उदयपुर : कार्यक्रम का उद्घाटन अनुसंधान निदेशक डा. अरविंद वर्मा द्वारा किया गया. उन्होंने अपने संबोधन में कहा कि फसल विविधीकरण एक मौलिक कृषि पद्धति है, जिस में भूमि के एक ही टुकड़े पर या कृषि प्रणाली के भीतर विभिन्न प्रकार की फसलें उगाना शामिल है.
फसल विविधीकरण ने अपने कई लाभों के कारण आधुनिक कृषि में बढ़ती मान्यता और महत्व प्राप्त कर लिया है, जिस में आर्थिक, पर्यावरणीय और सामाजिक पहलू शामिल हैं.
परियोजना प्रभारी डा. हरि सिंह ने कृषि में फसल विविधीकरण की माली अहमियत को समझाते हुए कहा कि फसल विविधीकरण से कृषि कार्यों की आर्थिक व्यवहार्यता में सुधार हो सकता है. विभिन्न प्रकार की फसलों की खेती कर के किसान विभिन्न बाजारों तक पहुंच बना सकते हैं, एक ही फसल की कीमत में उतारचढ़ाव पर अपनी निर्भरता कम कर सकते हैं और संभावित रूप से अपनी आय बढ़ा सकते हैं.
डा. जगदीश चौधरी ने फसल विविधीकरण हेतु फसलों के चुनाव व उन की उन्नत उत्पादन तकनीकी की जानकारी दी. उन्होंने यह भी बताया कि विभिन्न प्रकार की फसलें बोने से यह सुनिश्चित होता है कि एक पर्यावरण या मौसम संबंधी घटना, जैसे सूखा या भारी वर्षा से पूरी फसल के नष्ट होने की संभावना कम होती है.
डा. नारायण लाल मीणा ने किसानों को फसल विविधीकरण के अंतर्गत मशरूम उत्पादन की उन्नत तकनीक की जानकारी दी.
कार्यक्रम में शामिल पादप व्याधि रोग विशेषज्ञ डा. पोकर रावल ने बताया कि फसल विविधता की प्रक्रिया की वजह से कई बीमारियों के जीवनचक्र को तोड़ दिया जाता है, जिस से उन के प्रसारण में अवरोध होता है और कृषि रोगनाशकों की आवश्यकता कम हो जाती है. यह पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य के लिए उपयोगी नैसर्गिक और सतत तरीके से कृषि बीमारियों का प्रबंधन करने का एक प्राकृतिक और सतत तरीका है.
डा. अमित त्रिवेदी ने किसानों को वर्तमान समय में फसल विविधीकरण की आवश्यकता व महत्व के बारे में जानकारी दी, वहीं डा. रविकांत शर्मा, सहायक निदेशक, ने कार्यक्रम का संचालन किया और अपने संबोधन में कहा कि फसल विविधीकरण केवल एक कृषि तकनीक नहीं है, यह एक बहुआयामी रणनीति है, जो लगातार बदलती दुनिया में टिकाऊ कृषि और खाद्य सुरक्षा की कुंजी रखती है.
इस दौरान परियोजना से जुड़े कनिष्ठ अनुसंधान अध्येता एमएल मरमट, एएस राठौर, आरएल बडसरा, एनएस झाला एवं गोपाल नाई भी उपस्थित थे.