस्थ पौधों की तुलना में कम होती है एवं रोगी पौधों की बालियां ज्यादा समय तक हरी बनी रहती हैं, अत: देर से पकती हैं. बालियों में दानों की जगह भूरे व काले रंग के इलायची के दाने के बराबर कठोर संरचना बन जाती है.

नियंत्रण

* एक ही खेत में 3 सालों तक गेहूं न बोएं. इस के स्थान पर जौ या जई की बोआई करें.

* बीज को 10 फीसदी नमक के घोल में डुबो कर ऊपर तैरते बीज को छान कर जला दें और नीचे तल में बैठे बीज को 3-4 बार साफ पानी से धो कर उसे छाया में सुखा लें.

गेहूं के प्रमुख रोग एवं प्रबंधन

धारीदार रतुआ/पीला रतुआ

यह पक्सिनिया स्ट्रीफासिम नामक फफूंद के द्वारा फैलता है. यह रोग दिसंबरजनवरी माह में दिखाई देता है. इस रोग के लक्षण पत्तियों पर धारियों में चमकीले पीले रंग के धब्बे दिखाई देते हैं. रोग की अंतिम अवस्था में धब्बे काले पड़ जाते हैं.

यह रोग ठंडे व नम वातावरण में अधिक होता है. रोग का प्रकोप पौधों की बढ़वार अवस्था के समय या दाने पड़ने से पहले होता है, इसलिए नुकसान अधिक होता है.

रोग पौधों की बालियों के दाने हलके कमजोर या अधिक प्रभाव होने पर बाली में दाने नहीं बनते हैं, जिस के कारण उपज में भारी कमी आ जाती है.

पत्ती का रतुआ/ भूरा रतुआ

गेहूं का यह विनाशकारी रोग पक्सिनिया रिकानडिटा ट्रीटीसी नामक फफूंद के द्वारा फैलता है. इस रोग के लक्षण पत्तियों पर ही अधिक दिखाई देते हैं. शुरू में पत्तियों की ऊपरी सतह पर अनियमित रूप के बिखरे भूरे या नारंगी रंग के बहुत छोटेछोटे धब्बे बन जाते हैं, जो बाद में काले हो जाते हैं. उस के बाद ये धब्बे पत्तियों की निचली सतह पर भी हो जाते हैं. रोग के अधिक प्रकोप होने पर धब्बे पर्णच्छद और तने पर भी बन जाते हैं.

तना रतुआ/काला रतुआ

यह रोग पक्सिनिया ट्रीटीसी नामक फफूंद के कारण फैलता है. इस का प्रकोप तने पर होता है और तने के ऊपर लंबे लाल व भूरे उभरे हुए धब्बे बन जाते हैं, जो अधिक प्रकोप होने पर पौधे के अन्य भागों में फैल जाते हैं. पत्तियों के निचली सतह, डंठल एवं बालियों में भूरे रंग के धब्बे दिखाई देते हैं. शुरू में ये धब्बे बहुत छोटे होते हैं, बाद में धीरेधीरे बड़े हो कर एकदूसरे से मिल कर गहरे भूरे रंग के दिखाई देने लगते हैं.

रतुआ रोगों की रोकथाम

* कवनाशी प्रांपिकोनाजोल (टिल्ट 25 ईसी 0.1 फीसदी) या टेबुकोनाजोल 25 ईसी 0.1 फीसदी या ट्रिडेमेफोन (बेलेटोन 25 डब्ल्यूपी 0.1 फीसदी) धारीदार रतुआ के लिए 200 लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए.

* गेरुआ (भूरा कीट) रोग के नियंत्रण के लिए टिल्ट 25 ईसी (0.1 फीसदी) या मैंकोजेब (0.2 फीसदी) का छिड़काव करें.

अनावृत कंडुआ या लूज स्मट

इस का रोगजनक एक कवक एस्टीलेगो सेजेटम प्रजाति ट्रीटिसाई बीज के भ्रूण भाग में छिपा रहता है और संक्रमित बीज ऊपर से देखने में बिलकुल स्वस्थ बीजों की तरह दिखाई देता है. इस रोग के लक्षण बाली आने पर ही दिखाई देते हैं. रोगी पौधों की बालियों में दानों की जगह रोगजनक के रोगकंड काले पाउडर के रूप में पाए जाते हैं, जो हवा से उड़ कर अन्य स्वस्थ बालियों में बन रहे बीजों को भी संक्रमित कर देते हैं. इस प्रकार रोग आने वाली फसल में पहुंच जाता है.

रोकथाम

* बीज को बोआई से पूर्व वीटावैक्स या कार्बोक्सिन (75 डब्ल्यूपी 2-2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज) या कार्बंडाजिम (50 डब्ल्यूपी 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज) या टेबुकोनाजोल (2 डीएस/1.25 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज) ट्राईकोडर्मा विरडी 4 ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से बीजोपचार अवश्य करें.

* गेहूं की रोगी बालियां खेतों में दिखाई देते ही उसे सावधानीपूर्वक पौलीथिन की थैली में एकत्रित कर के जला दें.

बीजोपचार से रोगों का नियंत्रण : भौतिक, जैविक व रासायनिक बीजोपचार से रोगों का नियंत्रण काफी हद तक संभव है.

चूर्णिल आसिता

यह रोग इरीसिफी ग्रैमेनिस ट्रीटिसाई नामक कवक से होता है. इस रोग से पत्तियों की ऊपरी सतह पर गेहूं के आटे के रंग के सफेद धब्बे पड़ जाते हैं, जो उपयुक्त परिस्थतियां होने पर बालियों तक पहुंच जाते हैं. तापमान बढ़ने पर इन सफेद भूरे धब्बों में आलपिन की नोक के आकार के गहरे भूरे क्लिस्टोथिसिया बन जाते हैं और इस रोग का फैलाव रुक जाता है. यह रोग मेंड़ पर उगने वाली और पेड़ों की छाया वाली फसल में अधिक लगता है. इस रोग के कारण दाना हलका बनता है.

रोकथाम

* फसल की कटाई के पश्चात खेत में पड़े पौध अवशेषों को एकत्र कर जला देना चाहिए.

* 1500 ग्राम मैंकोजेब या डाइथेन एम-45+525 ग्राम कैरेथेन के मिश्रण को 1,000 लिटर पानी में घोल कर 3 बार प्रति हेक्टेयर की दर से पहला व दूसरा छिड़काव 10 से 14 दिन के अंतर पर करना चाहिए.

* टेबुकोनाजोल (टिल्ट 25 ईसी 0.1 फीसदी) की दर से पत्तियों पर रोग दिखने पर बाली निकलते समय छिड़काव करना चाहिए.

पर्ण झुलसा या लीफ ब्लाइट

यह रोग मुख्यत: बाईपोलेरिस सोरोकिनिया नामक कवक से पैदा होता है. इस रोग के लक्षण पौधे के सभी भागों पर पाए जाते हैं और पत्तियों पर अधिक होते हैं. इस प्रकार हरी पत्तियां समय से पहले सूख जाती हैं और बनने वाले दाने भी बदरंग, हलके और आकार में सिकुड़ जाते हैं. इस प्रकार के बीजों की अंकुरण क्षमता कम हो जाती है.

रोकथाम

* बीजों को बोने से पहले 4 घंटे पानी में भिगो कर 10 मिनट तक 52श-54श सैंटीग्रेड के गरम पानी में रखने से बीजोढ़ कवक नष्ट हो जाता है.

* बोआई से पूर्व बीज को वीटावैक्स 200 का प्रयोग 4 ग्राम अथवा ट्राइकोडर्मा विरडी 4 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर लगाएं.

* खड़ी फसल में रोग दिखाई देते ही प्रोपिकोनाजोल (टिल्ट 25 ईसी) या टेबुकोनाजोल 0.5 लिटर 500-600 लिटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव कर रोग को नियंत्रित कर सकते हैं.

कटाई एवं मड़ाई

जब दाना पक जाए अथवा दांत से तोड़ने पर कट की आवाज आए, तो समझना चाहिए कि फसल कटाई के लिए तैयार हो गई है. फसल की कटाई उपलब्ध साधनों के आधार पर हंसिया, टै्रक्टर चालित रीपर या कंबाइन से की जा सकती है.

उपज

यदि किसान समय से उन्नत शस्य विधियों का प्रयोग करता है, तो वह उगाई गई प्रजाति की उत्पादन क्षमता को अधिकाधिक प्राप्त कर सकता है, जिस में लगभग 60 से 75 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है.

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