केवल गैरकृषि साधन बढ़ाने से ही किसानों की दशा नहीं सुधरेगी, उन्हें शिक्षा भी देनी होगी. किसानों को गांवों में ही बुनियादी सुविधाएं देनी होंगी. इस में स्वास्थ्य सुविधाएं, बाजार, बैंक जैसी सेवाएं भी शामिल हैं. अगर किसान के बच्चे शिक्षित होंगे तो वे गैरकृषि क्षेत्र में नौकरी भी कर सकते हैं.
भारत कृषि प्रधान देश है या नहीं रहा, इसे 2 तरह से देखे जाने की जरूरत है. जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद में अब कृषि की हिस्सेदारी बहुत कम रह गई है और अगर यही हालात रहे, तो अगले 15 सालों में भारत की जीडीपी में कृषि की हिस्सेदारी और भी कम हो जाएगी. ऐसे में आय के नजरिए से देखा जाए, तो अब भारत कृषि प्रधान नहीं रह गया है, लेकिन यह पूरी तरह से सही नहीं है, क्योंकि खेतीबारी पर निर्भर आबादी की नजर से देखा जाए तो हम अभी भी कृषि प्रधान देश हैं.
साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, लगभग 55 फीसदी श्रम शक्ति यानी वर्क फोर्स खेतीबारी पर निर्भर है. खेतीबारी पर निर्भर आबादी तो 65-70 फीसदी होगी और एनएसएसओ के मुताबिक, साल 2011 में 49 फीसदी श्रम शक्ति खेतीबारी पर निर्भर थी और अब भी लगभग 44 फीसदी श्रम शक्ति खेतीबारी पर निर्भर है. सीधेसीधे यह कह देना कि ‘भारत कृषि प्रधान देश नहीं रहा’ सही नहीं है.
अब यहां यह समझना जरूरी है कि खेतीबारी से जुड़ी आबादी क्या करती है? पिछले कई सर्वे बताते हैं कि कई राज्य ऐसे हैं, जहां फसल की खेती से आमदनी कम है, लेकिन वहां के छोटे या सीमांत किसान या भूमिहीन किसानों की आमदनी मजदूरी से भी होती है, वे बाहर नहीं जाते, बल्कि वहीं बड़े किसानों के पास खेत में काम करते हैं. वे कोई गैरकृषि गतिविधि नहीं करते. केरल, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक सहित कई राज्यों में किसानों की जो कुल आमदनी है, उस में खेतिहर मजदूरों का हिस्सा काफी उल्लेखनीय है. इसे गैरकृषि आय माना जाता है, लेकिन ऐसा नहीं है. जिसे अभी गैरकृषि आय कहा जा रहा है, सही माने में वह गैरकृषि आय नहीं है. हां, गैरकृषि व्यापार आय की बात करें तो उस का अनुपात काफी कम है, इसलिए अभी यह कह देना जल्दबाजी होगी कि कृषि आधारित अर्थव्यवस्था में कमी आ रही है. इस की एक वजह यह भी है कि देश में अभी भी खेतीबारी क्षेत्र में जितनी संभावनाएं हैं, उस का दोहन ही नहीं किया गया.
लेकिन इस का मतलब यह नहीं है कि गैरकृषि आय की भागीदारी बढ़ाने की जरूरत नहीं है. देश में गैरकृषि से होने वाली आय को भी बढ़ाने की सख्त जरूरत है. खेतीबारी पर निर्भर इतनी बड़ी आबादी को केवल इसी के भरोसे नहीं छोड़ सकते. अब या तो खेतीबारी से होने वाली आमदनी बढ़ाइए या फिर गैरकृषि आमदनी बढ़ाइए.
किसानों को ऐसे मौके देने होंगे कि वे अपनी खेती के अलावा दूसरे कामों से आमदनी बढ़ाएं, जैसे पशुपालन, मधुमक्खीपालन, मछलीपालन वगैरह. सही माने में किसानों की सुनिश्चित आमदनी गैरकृषि काम से ही होती है, वरना तो खेतीबारी से होने वाली आमदनी का कोई भरोसा नहीं. कभी सूखा पड़ गया, तो कभी बाढ़ आ गई. कभी आग लग गई और अब कोरोना वायरस. कुलमिला कर खेतीबारी बहुत जोखिम भरा रोजगार का साधन हो चुका है, इसलिए गैरकृषि आय पर फोकस बढ़ाना होगा.
हालांकि, केवल गैरकृषि साधन बढ़ाने से ही किसानों की दशा नहीं सुधरेगी, उन्हें शिक्षा भी देनी होगी. किसानों को गांवों में ही बुनियादी सुविधाएं देनी होंगी. इस में स्वास्थ्य सुविधाएं, बाजार, बैंक जैसी सेवाएं भी शामिल हैं. अगर किसान के बच्चे शिक्षित होंगे तो वे गैरकृषि क्षेत्र में नौकरी भी कर सकते हैं. कौशल विकास कार्यक्रम चला कर उन्हें तकनीकी तौर पर मजबूत करने से वे उद्यमिता की ओर भी आगे बढेंगे. शिक्षा के अलगअलग फायदे होते हैं नौजवानों के लिए, खासकर यह सब करना पड़ेगा.
लेकिन कुछ हो नहीं रहा है. न तो कृषि क्षेत्र और न ही गैरकृषि क्षेत्र की ओर कोई विशेष ध्यान दिया जा रहा है. ऐसे में क्या होगा? किसान और उस के परिवारों के सामने भुखमरी के सिवा रास्ता नहीं बचेगा या वे आपराधिक गतिविधियों में शामिल हो जाएंगे.
देश की व्यवस्था अगर कृषि क्षेत्र में सुधार लाना चाहती है, तो कृषि शिक्षा पर खास ध्यान देना होगा. अब कृषि क्षेत्र में नईनई तकनीक की बातें की जा रही हैं. ड्रोन के इस्तेमाल की बात हो रही है. सिंचाई में नई तकनीक की बात हो रही है. लेकिन यह सब तब ही संभव है, जब किसान को उस की तकनीकी जानकारी हो. उसे इस की शिक्षा देने की जरूरत है. किसानों को ट्रेंड करना होगा, ताकि वे खेतीबारी में सुधार कर सकें. साथ ही, कृषि क्षेत्र में नौकरी कर सकें.
राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जो इनोवेशन हो रहे हैं, उन्हें सरकार अगर जमीनी स्तर पर लागू नहीं करेगी, तो कृषि क्षेत्र में सुधार नहीं होगा, इसलिए कृषि शिक्षा की ओर बहुत ही ध्यान देना होगा.
सरकार यदि चाहती है कि किसान के बच्चे भी खेतीबारी ही करें, तो उन्हें कृषि शिक्षा देने की जरूरत है खासकर आधुनिक तकनीक की जानकारी देनी पड़ेगी, तभी जा कर वे कृषि क्षेत्र में रहेंगे और आमदनी बढ़ाएंगे, लेकिन ओवरओल जो स्थिति है, उस से लगता है कि कृषि क्षेत्र में लोग रहेंगे नहीं, खासकर युवा पीढ़ी. इस की बड़ी वजह यह भी है कि खेत छोटे होते जा रहे हैं, जिस से आमदनी ज्यादा होती नहीं है. रिस्क भी बहुत हैं, लोग तैयार नहीं हो रहे हैं. अब तक हम कोई ऐसा मेकैनिज्म तैयार नहीं कर पाए, जिस से खेती को जोखिम मुक्त बनाया जा सके. बीमा योजनाएं भी यह काम नहीं कर पाई हैं. सपोर्ट सिस्टम नहीं है. पैदावार ज्यादा हो जाए, तो उसे फेंकना पड़ता है. सरकार को सिस्टम बनाना होगा कि वह खेती को रिस्क फ्री कर दे.
युवा कृषि की ओर जाना चाहते हैं, क्योंकि इस क्षेत्र में रोजगार की संभावनाएं बढ़ी हैं, लेकिन सरकारी कृषि विश्वविद्यालयों में सीटें नहीं बढ़ाई जा रही हैं, उन्हें सुविधाएं भी नहीं दी जा रही हैं, इसलिए इस क्षेत्र में प्राइवेट सैक्टर हाथ मार रहा है.
पिछले दिनों सरकार ने भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद यानी आईएसएआर से कहा है कि वह अपने स्तर पर संसाधन जुटाए. अब अगर वैज्ञानिक ही संसाधन जुटाने लगेगा, तो वह रिसर्च क्या करेगा? संसाधन ही जुटाना था तो वह वैज्ञानिक क्यों बना?
यह सही नहीं है. इस से सरकारी क्षेत्र में रिसर्च खत्म हो जाएगी. प्राइवेट कंपनियां ही कृषि क्षेत्र में रिसर्च कराएंगी. जिन को बीज बेचना है, उर्वरक बेचना है, मशीन बेचनी है, वे लोग ही कृषि क्षेत्र में रिसर्च करेंगे और अपने मुनाफे के लिए उसे लागू करेंगे. इस से प्राइवेट सैक्टर को फायदा होगा.
ऐसी हालत में कृषि शिक्षा, जो भी उपलब्ध है, चौपट होगी, उस की अहमियत कम होगी और खेतीबारी की गुणवत्ता, जैसी भी है, भी प्रभावित होगी व किसी न किसी रूप में खाद्यान्न का संकट भी महसूस किया जाता रहेगा.