हम भारतीयों की सोच खुद के कामों को देखने के बजाय सबकुछ किस्मत का लेखा मान लेना है. आज किसान का फोकस सिर्फ आमदनी पर है, जबकि किसी शख्स, परिवार, समाज, देश की माली हालत, आमदनी व खर्च दोनों तराजू पर निर्भर होती है.

आमदनी बढ़ती जाए, इस का मतलब यह कतई नहीं है कि किसान खुशहाल होता जाएगा. किसानों की समस्या यह है कि आमदनी कम और खर्चा ज्यादा है. आमदनी से ज्यादा खर्च करने के तौरतरीकों के चलते नासूर बनी है. किसानों को बजट मैनेजमैंट के गुर सीखने होंगे. पैसों का किस तरह से इस्तेमाल किया जाए, यह बात हर किसान के दिमाग में कौंधती रहनी चाहिए.

एक उदाहरण के जरीए एक छोटे और मझोले किसान की आमदनी का अनुमानित ब्योरा जानते हैं:

जिस किसान के पास 10 बीघा सिंचित जमीन है, उस की सालाना आमदनी 1 लाख रुपए से कम नहीं होती है. साथ में किसान 2 भैंसें भी रखता है और एक समय का दूध बेचता है तो 15 लिटर दूध कम से कम 30 रुपए लिटर बेच कर 13,500 रुपए हर महीने अपनी आमदनी तय कर सकता है.

5 साल का दूध देने का अनुमान निकालें तो कम से कम हर साल के 7 महीने भैंस दूध देती है. 7×13,500= 94,500 रुपए हर साल दूध से आमदनी हो जाती है.

याद रहे कि यह हिसाब एक समय के दूध का लगाया गया है. एक समय का दूध भैंस के खर्च व घर में खानेपीने के लिए छोड़ दिया गया है.

2 भैंसें कम से कम हर तीसरे साल एक नई भैंस तैयार कर देती हैं. मतलब, हर तीसरे साल एक भैंस को किसान बेचने लायक हो जाता है. इस की कम से कम कीमत 50,000 रुपए होती है यानी हर साल तकरीबन 17,000 रुपए की आमदनी.

अगर किसान 2 बकरी रखता है तो हर साल की अनुमानित आमदनी बकरेबकरी बेच कर 10,000 रुपए से कम नहीं बैठती और 2 भैंसें व 2 बकरी की खाद किसान को मुफ्त में मिल जाती है. इस की कीमत भी 10,000 रुपए से कम नहीं होती.

अब हिसाब लगाइए 1,00,000 +94,500 + 17,000 + 10,000 + 10,000 = 2,31,500 रुपए हर साल. यह मझोले किसान परिवार की आमदनी है.

अब किसान के खर्चों का हिसाब देखिए:

हर साल एक रातिजोगा, जिस का खर्च 10,000 रुपए. कहीं रातिजोगा नहीं है तो सवामणी, भंडारा वगैरह अलगअलग रूपों में है. किसान परिवार का कोई एक सदस्य हर साल किसी धार्मिक यात्रा पर जाता है, जिस का खर्च 10,000 रुपए.

हर तीसरे साल किसान भजनपूजन, जागरण, कथा वगैरह करवाता है, जिस का खर्च कम से कम 75,000 रुपए. मतलब, हर साल 25,000 रुपए. किसी मंदिर के बनाने में सालाना 5,000 रुपए तो देता ही है. गृह प्रवेश, मुहूर्त, बेटा होने, भात, मायरा या दूसरा ऐसा कोई न कोई काम कराता है जिस का खर्च हर साल के हिसाब से निकालें तो 10,000 रुपए से कम नहीं होता है.

सब से ज्यादा खर्च दिखावे की होड़ में फंस कर शादियों में करते हैं. अगर हाथ में पैसा है तो जमापूंजी के रूप में बच्चों के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं.

किसानों के लिए सब से बड़ी मार मृत्युभोज की पड़ती है. 2 मृत्युभोज एक किसान परिवार की 10 साल की कमाई पर पानी फेर देता है.

कुलमिला कर देखा जाए तो किसान अपनी कमाई की 20 साल उम्र पाखंड, अंधिविश्वास, फुजूलखर्ची वगैरह में बरबाद कर देता है.

किसान के अगर 2 बच्चे भी हैं तो उन की पढ़ाई का खर्च, बीमारी में डाक्टरी खर्च, जिंदगी आसान बनाने की सुखसुविधाओं पर खर्च करने के लिए उस के पास कुछ बचता ही नहीं है.

आमदनी और खर्च की अहमियत को समझते हुए बजट मैनेजमैंट करना बहुत ही जरूरी है और उस के लिए किसानों को धर्म के नाम के पाखंडों से सब से पहले मुक्त होना जरूरी है. किसान पैसों की कमी से नहीं बल्कि खर्च करने के तौरतरीकों से ज्यादा बरबाद हुआ है और अब भी हो रहा है.

बरबादी के लिए रोज उठते ही व्यवस्था को गालयां देने के बजाय खुद को भी देखनासमझना चाहिए. सिर्फ कंधों से ही नहीं, बल्कि दिमाग से भी मजबूत बनना पड़ेगा नहीं तो भावुकता का धंधा करने वाले लोग यों ही उकसाते हुए बरबादी के नएनए तरीके बताते रहेंगे.

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