जैविक खेती की दौड़ में नौकरीपेशा भी कूद पड़े हैं. नए तौरतरीकों से इन किसानों ने न केवल खेती शुरू की, बल्कि आमदनी भी अच्छीखासी कर रहे हैं. यह एक ऐसे नौकरीपेशा किसान की कहानी है, जिस ने हिस्से में आए जमीन के छोटे से टुकड़े को ही अपनी आजीविका का साधन बना लिया.
बात मध्य प्रदेश के सतना जिले के महज 700 की आबादी वाले गांव पोइंधाकला की है. यहां के किसान अभयराज सिंह ने परिवार की चिंता किए बिना 17 साल पहले सहकारी समिति की सरकारी नौकरी छोड़ दी. बंटवारे में आई एक हेक्टेयर जमीन को इस लायक बनाया कि इस में अनाज या फिर फलदार पौधे उग सकें.
वे बताते हैं कि सहकारी समिति में सेल्समैन की नौकरी करते समय उचित मूल्य की 5 दुकानों का जिम्मा था. इस के बाद भी तनख्वाह वही 15,000 रुपए, इस से पत्नी और 2 बच्चों का गुजारा ही चल पा रहा था. उन्हें आगे कोई भविष्य नहीं दिखाई दे रहा था. सो, साल 2005 में उन्होंने नौकरी छोड़ दी. बंटवारे में मिली जमीन में फलों की खेती शुरू की.
पारिवारिक बंटवारे में मिली 0.72 हेक्टेयर की छोटी सी जमीन में पपीते लगाए. साथ ही, सब्जियां भी. पर पपीते ने दूसरे साल ही साथ छोड़ दिया. इस में चुर्रामुर्रा रोग लग गया था. इस रोग के कारण पत्तियां सूख गईं और फल नहीं आए.
50 रुपए में लाए थे पौधे
अभयराज सिंह बताते हैं कि साल 2008 में उन्होंने नीबू के महज 20 पौधे लगाए थे. आज 300 पेड़ हैं. तब उन के महज 50 रुपए ही खर्च हुए थे. नीबू का पेड़ तैयार होने में तकरीबन 3 साल लग जाते हैं, इसलिए इंटरक्रौपिंग के लिए गन्ना भी लगा दिया था. इस से यह फायदा हुआ कि परिवार के सामने भरणपोषण का संकट नहीं आया. जब नीबू के पेड़ तैयार हो गए, तो इंटरक्रौपिंग बंद कर दी. उन 20 पेड़ों से तब तकरीबन 25,000 से 30,000 रुपए कमाए थे.
बिना ट्रेनिंग तैयार किया 300 पेड़ों का बगीचा
अभयराज सिंह कहते हैं कि नीबू एक ऐसा पेड़ है, जिसे बाहरी जानवरों और पक्षियों से कोई खतरा नहीं है. चिडि़या भी आ कर बैठ जाती हैं, पर कभी चोंच नहीं मारती हैं. गांव के आसपास भी आम के बगीचे हैं, जिन में बंदर भी आते हैं. इस से पपीता, गन्ना और हरी सब्जियों को खतरा रहता है, पर नीबू को छूते तक नहीं हैं, इसलिए खेती करना आसान हुआ.
आज पूरा बाग तैयार है. यहां जितने पेड़ हैं, कलम विधि से तैयार किए गए हैं. यह काम भी उन्होंने खुद किया है. इस के लिए कोई ट्रेनिंग नहीं ली है.
साल में 2-3 लाख की आमदनी
सालाना उत्पादन के बारे में अभयराज सिंह बताते हैं कि नीबू के एक पेड़ में 3,000 से 4,000 फल आते हैं. इस हिसाब से 300 पेड़ों में तकरीबन एक लाख नीबू आते हैं. उन की अगर एक रुपए भी कीमत लगाई जाए, तो एक लाख रुपए होती है.
वे यह भी बताते हैं कि गांव से तकरीबन 16 किलोमीटर दूर सतना शहर है, जहां वे अपनी उपज बेचते हैं. खुली मंडियों की जगह शहर के 6 होटलों और इतने ही ढाबों में सप्लाई है. यहां पैसा फंसने की गुंजाइश कम है, इसलिए ज्यादातर होटलों और ढाबों को ही नीबू सप्लाई करते हैं. इस के अलावा दुकान वाले भी डिमांड करते हैं. इस से तकरीबन सालभर सप्लाई जारी रहती है.
इंटरक्रौपिंग भी अपनाई
नौकरी छोड़ किसानी से आजीविका चलाने के लिए अभयराज सिंह के पास यही एकमात्र जमीन है, इस के अलावा कुछ नहीं. वे आय बढ़ाने के लिए इंटरक्रौपिंग का सहारा ले रहे हैं. नीबू से बची क्यारियों में केला, अमरूद के पेड़ तैयार कर रहे हैं. केला और अमरूद तैयार भी हैं. इस के अलावा हलदी, शहतूत, बरसीम आदि भी हैं, जिस से रोजमर्रा के खर्चों के लिए कोई दिक्कत नहीं आती.