22 मार्च को पूरी दुनिया में ‘विश्व जल दिवस’ मनाया जाता है. इस के लिए मुहिम भी चलाई जाती है, लेकिन एक सवाल आप के मन में जरूर कौंधता होगा कि क्या सच में साफ पानी के बिना हमारा वजूद खतरे में है?
एक तरफ जहां बोतलबंद पानी की पहुंच शहरों से दूर गांवदेहातों में हो गई है वहीं दूसरी ओर आरओ को ले कर चौंकाने वाली खबरों ने नए सिरे से सोचने पर मजबूर कर दिया है.
अमेरिका में हुई रिसर्च में पता चला है जिस में एक्वा, एक्वाफिना और नेस्लेप्योर समेत कई नामीगिरामी कंपनियों के पानी में प्लास्टिक के खतरनाक कण मिले हैं.
अब सवाल यह है कि जब इतना रुपया खर्च करने के बाद भी शुद्धता की गारंटी नहीं तब हम क्यों दिखावे के लिए पैसे लुटाएं?
विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक, कैंसर से दुनिया में होने वाली कुल मौतों में अगर 3.7 फीसदी लोग कैंसर, 4.9 फीसदी एड्स से मरते हैं तो पानी की बीमारियों (सिर्फ दस्त और सांस में संक्रमण) से 10 फीसदी लोगों की जानें जाती हैं यानी बाकी रोगों, हादसों के लिए पानी ज्यादा खतरनाक है.
पहले के समय में आरओ जैसी कोई तकनीक नहीं थी तो क्या वह सब दूषित यानी गंदा पानी पीते थे? जवाब है नहीं क्योंकि पहले के समय में लोग पानी को देशी तरीके से शुद्ध कर पीते थे, जिस से उन्हें साफ पानी मिलता था.
हम कुछ ऐसी विधियां बता रहे हैं, जिन से न सिर्फ आप दूषित पानी को शुद्ध कर पाएंगे बल्कि पैसे भी बचेंगे और सेहत भी बनेगी.
हमारे देश में एक जगह है पातालकोट, यहां के आदिवासी सरकारी या किसी दूसरी संस्था की मदद के बिना ही प्राचीनकाल के पारंपरिक नुसखों का इस्तेमाल कर पानी को साफ कर रहे हैं. वे अपने पुरखों से मिली जानकारी के आधार पर उपलब्ध जलस्रोतों से पानी जमा कर उन को साफ करते हैं और उसे पीने लायक बनाते हैं.
सदियों से चली आ रही इस परंपरा को कोई भले ही शंका की नजर से देखे लेकिन अब इस का दमखम आधुनिक विज्ञान भी मान रहा है.
मध्य प्रदेश में एक ऐसा इलाका भी है, जहां प्राकृतिक तरीके से पानी को साफ किया जा रहा है.
छिंदवाड़ा जिला मुख्यालय से तकरीबन 80 किलोमीटर दूर पातालकोट घाटी सदियों से वनवासियों का निवास स्थान रहा है. गोंड़ और भारिया जनजाति के वनवासी यहां सैकड़ों सालों से रह रहे हैं.
बाकी दुनिया से अलगथलग यह इलाका समाज की मुख्यधारा से काफी पीछे है. यहां के वनवासी सेहत संबंधी उपचारों, दैनिक दिनचर्या और खुद के रहनसहन में प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल करते रहे हैं, उसे देख कर शहरी समाज पिछड़ा हुआ लगता है.
घोड़े की नाल के आकार और 79 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैली इस घाटी के वनवासियों को अपनी हर छोटीबड़ी जरूरतों के लिए आत्मनिर्भर होना पड़ता है.
दिलचस्प बात यह है कि इन लोगों के पास अपनी हर समस्या का समाधान भी है, जिसे मूल स्थान से पूरा करते हैं.
पातालकोट धरातल से तकरीबन 3,000 फुट नीचे एक गहरी खाई में बसा हुआ है. यहां तकरीबन 2,500 वनवासियों का प्राकृतिक आवास है, जो 16 गांवों में फैला हुआ है.
चारों ओर पहाड़ों और चट्टानों से घिरी इस घाटी की बनावट ही ऐसी है कि पानी रुक नहीं सकता, जबकि बारिश खूब होती है.
पातालकोट के वनवासियों को खेती से ले कर पीने के पानी तक के लिए पूरी तरह बारिश पर निर्भर रहना पड़ता है. गरमियों में सभी जलस्रोत सूख जाते हैं. इस दौरान पहाड़ों के करीब प्राकृतिक रूप से बने झरनों, झिरियों और पोखरों में भरे पानी से ही इन वनवासियों का गुजारा होता है.
पातालकोट वनवासी पीढि़यों से पारंपरिक तरीकों से अशुद्ध पानी को पीने लायक बनाते हैं. निर्गुंडी, निर्मली, सहजन, कमल, खसखस, इलायची जैसी वनस्पतियों का इस्तेमाल कर आज भी पानी को साफ करने की इन देशी तकनीकों को आम शहरी लोग भी घरेलू लेवल पर अपना सकते हैं.
सूर्य से शुद्धीकरण
पातालकोट में मंडा रास्ता, घुरनी और मालनी जैसे कसबे दूर के इलाकों में बसे हैं. सुबहसुबह गांवों की औरतें कांसे और पीतल की घुंडियां (घड़े के आकार के बरतन) और मटकों को सिर पर ले कर पहाड़ों की तलहटी में बनी झिरियों तक जाती हैं.
झिरिया पहाड़ों की दरारों से पानी के धीमेधीमे रिस कर नीचे आने की जगह होती है. यहां वनवासी एक कुंड या गोल गड्ढा बना कर पानी को रोक लेते हैं.
औरतें इस पानी को बरतनों में ले कर घर ले जाती हैं. गरमियों में पानी से भरी घुंडियों को अपने घरों की छत पर धूप में रख देते हैं.
यहां के बुजुर्गों का मानना है कि ऐसा करने से दिनभर धूप की गरमी पानी पर पड़ती है और शाम होतेहोते पानी की सारी अशुद्धियां खत्म हो जाती हैं. सूरज ढल जाने के बाद शाम से इस पानी को पीने लायक माना जाता है.
इंटरनैशनल जर्नल औफ फार्मास्यूटिकल रिसर्च ऐंड साइंस (2013) में डाक्टर आर. राजेंद्रन ने अपने एक लेख में बताया है कि यूनीसेफ भी इस बात को मानता है कि 24 घंटों तक पानी को कांच के जार या बरतन में सूरज की रोशनी में रखा जाए तो पानी में बसे एस्चरेसिया कोलाई नामक बैक्टीरिया का सफाया हो जाता है.
निर्गुंडी की पत्ती
निर्गुंडी (वाईटैक्स निगुंडो) का पेड़ इस घाटी में खूब देखा जा सकता है. इसे पानी पत्ती भी कहा जाता है. इस के बीजों का इस्तेमाल भी पानी को साफ करने के लिए किया जाता है.
पानी में मिट्टी के कण, कीचड़ व दूसरी गंदगियों को साफ करने के लिए निर्गुंडी (वाईटैक्स निगुंडो/चेस्ट ट्री) नामक पौधे की पत्तियों का इस्तेमाल किया जाता है.
इस मैले पानी को घड़े या मटके में भर लिया जाता है और आधे घड़े तक निर्गुंडी की पत्तियों को भर दिया जाता है, फिर आधे से एक घंटे के लिए ढक कर रखा जाता है. ऐसा करने से पानी में मौजूद गंदगी नीचे बैठ जाती है.
निर्मली के बीज
झिरियों से साफ पानी हासिल करने के लिए निर्मली के बीजों का खूब इस्तेमाल किया जाता है. निर्मली (स्ट्रिकनोस पोटेटोरम) से पानी साफ करने का जिक्र आयुर्वेद में भी आता है. इस के पके हुए 2-3 फलों को मसलने के बाद पानी से भरे बरतनों में डाल दिया जाता है और 2-3 घंटे बाद इस पानी को पीने लायक माना जाता है.
कई लोग निर्मली के पके फलों को मटके या घुंडी की सतह पर रगड़ देते हैं और बाद में इस बरतन में झिरियों का पानी डाल दिया जाता है.
निर्मली के बीजों पर की गई शोधों से पता चला है कि इन में एनआयनिक पौली इलैक्ट्रोफाइट्स पाए जाते हैं जो कोऔग्युलेशन की प्रक्रिया के कारक हो सकते हैं.
दही से साफ पानी
दही से भी पानी साफ होता है, बहुत कम लोगों को इस के बारे में पता है. झिरियों के किनारे बने गड्ढे में एक कप दही डाल दिया जाता है. फिर 1-2 घंटे में पानी में घुले मिट्टी के कण तली में बैठ जाते हैं और धीरेधीरे पानी को ऊपरी सतह से एकत्र कर लिया जाता है.
माना जाता है कि दही सूक्ष्मजीवों को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है क्योंकि सूक्ष्मजीव दही में अपना भोज्य पदार्थ पाते हैं. इस तरह झिरियों का पानी साफ हो जाता है.
शहर के लिए मुफीद
शहरों में साफ पानी की सब से गंभीर समस्या होती है. चूंकि शहर में गांवदेहात के लोग किराए पर रहते हैं और उन का बजट इतना नहीं होता कि आरओ लगवा सकें.
ऐसे में लोग आसानी से इस पद्धति का इस्तेमाल कर पानी को फिल्टर कर सकते हैं.
कई गांवों में लोग दही के साथ खसखस के बीज भी मिलाते हैं. बुजुर्ग भी इस बात को मानते हैं कि खसखस भी पानी को साफ करने में मदद करता है.
तुलसीसहजन से होता साफ पानी
हर्बल जानकारों का मानना है कि सहजन की फलियों और तुलसी की पत्तियों से पानी साफ किया जा सकता है, क्योंकि पानी में मौजूद अनेक सूक्ष्मजीवों को मारने की क्षमता होती है.
सहजन की फलियों और इस के बीजों का लसलसा पदार्थ पानी में घुल कर कणों को अपनी ओर लुभाता है, जिस से कुछ समय में बरतन के ऊपरी हिस्से का पानी पीने लायक हो जाता है.
सूखाभांड गांव की वनवासी औरतें सहजन की पकी फलियां जमा कर लेती हैं. फलियों को तोड़ कर इस के बीजों को जमा कर लिया जाता है और इन बीजों को एक साफ सूती कपड़े में डाल कर पोटली तैयार कर ली जाती है. हर दिन सुबहशाम एकएक बार इस पोटली को पानी से भरे बरतन के भीतर 30 सेकंड के लिए घुमाया जाता है.
इन औरतों का मानना है कि ऐसा करने से पानी के भारी कण और सूक्ष्मजीव इस पोटली की सतह पर चिपक जाते हैं. बाद में पोटली से बीजों को बाहर निकाल लिया जाता है और दूसरे साफ सूती कपड़े में लपेट दिया जाता है ताकि इस पोटली का दोबारा इस्तेमाल हो सके.
आधुनिक विज्ञान भी सहजन और तुलसी के प्रयोग से सूक्ष्मजीवों की बढ़वार को रोके जाने की तसदीक कर चुका है.
साल 1995 में एल्सवियर लिमिटेड से प्रकाशित जर्नल ‘वाटर रिसर्च’ के 29वें अंक में छपे एक शोधपत्र के मुताबिक, वास्तव में सहजन के बीजों में हलके अणुभार वाले कुछ प्रोटीन होते हैं, जिन पर धनात्मक आवेश होता है और ये प्रोटीन पानी में मौजूद ऋणात्मक आवेश वाले कणों, जीवाणुओं और क्ले वगैरह को अपनी ओर खींचते हैं. इस से न केवल पानी साफ होता है, बल्कि इस की कठोरता भी सामान्य हो जाती है.
ये शोध नतीजे आधुनिक विज्ञान में अब प्रकाशित हो रहे हैं, लेकिन इस का आधार और उपयोग वनवासी सदियों से करते रहे हैं.
आज के समय में जिस तरह से साफ पानी के नाम पर खुलेआम लोगों को लूटा जा रहा है, उस की सिर्फ एक वजह है कि मौत का डर दिखा कर अरबों रुपए का कारोबार करना है.
भारत समेत दुनियाभर में प्लास्टिक की बोतलों में पानी बेचा जाता है. बोतलबंद पानी बेचने वाली सभी कंपनियां शुद्धता की गारंटी देती हैं. लेकिन एक अध्ययन के दौरान लिए गए बोतलबंद पानी के 90 फीसदी नमूनों (सैंपल) में प्लास्टिक के हजारों छोटेछोटे टुकड़े यानी सूक्ष्म कण पाए गए.
टाइम्स औफ इंडिया के मुताबिक, स्टेट यूनिवर्सिटी औफ न्यूयार्क द्वारा किए गए इस अध्ययन में 9 देशों में प्रचलित 11 अलगअलग ब्रांडों की 259 बोतलों के पानी की जांच की गई थी. इन देशों में भारत, ब्राजील, चीन, इंडोनेशिया और अमेरिका शामिल थे. भारत में मुंबई, दिल्ली और चेन्नई से बोतलबंद पानी के नमूने लिए गए थे.
अध्ययन के दौरान एक्वाफिना, एवियन और भारतीय ब्रांड बिसलरी के पानी को जांचा गया. अध्ययन करने वाली टीम द्वारा प्रकाशित किए गए डेटा के मुताबिक, चेन्नई से लिए गए बिसलरी के नमूने में प्रति लिटर पानी में प्लास्टिक के 5,000 छोटेछोटे कण पाए गए. ऐक्वा (इंडोनेशिया) के सैंपल में यह आंकड़ा 4,713 है जबकि ऐक्वाफिना (अमेरिका, भारत) में 1,295 पाया गया.
नेस्ले सहित कई दूसरी नामी कंपनियों के पानी में भी इसी तरह की मिलावट मिली. जानकारों के मुताबिक, इस तरह की मिलावट से कैंसर होने का खतरा हो सकता है.
बोतलबंद पानी बेचने वाली कंपनियां दावा करती हैं कि उन के यहां पानी की क्वालिटी का पूरा ध्यान रख जाता है, लेकिन अध्ययन में पानी में कैंसरकारी पदार्थ मिलने से लोगों की सेहत को ले कर चिंताएं सामने खड़ी हो गई हैं. बोतलबंद पानी का ढक्कन बनाने में पौलिप्रोपिलीन (मजबूत किस्म का प्लास्टिक) का इस्तेमाल होता है.
अध्ययन के नमूनों में पाए गए प्लास्टिक के कणों में 54 फीसदी इसी के थे. टीम के डेटा से संकेत मिलता है कि बोतलबंद पानी में ये कण उन की पैकेजिंग या बोतल में पानी भरने के समय मिल जाते हैं.
भारत में पीने के पानी की पैकेजिंग कैसे होती है, इसे ले कर नियमन की व्यवस्था लचर है.
देश के अलगअलग हिस्सों में सैकड़ों छोटेबड़े ब्रांडों में बोतलबंद पानी बेचने की होड़ लगी हुई है. इन के लिए नियमकायदे तय करने का काम राज्य और केंद्र स्तर की एजेंसियों का है. इन में भारतीय मानक ब्यूरो और खाद्य व औषधि प्रशासन (एफडीए) जैसी एजेंसियां शामिल हैं.
इतना सब होने के बावजूद मुंहमांगी कीमत देने के बाद भी शुद्धता की कोई गारंटी नहीं है, सिर्फ भरम फैला कर बोतलबंद पानी का धंधा पूरी दुनिया में फलफूल रहा है. यह खुलेआम शुद्धता के नाम पर ठगी है, लेकिन सरकार चुप है.