खस यानी पतौरे जैसी दिखने वाली वह झाड़ीनुमा फसल, जिस की जड़ों से निकलने वाला तेल काफी महंगा बिकता है. इंगलिश में इसे वेटिवर कहते हैं.
साल में 60-65 हजार रुपए की लागत से प्रति एकड़ डेढ़ लाख रुपए तक की खस से कमाई हो सकती है. यह एक ऐसी फसल है, जो काफी कम लागत और मेहनत में किसानों को मोटा मुनाफा देती है.
खस की खेती को किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए केंद्र सरकार के द्वारा शुरू किए गए ‘एरोमा मिशन’ के तहत पूरे देश में कराया जा रहा है, इस की खेती उन इलाकों में भी हो सकती है जहां पानी की किल्लत है और उन स्थानों में भी, जहां वर्षा के दिनों में कुछ समय के लिए पानी इकट्ठा हो जाता है यानी खस की खेती हर तरह की जमीन, मिट्टी और जलवायु में हो सकती है.
भारत और बाकी देशों में खस के तेल की मांग को देखते हुए इस की खेती का दायरा भी तेजी से बढ़ा है.
गुजरात में भुज और कच्छ से ले कर तमिलनाडु, कर्नाटक, बिहार और उत्तर प्रदेश तक में इस की खेती बड़े पैमाने पर हो रही है.
खस की खेती को बढ़ावा देने, नई किस्मों के विकसित करने के साथ ही सीमैप ने पेराई की गुणवत्तायुक्त तकनीक भी विकसित की है, जिस से अच्छा और ज्यादा तेल हासिल किया जा सकता है.
खस की कई उन्नत किस्में
सीमैप द्वारा विकसित खस यानी वेटिवर की उन्नत किस्मों जैसे केएस-1, केएस -2, धारिणी, केसरी, गुलाबी, सिमवृद्धि, सीमैप खस-15, सीमैप खस-22, सीमैप खुसनालिका और सीमैप समृद्धि हैं.
खस की 6 महीने में तैयार होने वाली किस्म भी शामिल है. 18 महीने में तैयार होने वाली फसल से एक एकड़ में 10 लिटर तेल निकलता है, तो एक साल वाली फसल में 8 से 10 लिटर वहीं 6 महीने की किस्म भी 5-6 लिटर तेल देती है. अगर किसान इस के साथ सहफसली खेती करते हैं, तो मुनाफा और भी बढ़ जाता है.
खस के तेल से महंगे इत्र, सौंदर्य प्रसाधन और दवाएं बनती हैं, तो जड़ों का प्रयोग कूलर की घास और हस्तशिल्प में होता है. खस की जड़ों की रोपाई फरवरी से अक्तूबर महीने तक किसी भी समय की जा सकती है, लेकिन सब से सही समय फरवरी और जुलाई का महीना होता है.
खस की खुदाई तकरीबन 6,12,14 व 18 महीने बाद (प्रजाति के अनुसार) इन की जड़ों को खोद कर उन की पेराई की जाती है.
एक एकड़ खस की खेती से तकरीबन 6 से 10 लिटर तेल मिल जाता है यानी एक हेक्टेयर में 15-25 लिटर तक तेल मिल सकता है.
एक मोटे अनुमान के मुताबिक दुनिया में हर साल तकरीबन 250-300 टन तेल की मांग है, जबकि भारत में महज 100-125 टन का उत्पादन हो रहा है. इस का सीधा सा मतलब है कि आगे बहुत ज्यादा संभावनाएं हैं.
उपयुक्त जलवायु
खस गरम और तर जलवायु में अच्छी पनपती है. पहाड़ी इलाकों को छोड़ कर अन्य सभी भागों में यह उपजाया जा सकता है. छायादार स्थानों में जड़ों की वृद्धि अधिक नहीं होती है.
भूमि का चयन
इस की खेती विभिन्न प्रकार की मिट्टी जैसे ऊसर भूमि, जलमग्न भूमि, क्षारीय मिट्टी, ऊबड़खाबड़, गड्ढेयुक्त क्षेत्र और बलुई भूमि में आसानी से उगाया जा सकता है, लेकिन भारी और मध्यम श्रेणी की मिट्टी, जिस में पोषक तत्त्वों की प्रचुर मात्रा हो और जलस्तर ऊंचा हो, वहां खस की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है.
मध्यम विन्यास वाली मिट्टी में जड़ों की अच्छी वृद्धि होती है, किंतु चिकनी मिट्टी में जड़ों की खुदाई कठिन काम है. बलुई और बलुई दोमट मिट्टी में जड़ों की खुदाई पर अपेक्षाकृत कम खर्च आता है व जड़ें लंबी गहराई तक जाती हैं.
खेत की तैयारी
खस का पौधा कठोर प्रवृत्ति का होने के कारण मामूली देखभाल और मिट्टी की तैयारी कर के लगाया जा सकता है. भूमि में मौसमी खरपतवारों का प्रकोप नहीं हो. खरपतवारों और जड़ों के अवशेषों को हटाने के जिउ 2 से 3 गहरी जुताई की जरूरत होती है.
प्रसारण तकनीक
उत्तर भारत में खस का प्रसारण 6 से 12 माह के मूढ़ों से किया जाना चाहिए. इन मूढ़ों को 30 से 40 सैंटीमीटर ऊपर से काट लिया जाता है. बनाई गई कलमों या स्लिप में 2 से 3 कलमें होनी चाहिए.
कलमों को बनाने के बाद छाया में रखना चाहिए और सूखी पत्तियों को हटा देने से बीमारी फैलने की संभावना नहीं रहती है. नई प्रजातियां विकसित करने के लिए बीज से पौधे तैयार किए जाते हैं.
रोपण करना
सिंचाई की व्यवस्था रहने पर खस की रोपाई अधिक सर्दी को छोड़ कर कभी भी की जा सकती है. उत्तरी भारत में जाड़ों में तापमान काफी गिर जाने के कारण पौधे या कलम सही ढंग से स्थापित नहीं हो पाते हैं. जिन स्थानों में सिंचाई की सही व्यवस्था नहीं है, खस की रोपाई वर्षा ऋतु में की जाती है. अच्छी गुणों से युक्त मिट्टी में कलमें 60×60 सैंटीमीटर की दूरी पर लगाएं और बेकार पड़ी और कमजोर मिट्टी में रोपाई 60×30 सैंटीमीटर पर करना उचित होता है.
खाद और उर्वरक
मध्यम और उच्च उर्वरायुक्त मिट्टी में आमतौर पर खस बिना खाद और उर्वरक के उगाया जाता है. कम उर्वरायुक्त जमीन में नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश का 60:25:25 की दर से व्यवहार करने से जड़ों की अच्छी उपज होती है. नाइट्रोजन का उपयोग खंडित कर करें. खस स्थापन के पहले साल में नाइट्रोजन का उपयोग दो बराबर भागों में करें.
खरपतवार पर नियंत्रण
खस तीव्र गति से बढ़ने वाला पौधा है, इसलिए खरपतवार को बढ़ने का मौका कम मिलता है. किंतु ऐसे क्षेत्र, जहां पर खरपतवारों की सघनता है, वहां पर फावड़े या वीडर का प्रयोग किया जा सकता है.
सिंचाई प्रबंधन
खस की रोपाई के तत्काल बाद बेहतर पौध स्थापना के लिए सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है. पौधे एक माह में पूरी तरह स्थापित हो जाते हैं, तब ये पौधे आमतौर मरते नहीं हैं. जड़ों की बेहतर बढ़वार के लिए शुष्क मौसम में सिंचाई देना फायदेमंद होता है.
तनों की कटाई
आमतौर पर सिमवृद्धि को छोड़ कर अन्य प्रभेद 18 से 20 माह में खुदाई योग्य हो जाती है. सिमवृद्धि 12 माह में खुदाई योग्य हो सकती है.
रोपाई के पहले साल में तनों की 30 से 40 सैंटीमीटर ऊपर से पहली कटाई और खुदाई से पहले एक कटाई अवश्य की जानी चाहिए. काटे गए ऊपरी भाग को चारे, ईंधन या झोंपडि़यां बनाने के काम में लाया जाता है.
जड़ों की खुदाई
पूरी तरह विकसित जड़ों की सर्दी के मौसम दिसंबर से जनवरी माह में खुदाई की जानी चाहिए. खुदाई के समय जमीन में हलकी नमी रहना आवश्यक है. खुदाई के बाद जड़ों से मिट्टी अलग होने के लिए खेत में 2 से 3 दिन सूखने देना चाहिए.
पूरी तरह परिपक्व जड़ों से अच्छी गुणवत्ता का तेल मिलता है. इस का विशिष्ट घनत्त्व और औप्टिकल रोटेशन ज्यादा होता है. आजकल जड़ों की खुदाई पर खर्च कम करने के लिए 2 फारा कल्टीवेटर का उपयोग हो रहा है. विशिष्ट गुणवत्ता के लिए खुदाई यंत्र सीमैप बाजार में उपलब्ध हैं.
तेल का उत्पादन
जड़ों से तेल निकालने में लगने वाला समय क्षेत्र के हिसाब से लगता है. इस के आसवन के लिए क्लीभेजर उपकरण के सिद्धांत पर कोहोबेसन आसवन संयंत्र विकसित किया गया है, जिस के द्वारा खस की अच्छी प्रजाति के आधार पर 1 से 2 फीसदी तक एसेन्सियल तेल निकाला गया है. स्टेनलेस स्टील से बने आसवन संयंत्र द्वारा उच्च गुणवत्ता का तेल मिलता है.