वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का बजट-2024 दो मायनों में अभूतपूर्व रहा. पहला तो यह कि देश के इतिहास में पहली बार किसी वित्त मंत्री ने 7 वीं बार बजट पेश किया है. हालांकि इस रिकौर्ड के बनने से देश का क्या भला होने वाला है पर इकोनौमी पर क्या प्रभाव पड़ना है, यह अभी भी शोधकर्ताओं के शोध का विषय है. दूसरा यह कि कृषि की वर्तमान आवश्यकता के मद्देनजर इस बजट में देश की खेती और किसानों के लिए ऐतिहासिक रूप से अपर्याप्त न्यूनतम राशि प्रावधानित की गई है.
यह गजब विडंबना है कि इस सब के बावजूद 2024-25 के बजट में विकसित भारत की 9 प्राथमिकताओं में कृषि को सर्वप्रथम स्थान पर रखने का दावा करने का ढोंग किया जा रहा है. इस बजट में घोषित योजनाएं और आवंटन न केवल अपर्याप्त हैं, बल्कि वे कृषि क्षेत्र में कोई भी वास्तविक सकारात्मक परिवर्तन लाने में पूरी तरह से असमर्थ हैं.
कृषि बजट : निराशा का कोहरा हुआ और भी घना
“हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले,” बजट 2024 के संदर्भ में देश के किसानों के ऊपर यह लाइन बेहद सटीक बैठती है. कृषि व कृषि संबंध क्षेत्रों के लिए फरवरी, 2024 के अंतरिम बजट में 1.47 लाख करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया था और वर्तमान बजट 1.52 लाख करोड़ रुपए का आवंटन किया गया है, जो बहुत ही मामूली बढ़ोतरी है. यह राशि देश के कृषि क्षेत्र की विशाल जरूरतों के मुकाबले ऊंट के मुंह में जीरा है.
किसानों को बड़ी घोषणाओं और दीर्घकालिक सुधार योजनाओं की उम्मीद थी, लेकिन यह बजट उन की उम्मीदों पर पानी फेरता दिखाई देता है. प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि और किसान पेंशन योजनाओं का दायरा व राशि कम होती जा रही है. पुरानी योजना व नई योजनाओं के लिए कोई बड़ा आवंटन नहीं है.
किसानों का प्रीमियम हड़प कर निजी बीमा कंपनियों की बैलेंसशीट समृद्ध हो रही है, जबकि देश में प्रतिदिन बड़ी तादाद में मजबूर किसान आत्महत्या कर रहे हैं. इस से यह साफ है कि सरकार कृषि क्षेत्र के जरूरी कायाकल्प के प्रति बिलकुल ही गंभीर नहीं है.
कृषि शोध : आधेअधूरे वादे, खतरनाक इरादे
बजट में कृषि शोध की समीक्षा और जलवायु अनुकूल किस्मों के विकास का वादा किया गया है, लेकिन इस के लिए कोई ठोस फंडिंग नहीं दी गई है. कृषि शिक्षा और शोध विभाग के लिए मात्र 9941.09 करोड़ रुपए का आवंटन किया गया है, जो पिछले साल की तुलना में बेहद मामूली वृद्धि है. इस राशि से कृषि अनुसंधान में व्यापक सुधार की उम्मीद करना बेमानी है.
भारतीय प्रशासनिक सेवा बनाम भारतीय कृषि सेवा : विशेषज्ञता के बिना जहाज का डूबना तय है
कृषि छात्रों और कृषि वैज्ञानिकों के साथ उन फैकल्टी की तुलना में सदैव पक्षपात होता रहा है. भारतीय कृषि सेवा की लंबे समय से मांग की जाती रही है. देश की कृषि योजनाओं का निर्माण व शीर्ष स्तरीय कार्यान्वयन कृषि विशेषज्ञों के बजाय आईएएस व अन्य प्रशासनिक अधिकारियों के द्वारा निष्पादित किया जाता है.
हमारा मकसद यहां प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों की कार्यक्षमता पर सवाल उठाना नहीं है. किंतु यह भी समझना होगा कि हवाईजहाज उड़ने वाले पायलट से अगर पानी का जहाज चलवाएंगे, तो जहाज के डूबने की पर्याप्त संभावना है.
प्राकृतिक खेती : घटता बजट, खोखले दावे
गजब विडंबना है कि संसद में बजट प्रस्तुत करने के साथ अगले 2 साल में एक करोड़ किसानों को प्राकृतिक खेती से जोड़ने की योजना का जिक्र है, लेकिन इस काम के लिए मात्र 365 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है, जबकि पिछले साल इस काम के लिए 459 करोड़ रुपए का प्रावधान था यानी पिछले साल की तुलना में इस साल के बजट में 94 करोड़ रुपए अर्थात 20 फीसदी की कटौती की गई है. इस से भी ज्यादा आश्चर्यजनक व सत्य तथ्य यह है कि पिछले साल इस मद में सरकार ने केवल 100 करोड़ रुपए ही खर्च किए थे.
ऐसा प्रतीत होता है कि इस सरकार में एक हाथ क्या कर रहा है दूसरे हाथ को पता ही नहीं है, अन्यथा जिस मुद्दे पर प्रधानमंत्री स्वयं संसद में खड़े हो कर छाती ठोंक कर एक करोड़ किसानों को जैविक खेती से जोड़ने की बात कर रहे हों, उसी मद में 20 फीसदी की कटौती हो जाए, तो इस का मतलब यही है कि या तो प्रधानमंत्री को वस्तुस्थिति का पता नहीं है अथवा यह तथ्य जानबूझ कर उन से छुपाए गया है.
जाहिर है कि प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के सरकार के प्रयास नाकाफी हैं और सरकार झूठे आंकड़ों से खुद को और जनता दोनों को बहला रही है.
हाईटैक डिजिटल एग्रीकल्चर : वास्तविकता व व्यवहार्यता से कोसों दूर
ड्रोन के फायदे गिनाते सरकार थकती नहीं है. पिछले बजट में एक मोटी राशि भी इस पर खर्च कर दी गई, पर इस अत्यंत महंगे खिलौने ने ज्यादातर फायदा इस के निर्माण और विपणन से जुड़ी कंपनियों को ही पहुंचाया है, बहुसंख्य किसानों तक इस का फायदा कैसे पहुंचेगा, इस का कोई प्रभावी रोडमैप दिखाई नहीं देता.
डिजिटल पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर के उपयोग से कृषि में डिजिटलीकरण को बढ़ावा देने की घोषणा की गई है. लेकिन सवाल उठता है कि इस प्रक्रिया का असल मकसद क्या है? किसानों को हर सीजन में और अलगअलग फसलों के लिए औनलाइन पंजीकरण की प्रक्रिया में उलझा दिया जाता है. डिजिटल डिवाइड और डेटा दुरुपयोग की चिंताओं को नजरअंदाज कर दिया गया है.
खाद्य तेल और दालों में आत्मनिर्भरता : एक दूर की कौड़ी
खाद्य तेलों और दालों में आत्मनिर्भरता के लिए मिशन शुरू करने की घोषणा की गई है, लेकिन पिछले अनुभव बताते हैं कि ऐसे कदमों का वास्तविक लाभ नहीं मिला है. जब किसानों का दलहन बाजार में आता है, उस समय उन्हें न तो सही दाम मिलता है, और न ही पर्याप्त खरीदी होती है. कालांतर में तेल आयात कर व्यापारी और कंपनियां मोटा मुनाफा कमाती हैं. सरकार की नाक के नीचे किसान लुट रहा है और व्यापारी चांदी काट रहे हैं. एमएसपी में बढ़ोतरी और बफर स्टाक बनाने जैसे प्रयास नाकाम रहे हैं. आयात पर निर्भरता और कीमतों में उतारचढ़ाव की समस्या जस की तस बनी हुई है.
फलसब्जियों की कीमतों में ठहराव : ठोस समाधान का अभाव
फलसब्जियों की कीमतों में उतारचढ़ाव के चलते महंगाई पर नियंत्रण नहीं हो पा रहा है. टौपअप जैसी स्कीम की असफलता इस बात का सुबूत है. फलसब्जियों के बेहतर उत्पादन, मार्केटिंग और भंडारण के लिए इस बार भी कोई ठोस वित्तीय प्रावधान नहीं किया गया है, जिस से किसानों को राहत मिल सके.
डेयरी और फिशरीज : आधे मन से आधीअधूरी घोषणाएं
डेयरी और फिशरीज के क्षेत्र में केवल झींगा उत्पादन और निर्यात को बढ़ावा देने की बात कही गई है. देश में दूध का उत्पादन कुल खाद्यान्न से अधिक हो गया है. यह क्षेत्र पर्याप्त संभावनाओं का क्षेत्र है, लेकिन इस महत्वपूर्ण क्षेत्र के लिए भी कोई नई योजना या बड़ा आवंटन नहीं किया गया है.
कृषि सहकारिता: सहकारिता की फसल, चर गए नेता
सहकारिता आंदोलन के तुच्छ राजनीतीकरण के कारण पटरी से नीचे उतर गया है. असल किसानों को सहकारिता के फायदे के दायरे में लाने के लिए नई नीति लाने की घोषणा की गई है. लेकिन इस के सुधार का कोई नवीन रोडमैप आज भी अस्पष्ट है. इस के लिए पूर्व में गठित की गई समितियों के सुझावों पर ही निर्भर रहना पड़ेगा. आमूलचूल परिवर्तन लाने वाली नवीन नीति के आने तक किसानों को कोई ठोस लाभ मिलता दिखाई नहीं देता. सहकारिता के नवीन अवतार वर्तमान ‘एफपीओ’ भी कमोबेश नई बोतल में पुरानी शराब वाली कहावत चरितार्थ कर रहे हैं.
अंततः बहुत कठिन है डगर पनघट की, आगे की राह आसान नहीं
कृषि और सहयोगी क्षेत्रों के लिए बजट 2024-25 में कोई बड़े बदलाव या घोषणाएं नहीं हैं. सरकार की प्राथमिकताओं में कृषि को पहले स्थान पर रखना एक दिखावा है. सच तो यह है कि किसानों को बड़े सुधारों और दीर्घकालिक योजनाओं एवं समग्र बजट के 15 से 20 फीसदी राशि की आवश्यकता है. जबकि सरकार चाहे किसी भी पार्टी की हो, देश की आबादी का 70 फीसदी जोकि खेती और कृषि संबद्ध उद्योग से जुड़ा हुआ है, के लिए को बजट का मात्र 3 से 4 फीसदी 3 से 4 फीसदी राशि ही आवंटित की जाती रही है.
वर्तमान बजट में भी नया कहने को कुछ भी नहीं है, पिछली परंपराओं को ही दोहराया गया है. कृषि के लिए बजट राशि में पहले से भी ज्यादा कटौती की गई है. किसान आंदोलन के दरमियान भाजपा नेताओं और उन के प्रवक्ताओं ने जिस तरह से देश के किसानों को तरहतरह के विशेषणों से नवाजा, गालियां दी, आंदोलन को कुचलने का प्रयास किया, इस सब से देशभर के किसानों में एक कड़वाहट और नाराजगी बैठ गई है. किसानों की बहुप्रतीक्षित मांगों को पूरा करते हुए एक सकारात्मक बजट ला कर इस नाराजगी को कम किया जा सकता था, किंतु सरकार ने एक और अच्छा अवसर गवा दिया.