आमतौर पर यह देखने में आया है कि भारत के ज्यादातर किसान खेती के काम करते समय अनेक तरह की लापरवाही बरतते हैं जिन का उन्हें अच्छाखासा नुकसान उठाना पड़ता है, फिर चाहे कीटनाशक के छिड़काव की बात हो या कृषि यंत्रों के उपयोग की, जबकि विदेशों में ऐसा नहीं है. वहां खेती को एक अच्छीखासी इंडस्ट्री के रूप में सुरक्षा के नियमों को ध्यान में रख कर काम किया जाता है. वहां पर खेत में लोग हाथ में दस्ताने, सिर पर टोपी, पैरों में गम बूट (सुरक्षा के लिहाज से मजबूत जूते), फेस मास्क पहन कर काम करते हैं, ताकि इस काम में खुद को नुकसान न हो, लेकिन हमारे देश में अगर खेत में कीटनाशक जैसा खतरनाक रसायन भी छिड़कना हो तो भी किसान सारे नियमकानून एक तरफ रख कर काम करता है. इस से कीटनाशक का असर किसान पर भी होता है.
इस तरह की घटना से साफ पता चलता है कि पिछले 40 सालों में कोई खास बदलाव नहीं आया है. यह तो महाराष्ट्र की घटना थी, पूरे देश की हालत एकजैसी है क्योंकि मानव जीवन की कोई कीमत नहीं है खासकर जब मामला सब से गरीब तबके का हो. समाज को जरा भी फर्क नहीं पड़ता है.
सरकारी अमला भी किसानों तक सही बात नहीं पहुंचा पा रहा है. सुरक्षा नियमों का सख्ती से पालन क्यों नहीं कराया जाता है? अगर समयसमय पर कीटनाशक उद्योग, कृषि विभाग के अधिकारियों और किसानों के साथ मिल कर जागरूकता अभियान चलाया जाए और कीटनाशक छिड़कने से पहले मजदूरों व किसानों के लिए सुरक्षात्मक कपड़ों को पहनना अनिवार्य कर दिया जाए तो इस तरह की घटनाओं को टाला जा सकता है.
जहर समान हैं कीटनाशक : ये कैमिकल और कुछ नहीं घातक जहर ही हैं इसलिए इन के इस्तेमाल के समय अत्यधिक सावधानी बरतने की जरूरत है. पर आप ने कब किसी कृषि श्रमिक को फेस मास्क लगा कर कीटनाशक का छिड़काव करते देखा है? फेस मास्क तो दूर की बात है, मैं ने तो इन श्रमिकों को छिड़काव करते समय दस्ताने पहने भी नहीं देखा है, बल्कि छिड़काव करते समय ये अपने बदन के कपड़े भी उतार देते हैं कि कहीं खराब न हो जाएं. वाह रे किसान क्या सोच है तेरी, चमड़ी चली जाए पर दमड़ी न जाए. चाहे शरीर पर घाव हो जाएं पर कपड़े न खराब हों.
कीटनाशक संबंधी नियमों में यह सावधानी बताई जाती है पर इस का पालन शायद ही कभी होता है. कीटनाशक का छिड़काव करने का सब से सही समय सुबह 6 से सुबह 8 बजे तक या शाम को 6 बजे के बाद होता है. इस की सीधी सी वजह है कि एक तो सुबहसुबह तेज हवाओं की आशंका कम होती है और दूसरे दोपहर में तापमान बढ़ने के साथ कीटनाशकों में जहरीलापन भी बढ़ जाता है. लेकिन होता यह है कि तड़के मजदूर उपलब्ध नहीं होते, इसलिए छिड़काव का काम जब मौका मिला तभी कर लिया, जो गलत है.
हालांकि अब समय के साथसाथ कुछ लोग जागरूक हो रहे हैं और वे सुरक्षा के उपाय अपनाने लगे हैं. वैसे, सरकार को चाहिए कि वह इस तरह के नियमों को सख्ती से लागू करे. कीटनाशक कंपनियों को कीटनाशक बेचते समय दस्तानों के साथ टोपी और फेस मास्क भी मुहैया कराना जरूरी कर देना चाहिए.
किसानों को अपने लिए या मजदूरों को गम बूट उपलब्ध करवाने के निर्देश दिए जाने चाहिए और यह भी तय करना चाहिए कि किसान अपने खेत में श्रमिकों के लिए गम बूट की जोडि़यां उपलब्ध भी रखें.
कीटनाशक कंपनियों और कृषि विभागों को जल्दीजल्दी हानिकारक कीटनाशकों के इस्तेमाल और छिड़काव के तरीकों पर संयुक्त प्रशिक्षण कैंप लगवाने चाहिए.
किसानों की सुरक्षा के लिए कुछ कठोर कदम भी उठाने पड़ें तो उठाने चाहिए. इस में कृषि विश्वविद्यालय की भी खासी भूमिका है. विश्वविद्यालयों द्वारा स्वीकृति दिए जाने के बाद ही अनुमोदन जारी किया जाता है इसलिए अनुमोदन प्रक्रिया के दौरान ही एहतियाती कदम साफ रूप से उठाए जाने चाहिए.
यदि कोई कंपनी नियम पूरे न करे तो उस के खिलाफ सख्त कार्यवाही करने संबंधी प्रावधान भी होने चाहिए. इन कंपनियों की जिम्मेदारी होनी चाहिए कि जो भी इन कीटनाशकों का इस्तेमाल करे, उस में एहतियाती कदमों की भी सही जानकारी दी गई हो.
सुरक्षात्मक दस्ताने
खेती में कई काम ऐसे भी हैं जो देखने में बड़े आसान लगते हैं लेकिन इन में भी परेशानियों का सामना करना पड़ता है. जैसे, खेत से भिंडी की तुड़ाई का काम अधिकतर महिलाओं द्वारा हाथ से ही किया जाता है. इस से हाथ में घाव तक हो जाते हैं और थकान भी हो जाती है.
इस से बचाव के लिए हाथों में दस्तानों का इस्तेमाल किया जा सकता है. इस तरह के सुरक्षात्मक दस्ताने पहनने से हाथ में घाव भी नहीं होते और काम करने की कूवत भी बढ़ जाती है.
ग्वार की कटाई काफी कठिन व थकाने वाली होती है. ग्वार की कटाई के समय किसानों को अत्यधिक परेशानियां झेलनी पड़ती हैं. कटाई के वक्त फलियां सूखी व पैनी हो जाती हैं और हाथों व नाखूनों के अंदर चुभती हैं. इस से हाथों व उंगलियों में कट लगने से जख्म हो जाते हैं.
ग्वार की कटाई के दिनों में पूरे शरीर में खुजली व जलन सी शुरू हो होती है जिस से व्यक्ति को कई दिन तक बेचैनी रहती है. ग्वार कटाई के वक्त महिलाओं के हाथ देख कर यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह काम कितना तकलीफदेह है.
महिलाएं ग्वार काटते वक्त हाथ में पुरानी जुराब या पैंट या पाजामे का कपड़ा आदि बांध लेती हैं जिस से उन के हाथ फलियों के सीधे संपर्क में न आएं. इस तरह के सुरक्षात्मक तरीके उन्हें कुछ हद तक तकलीफ से नजात देते हैं लेकिन उन की काम करने की कूवत धीमी हो जाती है क्योंकि इन तरीकों से उन की पकड़ ठीक से नहीं बन पाती है व काम करने की रफ्तार धीमी हो जाती है.
इस तरह की समस्याओं से छुटकारा पाने के लिए ग्वार की कटाई में सुरक्षात्मक दस्ताने बहुत मददगार साबित हुए हैं. अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजना के तहत किसान महिलाओं पर परीक्षण किया गया. उन्हें ये विशेष दस्ताने पहना कर ग्वार की कटाई कराई गई, जिसे उन्होंने सौ फीसदी स्वीकारा और माना कि इन से कटाई आसानी से हुई और काम भी ज्यादा हुआ.
इन दस्तानों का इस्तेमाल खेत के अनेक कामों जैसे भिंडी की तुड़ाई, मछली पकड़ना, लकड़ी उद्योग, बागबानी, थ्रेशर पर काम करते समय भी किया जा सकता है.
विशेषताएं
सुरक्षात्मक दस्ताने लेटैक्स व पीवीसी के बने होते हैं, वहीं दूसरी तरफ हौजरी कौटन का कपड़ा लगा होता है जिस से हवा आसानी से आजा सकती है और हाथों में पसीना भी नहीं आता.
इन्हें पहन कर महिलाओं ने माना कि इस जोखिम भरे काम में उन्हें सुरक्षा मिली यानी काम करने में कोई परेशानी नहीं हुई और काम भी ज्यादा हुआ.
फायदा
दस्ताने हाथों को सुरक्षा प्रदान करते हैं जिस से हाथों में खुजली नहीं होती व जख्म वगैरह भी नहीं होते हैं. शारीरिक ऊर्जा की खपत में 2.8 फीसदी तक कमी देखने को मिली. वहीं दूसरी ओर दस्ताने पहनने से हाथों पर मिट्टी नहीं चिपकती और हाथ फटते नहीं व जलन भी नहीं होती.
हाथ की पकड़ अच्छी होने के कारण 20 फीसदी तक थकावट कम होती है. शरीर को कष्ट से छुटकारा मिलने पर काम करने की रफ्तार बढ़ जाती है और काम भी ज्यादा होता है जिस से समय व शक्ति दोनों की बचत होती है.
कटाई करते समय धूलमिट्टी से बचने के लिए कैपरौन का इस्तेमाल करना चाहिए.
यह सफेद सूती कपड़े से बनाई गई टोपी वाला मास्क है जिसे पहन कर काम करते समय मुंह, नाक, सिर व गला ढका रहता है. इसे पहनने से सांस द्वारा धूलमिट्टी शरीर के अंदर नहीं जाती है.
ये सब छोटीछोटी बातें हैं जिन का अगर किसान ध्यान रखें तो उन की सेहत भी ठीक रहेगी और परिवार भी खुश रहेगा.