फसलों को कीटपतंगों के हमलों से बचाने के लिए किसानों को कई तरह के कीटनाशकों की जरूरत होती है और इस के लिए वे दुकानदार के कहे मुताबिक कीटनाशक खरीदते हैं.
देश में ऐसे बहुत कम दुकानदार हैं जिन के पास डिगरी या डिप्लोमा हो. इसी वजह से अकसर किसानों को नुकसान उठाना पड़ता है, क्योंकि किस फसल के कीट के लिए कौन सी दवा ज्यादा कारगर होगी और कितनी मात्रा में, इस की जानकारी ज्यादातर दुकानदारों को नहीं होती. किसानों को इस की भी जानकारी नहीं होती कि कौन सी खाद असली है या नकली.
किसानों के सामने जो सब से बड़ी दिक्कत है, वह है कैमिकल खाद और कीटनाशक की. कौन सी खाद या कीटनाशक असली है या नकली, वे इस की पहचान नहीं कर पाते.
हैरानी की बात यह है कि जब हम ने भोपाल के कुछ दुकानदारों से इस बारे में जानकारी जाननी चाही तो उन का जवाब गोलमोल था. मतलब, उन्होंने माना कि आमतौर पर उन्हें भी इस के बारे में कोई खास पहचान नहीं होती, इसलिए उन के पास जो सब से ज्यादा बिकने वाली दवा होती है, उसी को किसानों को देने की कोशिश करते हैं.
इस में एक बात और गौर करने वाली है कि असली की पहचान ज्यादा बिकने और महंगे होने से है, क्योंकि नकली उत्पाद असली के मुकाबले काफी कम कीमत पर दुकानों में मिल जाते हैं, जिन के इस्तेमाल से किसानों को काफी नुकसान उठाना पड़ता है. साथ ही, मिट्टी की उर्वराशक्ति कमजोर हो जाती है इसलिए बड़े ब्रांड को देख कर खरीदारी करें. साथ ही, कुछ ऐसे तरीके भी हैं, जिन से असली और नकली की पहचान की जा सकती है.
नकली और मिलावटी कीटनाशकों की वजह से देश में हर साल करोड़ों रुपए की फसलें तबाह हो जाती हैं. इस से किसानों पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ता है. किसान कर्ज ले कर फसलें उगाते हैं, फसलों को हानिकारक कीटों से बचाने के लिए वे कीटनाशकों का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन नकली और मिलावटी कीटनाशक कीटों पर प्रभावी नहीं होते. इस वजह से कीट और पौधों पर लगने वाली बीमारियां फसल को नुकसान पहुंचाती हैं. उत्पादन कम होता है या कई बार पूरी फसल ही खराब हो जाती है.
एक अनुमान के मुताबिक, देश में हर साल औसतन 3,000 करोड़ रुपए के नकली कीटनाशक बेचे जाते हैं, जबकि कीटनाशकों का कुल बाजार 7,000 करोड़ रुपए से ज्यादा का है. यहां हर साल तकरीबन 80,000 टन कीटनाशक बनाए जाते हैं.
इंडियन काउंसिल औफ एग्रीकल्चरल रिसर्च (आईसीएआर) की मानें तो देश में इस्तेमाल होने वाले कुल कीटनाशकों में से तकरीबन 40 फीसदी हिस्सा नकली है.
काबिलेगौर है कि बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र जैसे राज्यों में नकली कीटनाशक बनाने का करोबार बड़े पैमाने पर होता है. नामीगिरामी कंपनियों के लेबल का ये लोग इस्तेमाल करते हैं. अधिकारियों की मिलीभगत के चलते इन कारोबारियों के खिलाफ कोई सख्त कार्यवाही नहीं हो पाती है.
किसानों को असली और नकली कीटनाशकों और उर्वरकों की पहचान नहीं होती इसलिए वे दुकानदार पर भरोसा कर के कीटनाशक खरीद लेते हैं.
ऐसा नहीं है कि सभी दुकानदार नकली कीटनाशक बेचते हैं. जिन दुकानदारों को बाजार में अपनी साख बनाए रखनी है, वे सीधे कंपनी से माल खरीदते हैं. ऐसे दुकानदारों की भी कमी नहीं है, जो किसी बिचौलिए से माल खरीदते हैं.
दरअसल, बिचौलिए ज्यादा मुनाफा कमाने के चक्कर में दुकानदारों को असली की जगह नकली कीटनाशक बेचते हैं. नकली कीटनाशकों की पैकिंग भी हूबहू नामीगिरामी कंपनियों की तरह ही होती है.
यूरिया से किसान करें तोबा
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘मन की बात’ में कहा था, ‘हम यूरिया से धरती मां को गंभीर नुकसान पहुंचा रहे हैं. लेकिन किसान तो धरती मां का पुत्र है. वह अपनी मां को नुकसान कैसे पहुंचा सकता है? किसान एक संकल्प लें कि वे आजादी के 75 साल पूरा होने पर यानी साल 2022 तक यूरिया का इस्तेमाल आधा कर देंगे.’
फर्टिलाइजर एसोसिएशन औफ इंडिया (एफएआई) का अनुमान है कि देश में अगले एक दशक में कैमिकल उर्वरक की खपत 20 फीसदी ज्यादा हो जाएगी. 2024-25 तक नाइट्रोजन की मात्रा 2 करोड़ टन तक हो जाएगी. वहीं फास्फोरस की खपत 93 लाख टन और पोटाश की खपत 42 लाख टन तक पहुंच जाएगी.
भारत में हर साल 3 करोड़ टन यूरिया की खपत होती है, जबकि हरित क्रांति से पहले यह लैवल 10 लाख टन हर साल था. साथ ही, इस का आयात पिछले कुछ सालों के 90 लाख टन के मुकाबले साल 2017 में घट कर 60 लाख टन रह गया.
यह आयात पर निर्भरता में कमी को दिखाता है. भारत में किसान औसतन एक हेक्टेयर खेती पर 158 किलोग्राम उर्वरक का इस्तेमाल करते हैं, जबकि चीन, बंगलादेश और वियतनाम में यह क्रमश: 420 किलोग्राम, 278 किलोग्राम और 270 किलोग्राम है.
मुश्किल है डगर
प्रोफैसर अशोक गुलाटी कहते हैं, ‘‘खाद्य मांग में जोर के चलते साल 2022 तक इस टारगेट को हासिल कर पाना मुश्किल है, जब तक कोई बड़ा चमत्कार नहीं हो जाता.’’
वे आगे कहते हैं, ‘‘अगर यूरिया की खपत में 50 फीसदी की कमी करनी है तो अगले 3 साल में इस का आयात शून्य हो जाना चाहिए.’’
अशोक गुलाटी कहते हैं कि मैं ऐसा होते हुए नहीं देख रहा. उर्वरक वितरण में तस्करी और दूसरे उद्योगों में वितरण वगैरह लूपहोल को बंद करने से थोड़ाबहुत फायदा मिल सकता है लेकिन अगले 5 से 10 साल में भारत में कुल यूरिया की खपत बढ़ेगी.
इसी तरह से किसान कुछ सावधानी बरत कर उर्वरक की पहचान कर सकते हैं, जिस से उन के खूनपसीने की कमाई पर पानी न फिरे. हमारी सलाह है कि उन्हें छोटीमोटी दुकानों से इस तरह की चीजें खरीदने से परहेज करना ही मुनासिब रहेगा, क्योंकि छोटे दुकानदार कम ग्राहकों से ज्यादा फायदा वसूलना चाहते हैं.
साथ ही, किसानों को समय के साथ यूरिया के इस्तेमाल पर भी निर्भरता कम करनी चाहिए, क्योंकि देश में सब से ज्यादा यूरिया खाद का ही इस्तेमाल किया जाता है. इस से मिट्टी भी खराब न होगी और किसानों का पैसा भी बचेगा.
ऐसे पहचानें असली और नकली का फर्क
डीएपी की पहचान
* दाने कठोर और भूरे, काले और बादामी रंग के होते हैं. * आप खाद के कुछ दानों को हाथ में ले कर तंबाकू की तरह उस में चूना मिला कर मलें, अगर उस में तेज गंध निकले, जिसे सूंघना मुश्किल हो जाए तो समझें कि डीएपी असली है. * डीएपी के कुछ दाने धीमी आंच पर तवे पर गरम करें. अगर ये दाने फूल जाते हैं तो समझ लें कि असली हैं.
पोटाश की पहचान
* असली पोटाश सफेद पिसा नमक और लाल मिर्च जैसा मिश्रण के कण जैसा होता है. * पोटाश के कुछ दानों को नम करने पर आपस में नहीं चिपकें, यही इस की असली होने की पहचान है. * पानी में घुलने पर इस का लाल भाग पानी के ऊपर तैरता रहता है.
यूरिया की पहचान
* सफेद चमकदार लगभग समान आकार के कड़े दाने का होना. * पानी में पूरी तरह से घुल जाना. * घोल को छूने पर ठंडा मालूम होना. * यूरिया को तवे पर गरम करेंगे तो यह पिघल जाएगा. * आंच तेज करने से पूरी तरह दाने गायब हो जाएं तो समझें कि यही असली यूरिया है.
सुपर फास्फेट
* दाने सख्त और रंग भूरा, काला, बादामी रहेगा. * दानों को गरम करने पर भी न फूलें तो समझ लें कि यही असली है. * गरम करने पर डीएपी के दाने फूल जाते हैं, जबकि सुपर फास्फेट के दाने नहीं फूलते.
जिंक सल्फेट की पहचान
* इस के दाने हलके सफेद, पीले और भूरे बारीक कण जैसे होते हैं. * जिंक सल्फेट में प्रमुख रूप से मैग्नीशियम सल्फेट की मिलावट की जाती है. इस से असली जिंक की पहचान कर पाना काफी मुश्किल है. * डीएपी के घोल में जिंक सल्फेट का घोल मिलाने पर थक्केदार घना अवशेष बन जाता है, जबकि डीएपी के घोल में मैग्नीशियम सल्फेट का घोल मिलाने पर ऐसा नहीं होता है. * जिंक सल्फेट के घोल में पतला कास्टिक का घोल मिलाएं तो सफेद मटमैला मांड़ जैसा घोल बनता है. अगर इस में गाढ़ा कास्टिक का घोल मिला दें तो इस का घोल पूरी तरह से घुल जाता है.
* जिंक सल्फेट की जगह मैग्नीशियम सल्फेट का इस्तेमाल किया जाए तो यह सही तरह से नहीं घुलता है.