केले के रेशों का उपयोग कर के घावों के लिए बनाई गई पर्यावरण-अनुकूल ड्रेसिंग सामग्री घाव की देखभाल के लिए एक स्थायी समाधान प्रस्तुत करती है.
विश्व के सब से बड़े केले की खेती वाले देश भारत में केले के छद्म तने (स्यूडो स्टेम्स) प्रचुर मात्रा में हैं, जिन्हें कटाई के बाद फेंक दिया जाता है.
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के अंतर्गत एक स्वायत्त संस्थान, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी उच्च अध्ययन संस्थान, इंस्टीट्यूट औफ एडवांस्ड स्टडी इन साइंस एंड टैक्नोलौजी –आईएएसएसटी के वैज्ञानिकों ने केले के छद्म तने, जिसे अकसर कृषि अपशिष्ट माना जाता है, को घावों के उपचार के लिए पर्यावरण अनुकूल घाव ड्रेसिंग सामग्री में बदल दिया है. .
प्रो. देवाशीष चौधरी और सेवानिवृत्त प्रो. राजलक्ष्मी देवी के नेतृत्व में आईएएसएसटी-डीकिन यूनिवर्सिटी संयुक्त पीएचडी कार्यक्रम में एक शोध विद्वान मृदुस्मिता बर्मन सहित अनुसंधान टीम ने एक उत्कृष्ट यांत्रिक शक्ति और एंटीऔक्सीडेंट गुणों वाला एक बहुक्रियाशील (मल्टीफंक्शनल) पैच बनाने के लिए केले के रेशों को चिटोसन और ग्वार गम जैसे जैव बहुलकों (बायोपौलीमर्स) के साथ कुशलतापूर्वक संयोजित किया है.
इसे एक कदम और आगे बढ़ाते हुए शोधकर्ताओं ने विटेक्स नेगुंडो एल. पौधे के सत्व (एक्स्ट्रेक्ट) के साथ इस पैच को लोड किया, जो कृत्रिम परिवेशीय औषधि निकास (इन विट्रो ड्रग रिलीज) और जीवाणुरोधी एजेंटों के रूप में पौधे के सत्व-मिश्रित केले के रेशे (फाइबर) -बायोपौलीमर मिश्रित पैच की क्षमताओं का प्रदर्शन करता है. इस अभिनव ड्रेसिंग सामग्री को बनाने में उपयोग की जाने वाली सभी सामग्रियां प्राकृतिक और स्थानीय रूप से उपलब्ध हैं और जो विनिर्माण प्रक्रिया को सरल, लागत प्रभावी और गैरविषैली (नौन-टौक्सिक) बना देती हैं.
घाव की ड्रेसिंग सामग्री घाव की देखभाल के लिए एक स्थायी समाधान प्रस्तुत करती है और प्रचुर मात्रा में केले के पौधे के लिए अतिरिक्त उपयोग का सुझाव देती है, जिस से किसानों को लाभ हो सकता है और पर्यावरणीय प्रभाव भी कम हो सकता है.
प्रो. देवाशीष चौधरी ने बताया कि यह जांच घाव भरने में एक नए युग का द्वार खोलने के साथ ही कम लागत वाला, विश्वसनीय और पर्यावरण के अनुकूल ऐसा विकल्प प्रस्तुत करती है, जो जैव चिकित्सकीय (बायोमैडिकल) अनुसंधान में महत्वपूर्ण क्षमता रखती है. केले के फाइबर-बायोपौलीमर मिश्रित यह ड्रेसिंग अपने व्यापक अनुप्रयोगों एवं स्वास्थ्य और पर्यावरण पर सकारात्मक प्रभाव के साथ घाव की देखभाल में क्रांति ला सकती है.
एल्सेवियर ने हाल ही में इस कार्य को इंटरनेशनल जर्नल औफ बायोलौजिकल मैक्रोमोलेक्यूल्स में प्रकाशित किया है.
इस अभूतपूर्व शोध को हाल ही में एल्सेवियर द्वारा इंटरनेशनल जर्नल औफ बायोलौजिकल मैक्रोमोलेक्यूल्स में प्रकाशित किया गया है, जो वैज्ञानिक समुदाय में इस के महत्व को और अधिक उजागर करता है.
अधिक जानकारी के लिए प्रो. देवाशीष चौधरी की औफिशियल वैबसाइट devasish@iasst.gov.in पर संपर्क कर सकते हैं.