मिट्टी की उर्वरकता व उत्पादकता बढ़ाने में हरी खाद का प्रयोग प्राचीन काल से चला आ रहा है. बिना सड़ेगले हरे पौधे (दलहनी या अदलहनी या फिर उन के भाग) को जब मिट्टी की नाइट्रोजन या जीवांश की मात्रा बढ़ाने के लिए खेत में दबाया जाता है, तो इस क्रिया को हरी खाद देना कहते हैं.
सघन कृषि पद्धति के विकास और नकदी फसलों के अंतर्गत क्षेत्रफल बढ़ने के कारण हरी खाद के प्रयोग में निश्चित ही कमी आई है, लेकिन बढ़ते ऊर्जा उर्वरकों के मूल्यों में वृद्धि और गोबर की खाद व अन्य कंपोस्ट जैसे कार्बनिक स्रोतों की सीमित आपूर्ति से आज हरी खाद का महत्त्व और बढ़ गया है.
रासायनिक उर्वरकों के पर्याय के रूप में हम जैविक खादों जैसे गोबर की खाद, कंपोस्ट हरी खाद आदि का उपयोग कर सकते हैं. इन में हरी खाद सब से सरल व अच्छा प्रयोग है. इस में पशु धन में आई कमी के कारण गोबर की उपलब्धता पर भी हमें निर्भर रहने की जरूरत नहीं है, इसलिए हमें हरी खाद के उपयोग पर गंभीरता से विचार कर क्रियान्वयन करना चाहिए.
हरी खाद केवल नाइट्रोजन व कार्बनिक पदार्थों का ही साधन नहीं है, बल्कि इस से मिट्टी में कई पोषक तत्त्व भी उपलब्ध होते हैं. एक अध्ययन के मुताबिक, एक टन ढैंचा के शुष्क पदार्थ द्वारा मिट्टी में जुटाए जाने वाले पोषक तत्त्व इस प्रकार हैं :
हरी खाद फसल के आवश्यक गुण
* फसल ऐसी हो, जिस में शीघ्र वृद्धि की क्षमता जिस से न्यूनतम समय में काम पूरा हो सके.
* चयन की गई दलहनी फसल में अधिकतम वायुमंडल नाइट्रोजन का यौगिकीकरण करने की क्षमता होनी चाहिए, जिस से जमीन को अधिक से अधिक नाइट्रोजन उपलब्ध हो सके.
* फसल की वृद्धि होने पर अतिशीघ्र, अधिक से अधिक मात्रा में पत्तियां व कोमल शाखाएं निकल सकें, जिस से प्रति इकाई क्षेत्र से अत्यधिक हरा पदार्थ मिल सके और आसानी से सड़ सके.
* फसल गहरी जड़ वाली हो, जिस से वह जमीन में गहराई तक जा कर अधिक से अधिक पोषक तत्त्वों को खींच सके. हरी खाद की फसल को सड़ने पर उस में उपलब्ध सारे पोषक तत्त्व मिट्टी की ऊपरी सतह पर रह जाते हैं, जिन का उपयोग बाद में बोई जाने वाली मुख्य फसल के द्वारा किया जाता है.
* फसल के वानस्पतिक भाग मुलायम होने चाहिए.
* फसल की जल व पोषक तत्त्वों की मांग कम से कम होनी चाहिए.
* फसल जलवायु की विभिन्न परिस्थितियों जैसे अधिक तापमान, कम तापमान, कम या अधिक वर्षा सहन करने वाली हो.
* फसल के बीज सस्ती दरों पर उपलब्ध हों.
* फसल विभिन्न प्रकार की मिट्टियों में पैदा होने में समर्थ हो.
हरी खाद बनाने की विधि
* अप्रैलमई महीने में गेहूं की कटाई के बाद जमीन की सिंचाई कर लें. खेत में खड़े पानी में 50 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से ढैंचा का बीज छितरा लें.
* जरूरत पड़ने पर 10 से 15 दिन में ढैंचा फसल की हलकी सिंचाई कर लें.
* 20 दिन की अवस्था पर 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से यूरिया को खेत में छितराने से नोड्यूल बनने में सहायता मिलती है.
* 55 से 60 दिन की अवस्था में हल चला कर हरी खाद को दोबारा खेत में मिला दिया जाता है. इस तरह लगभग 10.15 टन प्रति हेक्टेयर की दर से हरी खाद उपलब्ध हो जाती है.
* इस से लगभग 60.80 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर प्राप्त होता है. मिट्टी में ढैंचा के पौधों के गलनेसड़ने से बैक्टीरिया द्वारा नियत सभी नाइट्रोजन जैविक रूप में लंबे समय के लिए कार्बन के साथ मिट्टी को वापस मिल जाते हैं.
हरी खाद देने की विधियां
हरी खाद की स्थानीय विधि : इस विधि में हरी खाद की फसल को उसी खेत में उगाया जाता है, जिस में हरी खाद का उपयोग करना होता है. यह विधि समुचित वर्षा अथवा सुनिश्चित सिंचाई वाले क्षेत्रों में अपनाई जाती है.
इस विधि में फूल आने से पूर्व वानस्पतिक वृद्धिकाल (45-60 दिन) में मिट्टी में पलट दिया जाता है. मिश्रित रूप से बोई गई हरी खाद की फसल को उपयुक्त समय पर जुताई द्वारा खेत में दबा दिया जाता है.
हरी पत्तियों की हरी खाद : जलवायु और मिट्टी की दशाओं के आधार पर उपयुक्त फसल का चुनाव करना आवश्यक होता है. जलमग्न व क्षरीय और लवणीय मिट्टी में ढैंचा और सामान्य मिट्टियों में सनई व ढैंचा दोनों फसलों से अच्छी गुणवत्ता वाली हरी खाद प्राप्त होती है.
हरी खाद के प्रयोग के बाद अगली फसल की बोआई या रोपाई का समय : जिन क्षेत्रों में धान की खेती होती है, वहां जलवायु नम और तापमान अधिक होने से अपघटन क्रिया तेज होती है, इसलिए खेत में हरी खाद की फसल की आयु 40-45 दिन से अधिक नहीं होनी चाहिए.
समुचित उर्वरक प्रबंधन : कम उर्वरता वाली मिट्टियों में नाइट्रोजनधारी उर्वरकों का प्रयोग उपयोगी होता है. राइजोबियम कल्चर का प्रयोग करने से नाइट्रोजन स्थिरीकरण सहजीवी जीवाणुओं की क्रियाशीलता बढ़ जाती है.
हरी खाद की फसल के लाभ
हरी खाद की फसल का उद्देश्य प्रत्येक स्थिति के आधार पर भिन्नभिन्न होता है, लेकिन उन के द्वारा दिए जाने वाले कुछ लाभ इस प्रकार हैं :
* जैविक पदार्थ और मिट्टी में ह्यूमस का बढ़ना.
* नाइट्रोजन निर्धारण में वृद्धि.
* मिट्टी की सतह का संरक्षण.
* कटाव की रोकथाम.
* मिट्टी की संरचना को बनाए रखना या सुधारना.
* लीचिंग के लिए संवेदनशीलता कम हो जाती है.
* निम्न मिट्टी प्रोफाइल से अनुपलब्ध पोषक तत्त्वों तक पहुंच.
* अगली फसल को आसानी से उपलब्ध पोषक तत्त्व प्रदान करें.