“अन्नदाता सुखी भव:!” यह वाक्य भारत में सरकारों का शाश्वत जुमला बन चुका है. लेकिन सच यह है कि किसान सुखी तभी तक है, जब तक वह चुनावी मंचों और घोषणापत्रों में ‘संपन्न’ दिखता है. जैसे ही बजट आता है, वह एक बार फिर कर्ज, सूखा, बेमौसम बारिश और फसलों के गिरते दामों की भूलभुलैया में धकेल दिया जाता है. वित्त वर्ष 2025-26 का बजट भी किसानों के लिए वही पुरानी कहानी दोहराता है— वादों का महल और हकीकत की झोंपड़ी.
सरकार ने कुल 47.66 लाख करोड़ रुपए का बजट पेश किया. इस में रेलवे के लिए 3 लाख करोड़ और सड़क परिवहन के लिए 2.9 लाख करोड़ की सौगात दी गई. लेकिन देश के 61 फीसदी लोगों की रोजीरोटी चलाने वाले और 1.5 अरब आबादी को दोनों वक्त भोजन देने वाले कृषि क्षेत्र को मात्र 1.75 लाख करोड़ रुपए?
कहने को यह पिछले साल से 23 हजार करोड़ रुपए ज्यादा है, लेकिन महंगाई और मुद्रास्फीति को देखते हुए यह वास्तव में बजट में कटौती ही है. किसानों को यह बजट वैसा ही महसूस होगा, जैसे किसी भूखे को अधजली रोटी का टुकड़ा पकड़ा कर कहा जाए, “लो, खूब जी भर के खाओ.”
किसानों के लिए लालीपौप ब्रांड स्कीमें
अब आते हैं उन “अद्भुत” घोषणाओं पर, जिन का ढोल पीट कर सरकार ने यह जताने की कोशिश की है कि किसानों की बल्लेबल्ले हो गई.
किसान क्रेडिट कार्ड की सीमा 3 लाख से बढ़ा कर 5 लाख रुपए कर दी गई. वाह, अब किसानों के सिर पर कर्ज का बोझ और भी तेजी से बढ़ेगा यानी नया कर्ज लो, पुराना चुकाओ, ब्याज बढ़ाओ और फिर आत्मनिर्भरता का सपना देखो.
धनधान्य योजना में 100 जिलों के 1.7 करोड़ किसानों को जोड़ने की बात कही गई है. सोचने वाली बात यह है कि भारत में 797 जिले हैं (लगभग 800), लेकिन इस में सिर्फ 100 जिलों को ही शामिल किया गया है यानी अगर सबकुछ ठीकठाक भी चला, तब भी यह योजना पूरे देश में लागू होने में 8 साल लगा देगी. यह वैसा ही है, जैसे किसी बीमार व्यक्ति को कहा जाए, “अभी 100 लोगों का इलाज करेंगे, बाकी को इंतजार करना होगा.”
दालों में आत्मनिर्भरता के लिए 6 साल की योजना घोषित की गई है. अरहर, उड़द, मसूर पर विशेष ध्यान दिया जाएगा. लेकिन इस योजना के लिए कितना बजट तय किया गया है, इस का कहीं कोई जिक्र नहीं किया गया. ऐसे में यह एक पोस्टडेटेड चेक की तरह है, जो किसानों के लिए कागज पर तो अच्छा दिखता है, लेकिन असल में काम आएगा या नहीं, इस की कोई गारंटी नहीं है.
नेफेड और एनसीसीएफ किसानों से दालें खरीदेंगे, ऐसा कहा गया है. पर इन संस्थाओं का इतिहास बताता है कि खरीदारी का खेल महज फाइलों में ही ज्यादा चलता है.
डेयरी और फिशरी सैक्टर के लिए 5 लाख रुपए तक का लोन यानी और कर्ज, और ब्याज, और सरकार का बढ़िया विज्ञापन. वैसे, यहां यह बताना भी जरूरी है कि देरी और फिशरी सैक्टर के लिए और भी कई ऋण योजनाएं पहले से ही चल रही हैं.
कपास के लिए 5 साल का मिशन चलाया जाएगा, जिस में उत्पादन और विपणन पर ध्यान रहेगा. लेकिन इस के लिए भी सरकार ने कितना बजट तय किया है, इस की कोई जानकारी नहीं दी गई यानी यह भी एक पोस्टडेटेड चेक ही है. पिछले अनुभवों को देखते हुए किसानों को यह मान कर चलना चाहिए कि इन चेक के बाउंस होने की पूरी संभावना है, जैसे कि ‘साल 2022 तक किसानों की आय दोगुनी’ करने का वादा भी एक जुमला ही साबित हुआ.
पीएम किसान सम्मान निधि : ‘नाम बड़े और दर्शन छोटे’
अब आते हैं उस योजना पर, जिस से हर किसान को बहुत उम्मीदें थीं. प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि. संसद की स्थायी समिति ने इस योजना के तहत किसानों को सालाना 6,000 रुपए की जगह 12,000 रुपए देने की सिफारिश की थी. सरकार ने इस पर क्या किया, कुछ नहीं.
भला सोचिए, आज के जमाने में 6,000 रुपए सालभर में किसी किसान के लिए क्या कर सकते हैं? इतनी रकम में तो 12 लाख सालाना आय पर टैक्स छूट पाने वाला एक परिवार का शहर के किसी महंगे रेस्तरां में एक डिनर भर कर सकता है. लेकिन सरकार को लगता है कि किसान इतने में खुश हो जाएं, ताली बजाएं और सरकार की जयजयकार करें.
एक बात और, यह योजना पिछले चुनावों के ठीक पहले जब शुरू हुई थी, तो लगभग 13:50 करोड़ किसानों को इस से जोड़ा गया था, पर धीरेधीरे इस के लाभ लेने वाले किसानों की संख्या को काटछांट कर लगभग आधा कर दिया गया है.
कर्ज दो, कर्ज लो, पर किसानों की आय मत बढ़ाओ
इस बजट की सब से बड़ी विडंबना यह है कि यह किसानों को कर्ज लेने के लिए और ज्यादा प्रोत्साहित करता है, लेकिन उन की आय बढ़ाने का कोई ठोस उपाय नहीं करता. कर्ज के सहारे आत्मनिर्भरता का सपना दिखाना वैसा ही है, जैसे पानी में तैरना सिखाने के लिए किसी को बीच समुद्र में फेंक देना.
कर्ज बढ़ता जा रहा है, उत्पादन लागत बढ़ रही है, लेकिन किसानों की आय जस की तस है. सरकार ने साल 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का वादा किया था. साल 2025 चल रहा है, किसान की आय दोगुनी तो नहीं हुई, हां, उस के कर्ज, समस्याएं और आत्महत्याएं जरूर दोगुनी हो गई हैं.
बजट या छलावा?
यह बजट किसानों के लिए “ऊंट के मुंह में जीरा” जैसा है. सरकार जितने भी बड़ेबड़े वादे करे, जब तक किसान को उस की उपज का सही दाम नहीं मिलेगा, उसे सरकारी योजनाओं की जटिलता से बाहर निकाल कर सीधे लाभ नहीं मिलेगा, तब तक इस तरह के बजट सिर्फ “आश्वासन की खेती” करते रहेंगे, जिस से केवल अफसरों और बिचौलियों की जेब भरेगी.
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री मिल्टन फ्रीडमैन के अनुसार, “सच्चा आर्थिक विकास वही है, जो उन लोगों को सशक्त करे, जो सब से ज्यादा वंचित हैं.”
लेकिन, यह बजट किसान को मजबूत नहीं, बल्कि कर्ज, सरकारी दांवपेंच और वादों के जाल में और फंसाने का ही काम करेगा. यह किसानों के लिए सुखद भविष्य का सपना दिखाने वाला, मगर हाथ में खाली कटोरा पकड़ा देने वाला बजट है.
किसान की थाली खाली, सरकार की माला जारी
तो कुलमिला कर यह बजट किसानों के लिए एक मृगतृष्णा है. घोषणाओं का मीठा पानी है, लेकिन जब किसान इसे पीने जाता है, तो हाथ कुछ नहीं लगता. सरकार को सच में किसानों की चिंता है या सिर्फ घोषणाओं की? यह सवाल अब हर किसान के मन में है.
बहरहाल, सरकार को चाहिए कि वह “कर्ज बांटो और वाहवाही लो” वाली नीति छोड़ कर ‘किसान को मजबूत बनाने के लिए उत्पादन की लाभकारी मूल्य सुनिश्चित करने हेतु ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ गारंटी कानून ले कर आए, वरना वह दिन दूर नहीं जब किसान, जिसे कभी देश की रीढ़ कहा जाता था, खुद को इस देश में बेगाना महसूस करने लगेगा.
थौमस पिकेटी का कहना है, “यदि संपत्ति और संसाधन कुछ हाथों में केंद्रित हो जाएं और आम जनता सशक्त न हो, तो अर्थव्यवस्था का विकास मात्र भ्रम होता है.”