बिहार में औषधीय व सुगंधित पौधों की खेती की ओर किसानों का झुकाव ज्यादा हुआ है, जिस का मुख्य कारण है लागत कम और मुनाफा ज्यादा. हालांकि राज्य स्तर पर इन पौधों या इन के बीजों के साथ इन की खेती से होने वाले उत्पादन की खरीदबिक्री की सुविधा न के बराबर ही है, पर किसानों में कुछ कर गुजरने की ललक ने उन्हें इन की खेती की जानकारी व इन के उत्पादों की बिक्री के लिए दूसरे प्रदेशों तक पहुंचा दिया. इसी का नतीजा है कि अब राज्य के प्रगतिशील किसान नई ऊंचाइयां छूने की ओर बढ़ रहे हैं.
परंपरागत खेती जैसे दलहन, तिलहन, धान व गेहूं आदि से इतनी कम आय होती है कि किसानों के लिए खेती घाटे का सौदा बन कर रह गई है. परंतु कुछ प्रयोगधर्मी किसान हैं, जो खेती में नफानुकसान की ज्यादा चिंता न कर के नित नए प्रयोग करते रहते हैं. इन्हीं में से एक किसान हैं राज्य के सीवान जिले के हसनपुर प्रखंड के लहेजी गांव निवासी मोहम्द हामिद खां. वे जिला व राज्य स्तरीय कई पुरस्कार हासिल कर चुके हैं. हामिद का कहना है कि किसान वैसी खेती करना चाहते हैं, जिस में समय कम व मुनाफा अधिक हो. जिले के अधिकतर किसान मेंथा, घृतकुमारी, पोपुलर व पेपट्रा की खेती कर रहे हैं. इन का बाजार देश के अलावा विदेशों में भी है. कीमत भी अच्छी मिल जाती है. पेपट्रा 1500 रुपए प्रति किलोग्राम और मेंथा 900 रुपए प्रति किलोग्राम बिकता है, इसलिए किसान इन की खेती ज्यादा कर के मुनाफा कर रहे हैं.
किसानों को कम लागत में हो रही लाखों की आय : आज से करीब 3 साल पहले खस की खेती की शुरुआत करने वाले हामिद खां सीवान, छपरा व गोपालगंज आदि जिलों के दर्जनों किसानों को प्रशिक्षण दे कर खस के अलावा मेंथा, पेपट्रा, घृतकुमारी व पोपुलर की खेती करा रहे हैं, जिस से इन किसानों के जीवन की तसवीर बदल गई है. इन की खेती से किसानों को कम लागत में हर साल लाखों रुपए की आय हो रही है.
खस, सतावर, कालमेघ, मेंथा, पामारोजा, सेट्रोनेला, लेमनग्रास, आर्टीमीसिया व कोलियस आदि की खेती से किसानों में कामयाबी की उम्मीद जगी है. बिहार के सीवान, छपरा व गोपालगंज जिलों में अभी लगभग 10 एकड़ में खस की खेती कर के तेल का उत्पादन किया जा रहा है. यह फसल 1 साल में तैयार हो जाती है. यदि अच्छी फसल हुई तो प्रति कट्ठा (1350 वर्ग फुट) 400 से 700 ग्राम तक तेल निकलता है, जिस की कीमत 15000 से 18000 रुपए प्रति लीटर होती है. फरवरी में इस फसल की खुदाई कर के आसवन विधि द्वारा तेल निकाला जाता है. इस मौसम में तेल की मात्रा ज्यादा मिलती है. जड़ निकाल कर बचे हुए पौधों को फिर से नई फसल के लिए खेत में लगाया जा सकता है.
इत्र बनाने वाली कंपनियां खरीदार : खस की खेती करने वाले ऐसे किसान जिन के पास तेल निकालने का साधन नहीं है, उन के द्वारा उत्पादित जड़ें मोहम्द हामिद लगभग 6000 रुपए प्रति क्विंटल की दर से खरीदने के साथ ही 1000 से ले कर, 1500 रुपए प्रति कट्ठे की दर से खेत में लगी फसल खरीदने के बाद जड़ों की खुदाई कर के खुद तेल निकालते हैं. इस का तेल लखनऊ व बाराबंकी आदि स्थानों पर इत्र बनाने वाली कंपनियां और व्यापारी 10000 से 12000 रुपए प्रति लीटर खरीद कर ले जाते हैं.
हामिद सीमैप लखनऊ से 2 रुपए प्रति पौधे की दर से पौधे ला कर नर्सरी तैयार करने के बाद 1 रुपए प्रति पौधे की दर से किसानों को बेचते हैं. वैसे तो इस की रोपाई पूरे साल की जा सकती है, परंतु दिसंबर से मार्च तक का समय इस की रोपाई के लिए ज्यादा अच्छा होता है. इस की खेती 6 महीने तक जलजमाव वाले खेत में भी की जा सकती है. कई विशेषज्ञों का ऐसा भी मानना है कि खस के पौधे यदि 2-3 महीने तक पानी में पूरी तरह से डूबे रह जाते हैं, तब भी इस की फसल पर कोई खराब असर नहीं पड़ता है.
जुलाई में रोपाई
सीमैप लखनऊ के वैज्ञानिक वीरेंद्र कुमार सिंह तोमर का कहना है कि राज्य की मिट्टी, विशेष रूप से दियारा की मिट्टी के लिए यह फसल ज्यादा लाभकारी है.
जलजमाव वाली जमीन में फरवरी व मार्च और सामान्य जमीन में जुलाई में बारिश होने पर खस की रोपाई कर के अच्छी फसल तैयार की जा सकती है. यदि खस की नर्सरी तैयार करनी हो तो फरवरी या मार्च में पौधे लगाने के 1 महीने बाद डीएपी खाद की एक सीमति मात्रा डाल कर नर्सरी की गुड़ाई व सिंचाई के साथ 3 महीने में 1 पौधे में 18 से 20 कल्ले तक निकल आते हैं, जिन्हें बाद में दूसरे खेतों में फसल के रूप में लगाया जाना चाहिए. राजेंद्र कृषि विश्वविद्यालय पूसा, समस्तीपुर के वैज्ञानिक डा. हांडू का कहना है कि बिहार की मिट्टी व जलवायु खस की खेती के लिए सही है. यहां के किसान इस की खेती कर के अपनी माली हालत सुधार सकते हैं. साथ ही उन का यह भी मानना है कि खस की खेती पर बाढ़ व सूखे का ज्यादा असर नहीं होता है. इस की खेती बंजर जमीन में भी की जा सकती है. पशु इस के कड़े डंठलों को नहीं खाते हैं, इसलिए इस की फसल की ज्यादा देखभाल की जरूरत नहीं पड़ती है.
वैज्ञानिकों का मिलता रहा सहयोग : अपनी इस सफलता का श्रेय सीमैप लखनऊ के वैज्ञानिक डा. कलीम अहमद, वैज्ञानिक वीरेंद्र कुमार सिंह तोमर व डा. एचपी सिंह आदि को देते हुए हामिद कहते हैं कि यदि आज के प्रगतिशील किसान वैज्ञानिकों के सहयोग व अपनी सूझबूझ के साथ औषधीय खेती करें, तो अच्छी कमाई कर सकते हैं.
प्रति एकड़ 40000 रुपए की आय : हामिद खां ने बताया कि खस, पोपुलर, घृतकुमारी, मेंथा व पेपट्रा की औषधीय खेती से 1 साल में प्रति एकड़ तकरीबन 40000 रुपए की आमदनी होती है. किसान यदि फरवरी में खस को काट कर मेंथा की सह फसल लेते हैं, तो प्रति एकड़ 15000 से 20000 रुपए की अलग से आमदनी की जा सकती है.
प्रयोग के तौर पर हामिद पापुलर के साथ पामारोजा, सेट्रोनेला व खस की खेती कर रहे हैं.
हामिद द्वारा 4 एकड़ में 6 से 14 फुट की दूरी पर पापुलर लगाया गया है, जिस के बीच में सह फसल ली जाती है. उन का मानना है कि पापुलर के 400 पौधे प्रति एकड़ लगा कर 7 सालों में 3000 रुपए प्रति पेड़ की दर से लाखों रुपए की आय हासिल की जा सकती है.
खस के पौधों में दीमक लगती है, जिस से बचाव के लिए ट्राइसेल 20 ईसी 200 ग्राम प्रति एकड़ डाल कर खेत की अच्छी तरह जुताई करनी चाहिए. खस के पौधे से पौधे की दूरी डेढ़ फुट व लाइन से लाइन की दूरी 2 फुट की होनी चाहिए.
केंद्रीय औषिध एवं सगंध पौधा संस्थान, लखनऊ द्वारा आयोजित औषधीय एवं सुगंध पौधों के उत्पादन हेतु उन्नत प्रौद्योगिकी पर प्रशिक्षण कार्यक्रम लहेली गांव में किया गया था, जिस से यहां के किसानों को काफी जानकारी मिली.
हामिद द्वारा ढाई लाख की लागत से स्टील डिस्टलेशन प्लांट भी लगाया गया है. 1 टन की कूवत वाले इस प्लांट में 8 क्विंटल खस की जड़ें भर कर 72 घंटे में तेल निकाला जाता है. इसी प्लांट से लेमनग्रास, पामारोजा, सिट्रोनेला व मेंथा का भी तेल निकाला जाता है.