Aloe Vera एलोवेरा एक अफ्रीकी वनस्पति है. इस का वैज्ञानिक नाम एलो वार्बाडेंसिस है. यह देश के अलगअलग हिस्सों में अलगअलग नामों से जाना जाता है. इसे घृतकुमारी, घीकुंवार, ग्वारपाठा, कुमारी और एलोय सहित कुछ अन्य नामों से भी जानते हैं. शुरुआत में लोग इसे अनउपयोगी जमीनों पर लगाते थे, मगर अब इस की व्यावसायिक खेती जोर पकड़ चुकी है. एलोवेरा (Aloe Vera) की व्यावसायिक खेती का दायरा
बढ़ने की खास वजह इस का औषधीय महत्त्व है. एलोवेरा (Aloe Vera) को किसानों से बहुराष्ट्रीय कंपनियां ऊंची कीमत पर खरीद रही हैं.
तमाम आयुर्वेदिक और यूनानी दवाओं में इसे मुख्य रूप से इस्तेमाल किया जाता है. इस का इस्तेमाल चेहरे को चमकदार बनाने के अलावा पेट के रोगों, आंखों के रोगों और त्वचा के रोगों को ठीक करने में किया जाता है. इसे सौंदर्य प्रसाधन सामग्रियां बनाने में भी बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाता है.
कैसा होता है एलोवेरा (Aloe Vera): एलोवेरा छोटे तने और मांसल पत्तियों वाला तकरीबन 1 मीटर तक का पौधा होता है. पत्तियों की नसों पर कांटे पाए जाते हैं. इस में लाल और पीले रंग के फूल आते हैं.
कैसी हो मिट्टी : अच्छे जल निकास वाली बलुई दोमट मिट्टी जिस का पीएच मान 6.5 से 8.5 के बीच हो इस की खेती के लिए बेहतर होती है. वैसे इस की खेती चट्टानी, रेतीली, पथरीली समेत किसी भी तरह की जमीन में की जा सकती है.
कैसी हो आबोहवा : गरम और शुष्क जलवायु एलोवेरा (Aloe Vera) की खेती के लिए सही होती है. जहां पर कम बारिश होती है और अधिक तापमान बरकरार रहता है, वहां भी इस की खेती आसानी से की जा सकती है.
रोपाई का समय : जहां पर सिंचाई की सुविधा मौजूद हो, वहां बरसात खत्म होने के बाद दिसंबर जनवरी व मईजून छोड़ कर कभी भी इस की रोपाई कर सकते हैं.
खेत की तैयारी : सब से पहले खेत को समतल कर लें. फिर 2 बार जुताई करने के बाद पाटा लगा कर ऊपर उठी हुई क्यारियां बना कर रोपाई करें.
प्रजाति : अपने इलाके के मुताबिक प्रजाति का ही चयन करें. इस के लिए आप जिला उद्यान कार्यालय या कृषि विज्ञान केंद्र के उद्यान विशेषज्ञ से मिल सकते हैं. वैसे केंद्रीय औषधि और सगंध पौध संस्थान लखनऊ के वैज्ञानिकों ने सिम सीतल नाम की उन्नत प्रजाति विकसित की है, जिसे लगा सकते हैं.
रोपाई : 50 सेंटीमीटर लाइन से लाइन और 40 सेंटीमीटर पौध से की दूरी रखते हुए रोपाई करें.
खाद और उर्वरक : अच्छी पैदावार के लिए 5-10 टन खूब सड़ी हुई गोबर की खाद, वर्मी कंपोस्ट या कंपोस्ट का प्रति हेक्टेयर इस्तेमाल करना चाहिए. इस के अलावा 50 किलोग्राम नाइट्रोजन, 50 किलोग्राम फास्फोरस और 50 किलोग्राम पोटाश का प्रति हेक्टेयर हर साल इस्तेमाल करना चाहिए. नाइट्रोजन की मात्रा को 3 बार में दिया जाना चाहिए.
सिंचाई: रोपाई के तुरंत बाद सिंचाई करना बहुत जरूरी है. इस के बाद जरूरत के मुताबिक सिंचाई करनी चाहिए. वैसे बीचबीच सिंचाई करने से फसल की बढ़वार कई गुना बढ़ जाती है.
देखभाल : कुछ समस्याओं के अलावा एलोवेरा (Aloe Vera) में कीड़ों और बीमारियों का कोई खास प्रकोप नहीं होता है. कई बार देखने में आता है कि बरसात के मौसम में पत्तियों पर फफूंद जनित सड़न और धब्बे पड़ जाते हैं. इस की रोकथाम के लिए मैंकोजेब की 3 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में मिला कर छिड़काव करना चाहिए. कई बार जमीन के अंदर तने और जड़ों को ग्रब कुतरकुतर कर नुकसान पहुंचाते रहते हैं. इस की रोकथाम के लिए 60-70 किलोग्राम नीम की खली प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करनी चाहिए.
कटाई : तकरीबन 10-12 महीने बाद इस की पत्तियां कटाई के लिए तैयार हो जाती हैं. बढ़त के मुताबिक नीचे की 2-3 पत्तियों की कटाई पहले करनी चाहिए. तकरीबन 2 महीने के बाद से परिपक्व हो चुकी 3-4 पत्तियों की कटाई करते रहना चाहिए.
उपज : एलोवेरा (Aloe Vera) की 50-60 टन ताजी पत्तियां प्रति हेक्टेयर हासिल हाती हैं, जिन से 35-40 फीसदी तक उपयोगी रस (बार्वेलोइन रहित) मिल जाता है. यदि इसे दूसरे साल के लिए भी छोड़ दिया जाए तो उत्पादन में 10-15 फीसदी की बढ़ोतरी पाई जाती है. वैसे असिंचित दशा में उत्पादन थोड़ा कम मिलता है.
भंडारण : ताजी पत्तियों को कम तापमान में 1-2 दिनों तक रखा जा सकता है.
मुनाफा : एलोवेरा (Aloe Vera) की खेती से होने वाली आय बाजार की समझ, मूल्य और खरीदार पर निर्भर होती है. फिर भी मोटे तौर पर इस से 1.5 लाख से 3 लाख रुपए प्रति हेक्टेयर सालाना कमाए जा सकते हैं. इस की खेती करने से पहले मार्केटिंग के बारे में गहराई से जानकारी हासिल कर लेनी चाहिए, ताकि बिक्री के लिए भटकना न पड़े और वाजिब कीमत भी मिल सके.