भारत की आबादी तकरीबन डेढ़ अरब है. अब यह दुनिया का सब से बड़ी आबादी वाला देश हो चुका है. वहीं प्राकृतिक संसाधनों के दोहन का दबाव भी बढ़ रहा है. बढ़ी हुई आबादी ने देश में खाद्यान्न की मांग में भी बढ़ोतरी की है.
चूंकि भारत प्राकृतिक विविधताओं वाला देश है. ऐसे में हम अब भी ऐसी स्थिति में हैं कि देश के डेढ़ अरब लोगों के पेट भरने के लिए भरपूर मात्रा में खाद्यान्न कर पाने में सक्षम हैं, लेकिन बीते 2-3 दशकों में मौसम चक्र में तेजी से परिवर्तन आने से अब खेती पर खतरा मंडराने लगा है.
देश के जिन हिस्सों में जून महीने में मानसून सक्रिय हो जाता था, उन हिस्सों में अब मानसून के देरी से दस्तक देने के चलते वर्षा आधारित फसलों के उत्पादन में तेजी से कमी आई है. जलवायु परिवर्तन के चलते जहां वर्षा में कमी आई है, वहीं शरद ऋतु में कम ठंड ने रबी सीजन की फसलों के उत्पादन में कमी लाने का काम किया है. जलवायु परिवर्तन का खतरा सिर्फ देश के मैदानी इलाके ही नहीं झेल रहे हैं, बल्कि इस का सीधा प्रभाव पहाड़ी और ठंडे प्रदेशों पर भी दिखाई पड़ने लगा है.
जलवायु परिवर्तन का सीधा उदाहरण हम हिमाचल प्रदेश से ले सकते हैं. साल 2023 में हिमाचल प्रदेश में भीषण बारिश ने यहां के कई जिलों को पूरी तरह से तबाह कर के रख दिया.
अगर हम अकेले हिमाचल प्रदेश की बात करें, तो यह ठंडे प्रदेशों में गिना जाता है. इसलिए यहां कम तापमान में पैदा होने वाली फसलें ही उगाई जाती हैं, लेकिन पिछले कुछ सालों में ठंडे प्रदेशों में भी गरमी बढ़ने से ठंड में पैदा होने वाली फसलें भी बुरी तरह से प्रभावित हुई हैं.
हिमाचल प्रदेश में पैदा होने वाले सेब की अगर बात करें, तो जलवायु परिवर्तन के चलते यहां के तापमान में वृद्धि हुई है. इस वजह से वहां सेब के पौधे अब सूख रहे हैं. सेब के बागानों में बीमारियों और कीटों का प्रकोप बढ़ रहा है. अब केवल अधिक ऊंचाई पर सेब उत्पादन होने से उस के उत्पादन में कमी आई है.
यही हाल मैदानी इलाकों का भी है. जूनजुलाई में कम बारिश और सितंबरअक्तूबर में बेमौसम बारिश और ओले ने खरीफ सीजन की फसल और उत्पादन पर बुरा प्रभाव डाला है. मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र में कपास, सोयाबीन और गन्ने का उत्पादन असमय बारिश, ओला, कीट और बीमारियों के चलते घट रहा है.
देश की तकरीबन 70 फीसदी आबादी आज भी कृषि पर निर्भर है, लेकिन जलवायु परिवर्तन की चुनौती रोजमर्रा की आजीविका के संघर्ष एवं व्यस्त दिनचर्या के चलते लोगों के लिए यह गंभीरता का विषय नहीं बन पाई है. लेकिन हकीकत तो यह है कि हवा, पानी, खेती, भोजन, स्वास्थ्य, आजीविका एवं आवास आदि सभी पर प्रतिकूल असर डालने वाली इस समस्या से देरसवेर कमज्यादा हम सभी का जीवन प्रभावित होता है, चाहे वह समुद्री जलस्तर बढ़ने से प्रभावित होते तटीय या द्वीपीय क्षेत्रों के लोग हों या असामान्य मानसून अथवा जल संकट से त्रस्त किसान. विनाशकारी समुद्री तूफान का कहर झेलते तटवासी हों अथवा सूखे एवं बाढ़ की विकट स्थितियों से त्रस्त लोग. असामान्य मौसमजनित अजीबोगरीब बीमारियों से जूझते लोग हों या विनाशकारी बाढ़ में अपना आवास एवं सबकुछ गवां बैठे और दूसरे क्षेत्रों को पलायन करते लोग. दरअसल, ये तमाम लोग जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहे हैं.
खेतीबागबानी की घट रही पैदावार कूवत
जलवायु में परिवर्तन केवल भारत का ही मुद्दा नहीं है, बल्कि यह दुनियाभर के लिए एक चुनौती के रूप में उभरा है, इसलिए वैश्विक लेवल पर भी जलवायु परिवर्तन की वजह से मौसम चक्र में आ रहे बदलाव को रोकने के लिए दुनिया के सभी देश भी एकजुट हो कर प्रयास कर रहे हैं. सतत विकास लक्ष्य, जी-20 इत्यादि के जरीए जलवायु परिवर्तन पर ठोस प्रयास किए जा रहे हैं.
अगर हम जलवायु परिवर्तन की वजह से कृषि और बागबानी पर पड़ रहे प्रभाव के कुछ वर्षों के आंकड़ों का का अध्ययन करें, तो देश में बढ़ रहे तापमान के चलते गेहूं, धान, दलहन, तिलहन आदि फसलों के उत्पादन में कमी आई है. अगर तापमान में 1 डिगरी सैल्सियस की भी बढ़ोतरी हो रही है, तो तापमान बढ़ने पर गेहूं का उत्पादन 4-5 करोड़ टन कम होता जाएगा.
अगर किसान इस के बोने का समय सही कर लें, तो उत्पादन की गिरावट 1-2 टन कम हो सकती है. कुछ यही हाल धान्य फसलों का भी है. यह अनुमान है कि तापमान में 2 डिगरी सैल्सियस की तापमान वृद्धि से धान का उत्पादन 0.75 टन प्रति हेक्टेयर कम हो जाएगा.
मिट्टी की उत्पादकता पर संकट
तापमान में बढ़ोतरी के चलते मिट्टी में नमी और जल धारण की क्षमता कम हो रही है. इस वजह से मिट्टी में लवणता में बढ़ोतरी और जैव विविधता में कमी देखी जा सकती है. सूखा, बाढ़, भूस्खलन, बादल फटने आदि के कारण मिट्टी क्षरण और बंजर क्षेत्र में वृद्धि दर्ज की जा रही है.
कीट व बीमारियों में बढ़ोतरी
जलवायु परिवर्तन और तापमान में बढ़ोतरी ने फसलों में कीट और बीमारियों का प्रकोप बढ़ा दिया है. जलवायु के गरम होने से फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीटपतंगों की प्रजनन क्षमता तेजी से बढ़ रही है और बढ़ रहे कीटपतंगों की रोकथाम के लिए अत्यधिक कीटनाशकों के उपयोग से मनुष्य की सेहत पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है.
सिंचाई के लिए जल संकट
जलवायु परिवर्तन और तापमान में बढ़ोतरी के चलते जल आपूति की समस्या के साथ ही बाढ़ और सूखे में बढ़ोतरी हुई है. शुष्क मौसम में लंबे समय तक वर्षा, वर्षा की अनिश्चितता ने भी फसल उत्पादन पर बुरा प्रभाव डालना शुरू कर दिया है. जलवायु परिवर्तन ने जल संसाधनों के दोहन से भूगर्भ जल में कमी लाने का काम किया है.
पृथ्वी पर इस समय 140 करोड़ घनमीटर जल है. इस का 97 फीसदी भाग खारा पानी है, जो समुद्र में है. मनुष्य के हिस्से में कुल 136 हजार घनमीटर जल ही बचता है. पानी 3 रूपों में पाया जाता है- तरल, जो कि समुद्र, नदियों, तालाबों और भूमिगत जल में पाया जाता है, ठोस- जो कि बर्फ के रूप में पाया जाता है और गैस वाष्पीकरण द्वारा, जो पानी वातावरण में गैस के रूप में मौजूद होता है.
पूरे विश्व में पानी की खपत प्रत्येक 20 साल में दोगुनी हो जाती है, जबकि धरती पर उपलब्ध पानी की मात्रा सीमित है. शहरी क्षेत्रों में, कृषि क्षेत्रों में और उद्योगों में बहुत ज्यादा पानी बेकार जाता है.
यह अनुमान लगाया जा रहा है कि यदि सही ढंग से इसे व्यवस्थित किया जाए, तो 40 से 50 फीसदी तक पानी की बचत की जा सकती है. वहीं दूसरी ओर पीने के पानी के साथसाथ कृषि व उद्योगों के लिए भी इसी जल का उपयोग किया जाता है.
आबादी बढ़ने के साथ ही पानी की मांग में बढ़ोतरी होने लगी है. यह स्वाभाविक है, परंतु बढ़ते जल प्रदूषण और उचित जल प्रबंधन न होने के कारण पानी आज एक समस्या बनने लगी है. सारी दुनिया में पीने योग्य पानी का अभाव होने लगा है.
गांवों में पानी के पारंपरिक स्रोत लगभग समाप्त होते जा रहे हैं. गांव के तालाब, पोखर, कुओं का जलस्तर बनाए रखने में मददगार होते थे. किसान अपने खेतों में अधिक से अधिक वर्षा जल का संचय करता था, ताकि जमीन की आर्द्रता व उपजाऊपन बना रहे. पर अब बिजली से ट्यूबवेल चला कर और कम दामों में बिजली की उपलब्धता से किसानों ने अपने खेतों में जल का संरक्षण करना छोड़ दिया.
घट रही उत्पादन गुणवत्ता
जलवायु परिवर्तन से न केवल उत्पादन पर प्रभाव पड़ रहा है, बल्कि यह फसल की गुणवत्ता को भी प्रभावित कर रहा है. इस से अनाज में पोषक तत्वों की कमी आ रही है. इस वजह से असंतुलित और कम पोषक तत्वों वाले भोजन के ग्रहण करने से मनुष्य के स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ रहा है. इस के अलावा फसलों पर कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग ने कृषि उत्पादों को भी जहरीला बना दिया है.
जलवायु परिवर्तन ने न केवल फसल उत्पादन को प्रभावित किया है, बल्कि इस ने पशुओं पर विपरीत प्रभाव डालना शुरू कर दिया है. तापमान बढ़ने से जानवरों के दूध उत्पादन व प्रजनन क्षमता पर सीधा असर पड़ रहा है.
यह अनुमान लगाया जा रहा है कि अगर तापमान में बढ़ोतरी इसी तरह जारी रही, तो दूध उत्पादन में वर्ष 2020 तक 1.6 करोड़ टन और वर्ष 2050 तक 15 करोड़ टन तक गिरावट आ सकती है.
इस के अलावा सब से अधिक गिरावट संकर नस्ल की गायों में (0.63 फीसदी), भैसों में (0.50 फीसदी) और देसी नस्लों में (0.40 फीसदी) होगी, क्योंकि संकर नस्ल की प्रजातियां गरमी के प्रति कम सहनशील होती हैं, इसलिए उन की प्रजनन क्षमता से ले कर दुग्ध क्षमता ज्यादा प्रभावित होगी. जबकि देसी नस्ल के पशुओं में जलवायु परिवर्तन का प्रभाव कुछ कम दिखेगा.
ऐसे कम कर सकते हैं जलवायु परिवर्तन के कुप्रभाव
जलवायु परिवर्तन में कमी लाने के पहले उस के कुप्रभाव में भी कटौती करने के उपायों की तरफ सोचना होगा. इस के लिए खेतो में जल प्रबंधन, जैविक, प्राकृतिक और समेकित खेती को बढ़ावा, फसल उत्पादन की टिकाऊ और नई तकनीकी का विकास, फसल संयोजन में परिवर्तन, खेती की पारंपरिक विधियों को बढ़ावा इत्यादि कर के जलवायु परिवर्तन के कुप्रभाव को कम किया जा सकता है.
जलवायु परिवर्तन की वजह से मौसम चक्र में आ रहे बदलाव को रोकने के लिए सतत कृषि और भूमि उपयोग के प्रबंधन की तरफ ध्यान देना होगा, कृषि प्रथाओं में परिवर्तन- जैसे कि मांस की खपत को कम करना, पुनर्योजी कृषि को अपनाना और आर्द्र भूमि और घास के मैदानों की रक्षा करने की तरफ ध्यान देना होगा.
हम तापमान में बढ़ोतरी को नवीकरणीय ऊर्जा, अक्षय ऊर्जा स्रोतों जैसे कि पवन, सौर और जल विद्युत से भी रोक सकते हैं. साथ ही, लोगों को कम से कम फ्लाइटों का उपयोग करने की आदत डालनी होगी. डीजल और पेट्रोल से चलने वाली कारों की जगह इलैक्ट्रिक कार के उपयोग की आदत डालनी होगी. कम ऊर्जा खपत वाले सामान के उपयोग पर फोकस करना होगा. साथ ही, अधिक से अधिक पौध रोपण को बढ़ावा दे कर पौधों को सुरक्षित रखने की आदत डालनी होगी.
इस के अलावा हमें वैश्विक स्तर पर संचालित अभियानों का हिस्सा बन कर जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए किए जा रहे प्रयासों में गंभीरता से जिम्मेदारी निभानी होगी, तभी हम जलवायु परिवर्तन और तापमान में बढ़ोतरी को रोक पाएंगे, अन्यथा आने वाले कुछ वर्षों में दुनिया के सामने जलवायु परिवर्तन और तापमान में बढ़ोतरी हमारे सामने खाद्यान्न संकट के रूप में खड़ा होगा.